सुरेश नौटियाल

सुरेश नौटियाल
संयुक्त राष्ट्र रियो+20 पृथ्वी शिखर सम्मेलन के घोषणापत्र का मसौदा नाकाफी
Posted on 28 Jun, 2012 11:53 AM

रियो+20 शिखर सम्मेलन के घोषणापत्र का मसौदा बनाने के लिये जो समूह तय किये गये थे वे पूरी तरह से सफल नहीं रहे चूंक

थोड़ा सा आगे, पर आगे जाने की जरूरत!
Posted on 28 Jun, 2012 09:56 AM

आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय पक्षों के आपसी रिश्तों को समझते हुये टिकाऊ विकास की अवधारणा की समझ भी जरूरी है और

कोप 15: जंग तो अब शुरू हुई है धरती बचाने की
Posted on 12 Jun, 2012 07:55 AM

आज धरती दुखी है। इस पर रहने वाले तमाम प्राणी दुखी हैं। तमाम विरासतें दुखी हैं। अर्थात् जड़ से चेतन सब दुखी। मनुष्य से 'कम समझदार' प्राणियों को शायद मालूम न हो कि दुख का कारण क्या है पर 'सबसे समझदार' प्राणी मनुष्य को मालूम है कि आज धरती पर जो संकट है उसके दुख का कारण वह स्वयं है। अब वह चाहे पहली दुनिया का ही क्यों न हो। क्यूबा के करिश्माई नेता फिदेल कास्त्

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टिकाऊ भविष्य की ओर ले जायेगा क्या रियो+20?
Posted on 11 Jun, 2012 05:24 PM

यह सम्मेलन धरती को ताप और जलवायु परिवर्तन से बचाने के अलावा भी कई और मायनों में खास है, इसीलिये इसमें प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों के अलावा निजी क्षेत्र से लेकर सिविल सोसायटी तक के नेतागण शामिल हो रहे हैं। यहां तक कि इस सम्मेलन को सदी में एक-आध बार आने वाले अवसर की तरह भी देखा जा रहा है। भविष्य की आर्थिकी टिकाऊ कैसे बने, इस विषय पर नेतागण इसमें गहन मंथन करेंगे।

भारत जैसे देश में रियो+20 का मतलब कितने प्रतिशत लोग समझते हैं, यह तो नहीं मालूम; लेकिन इतना ज़रूर है कि 1992 में आयोजित पृथ्वी शिखर सम्मेलन के 20 साल बाद हो रहे रियो+20 सम्मेलन से जो कुछ निकलेगा, उसका प्रभाव भारत ही नहीं पूरी दुनिया के लोगों और तमाम प्राणिमात्र पर पड़ेगा। आशा और आशंका के बीच ब्राज़ील के रियो दी-जानीरो शहर में संयुक्तराष्ट्र का रियो+20 सम्मेलन 13 से 22 जून तक होने जा रहा है, हालांकि राष्ट्राध्यक्षों और प्रधानमंत्रियों की मुख्य बैठक 20 से 22 जून तक होगी। सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह समेत दुनियाभर के 100 से ज्यादा देशों के राष्ट्राध्यक्ष और शासनाध्यक्ष तथा विभिन्न क्षेत्रों के अग्रणी लोग हिस्सा लेंगे।
जलवायु परिवर्तन और वंचित समाज
Posted on 10 Jun, 2012 01:02 PM

धरती के गर्म होते मिजाज, इसकी वजह से हो रहे जलवायु परिवर्तन और अंतत: मानव के साथ-साथ तमाम जंतुओं और वनस्पतियों, वृक्ष प्रजातियों, फसलों इत्यादि पर हो रहे असर को कम करने के लिए लोगों में जागरूकता बढ़ाने और उन्हें इन तमाम विषयों के प्रति संवेदनशीलता की परम आवश्यकता है। आज पूरे विश्व की निगाह आगामी दिसंबर में संयुक्त राष्ट्र के कोपेनहेगेन सम्मेलन पर टिकी है। इस सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन से जुड़े उन तमाम विषयों पर चर्चा होनी है जिनका संबध संपूर्ण मानवता, जीव-जंतुओं और वनस्पतियों की सुरक्षा, संरक्षण और संवर्धन से है। आज के हालात में जलवायु परिवर्तन गंभीर और संवेदनशील मामला बन गया है इसलिए जलवायु में आ रहे बदलाव को रोकने के लिए तरह-तरह के उपाय जारी हैं।
कोप 15 : कोपेनहेगन जलवायु वार्ता: जनपक्षीय और समग्र हिमालयी नीति जरूरी
Posted on 07 Jun, 2012 03:59 PM
संयुक्त राष्ट के कोपेनहेगन जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन की पृष्ठभूमि में आज दुनिया भर में जिस विषय पर यकायक चर्चा केन्द्रित हो गई है, वह विषय है तेजी से गरमाती धरती और वातावरण के कारण हो रहा जलवायु परिवर्तन। बाली से बार्सेलोना तक और ऋषिकेश से लेकर बेलम (ब्राजील) तक विभिन्न स्तरों पर जलवायु परिवर्तन का मसला गरम है। जलवायु परिवर्तन को लेकर एक बहस तो यह है कि 18 हजार
climate
कोप 15 : जलवायु वार्ताओं को होपलेसहेगन से बचाना होगा
Posted on 02 Jun, 2012 09:24 AM

संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दों पर विचार और इस बारे में किसी सर्वसम्मत और बाधाकारी अंतर्राष्ट्रीय समझौते तक पहुंचने के लिए गत वर्ष 7 से 18 दिसम्बर तक कोपेनहेगन में चली वार्ता (कॉप-15) बुरी तरह से फ्लॉप रही चूंकि इस वार्ता के अंत में आम सहमति से कोई ऐसा अंतर्राष्ट्रीय समझौता नहीं हो सका जिसे दुनिया के तमाम देश मानने के लिए ब

art hopenhagen
पानी चाहिए तो हिमालय बचाना होगा
Posted on 08 Sep, 2015 04:17 PM

हिमालय दिवस 9 सितम्बर 2015 पर विशेष


अलवर, राजस्थान स्थित तरुण भारत संघ ने वर्ष 2007 में एक पुस्तक छापी थी- भारतीय जल दर्शन। इसके एक अध्याय- प्रलयकाल में जल का वर्णन- में पुराणों के हवाले से कहा गया है कि प्रलय का समय आने तक मेघ पृथ्वी पर वर्षा नहीं करते। किसी को अन्न नहीं मिलता, ब्रह्माण्ड गोबर के उपले की तरह धू-धूकर जलने लगता है... सब कुछ समाप्त हो जाता है... इसके बाद सैकड़ों वर्षों तक सांवर्तक वायु चलती है और इसके पश्चात असंख्य मेघ सैकड़ों वर्षों तक वर्षा करते हैं। सब कुछ जलमग्न हो जाता है...”

नहीं मालूम कि यह पौराणिक आख्यान कितना सच होगा पर आज इस सबकी अनुभूति सी होने लगी है। वर्षा का चक्र बिगड़ गया है, अन्न की कमी हो ही चुकी है और पृथ्वी उपले की तरह तो नहीं जल रही पर तापमान खूब बढ़ गया है और वैसा ही कुछ अहसास दे रही है।

जलवायु वैज्ञानिकों का एक वर्ग भी मानता है कि हर एक लाख वर्ष के बाद धरती 15-20 हजार वर्ष तक गर्म रहती है और वर्तमान जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया कोई 18 हजार वर्ष पहले शुरू हो गई थी।
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