Posted on 26 Dec, 2014 01:38 PMदेख रहा हूँ लम्बी खिड़की पर रक्खे पौधे धूप की ओर बाहर झुके जा रहे हैं हर साल की तरह गोरैया अबकि भी कार्निस पर ला-ला के धरने लगी है तिनके हालाँकि यह वह गोरैया नहीं यह वह मकान भी नहीं ये वे गमले भी नहीं, यह वह खिड़की भी नहीं कितनी सही है मेरी पहचान इस धूप की
कितने सही हैं ये गुलाब कुछ कसे हुए और कुछ झरने-झरने को
Posted on 23 Dec, 2014 04:04 PMजब हम अपने देश की नदियों – गंगा, यमुना, नर्मदा और ब्रह्मपुत्र और इनके किनारे गुजर-बसर करने वाले करोड़ों जिन्दगियों के बारे में सोचें तो यह भी सोचें कि किस तरह कुछ मुट्ठी भर राजनेता बीते तीन-चार दशकों से उनकी ज़िन्दगी तय या बरबाद कर रहे हैं। ये नदियाँ कई लाख वर्षों से सदानीरा बह रही हैं लेकिन इधर कुछ सालों से विकास की अन्धाधुन्ध दौड़ में लगा समाज इन्हें नष्ट करने में लगा है। नदियों के बढ़ते प्रदूषण और इनके खत्म होने की कहानी पर आधारित अनुपम मिश्र जी का यह लेख।
देश की तीन नदियाँ- गंगा, यमुना और नर्मदा अपने किनारे करोड़ों जिन्दगियों को आश्रय देती हैं। उन्हें पीने का पानी, खेतों की सिंचाई से लेकर उनके मल तक धोने का काम करती हैं। मैं इस पंक्ति के साथ मुट्ठी भर राजनेता भी जोड़ना चाहूँगा। जब भी हम इन तीन नदियों और करोड़ों जिन्दगियों के बारे में सोचें तो यह भी सोचें कि किस तरह कुछ मुट्ठी भर राजनेता पिछले चार दशकों से उनकी जिन्दगी तय या बरबाद कर रहे हैं।