जिस बाढ़ ने इलाके की अर्थव्यवस्था को पलीता लगा दिया हो उसकी भरपाई डेढ़ करोड़ देकर पूरी नहीं की जा सकती लेकिन अतीत की बिरुदावली गाकर अपना समय काटनेवाले प्रदेश के इस हिस्से में बाढ़ भी कुछ ऐसा ही संकट है जैसे बेरोजगारी और बेकारी। इन दो संकटों से यह हिस्सा अपने तईं निपट लेता है तो बाढ़ के लिए किसी लखनऊ की ओर क्यों टकटकी लगाएगा?
आवेश का फोन आया कहने लगे बहुत बड़ी खबर दे रहा हूं। रिहन्द का फाटक खोल दिया गया है। उनके लिहाज से यह इतनी बड़ी खबर है कि इसकी राष्ट्रीय स्तर पर सूचना होनी चाहिए। उन्होंने बड़ी खबर नहीं भेजी लेकिन रिहन्द का फाटक अभी भी खुला है और राष्ट्रीय न सही राज्य के स्तर पर यह बड़ी खबर अखबारों में पहले पन्ने पर मौजूद है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस इलाके में सालों बाद जमकर पानी बरसा है। आज भी इस इलाके में सूचना का सबसे त्वरित स्रोत अखबार ही है इसलिए उन्हीं के बताये पर विश्वास करना होता है। वे बता रहे हैं कि वर्षा से अब तक पूर्वी उत्तर प्रदेश के पांच जिलों में सौ से अधिक लोग मारे जा चुके हैं।
राष्ट्रीय न सही राज्य स्तर की आपदा तो है ही। करीब 300 किलोमीटर दूर लखनऊ में बाढ़ की इस विभिषिका पर आला अफसर चिंतित हुए और उदार होकर मदद करने की योजनाओं पर काम करने लगे। खुद मुख्यमंत्री मायावती जी को भी चिंता हुई इसलिए आनन-फानन में उन्होंने प्रदेश के मुख्य सचिव अनूप कुमार मिश्र को दौरे पर भेज दिया। लगभग उपेक्षित से इस इलाके के प्रति लखनऊ की यह संवेदना द्रवित कर देने वाली है। लखनऊ कभी भी इस इलाके के प्रति उदार होता हो ऐसा इतिहास में कोई प्रमाण नहीं है। जैसे देश में बिहार का पिछड़ापन जीडीपी में फर्क डालता आया है वैसे ही पूर्वी उत्तर प्रदेश भीमकाय प्रदेश की जीडीपी के लिए हमेशा से संकट रहा है। आमतौर पर मनीआर्डर व्यवस्था पर जीवन यापन करने वाले इस पच्चीस तीस जिलों के पास सिर्फ दोआब की जमीन है, लेकिन इस जमीन पर भी जन का इतना ज्यादा भार है कि जोत कम पड़ती जाती है और पलायन बढ़ता जाता है। प्रदेश का पश्चिमी हिस्सा इसे पूरबिया मानकर वैसे ही व्यवहार करता है जैसे दिल्ली में पाकिस्तान से आये पंजाबी बिहार से गये बिहार वालों को बिहारी कहकर खारिज करते रहे हैं।
ऐसे में लखनऊ का चिंतित होना किसे अच्छा नहीं लगेगा? लेकिन जरा रुकिए। यह चिंता भी क्या इतनी उदार है कि इस चिंता का प्रशंसा पत्र पढ़ा जाए। अकेले सोनभद्र में तीन दिनों के अंदर करीब पांच सौ मिली. लीटर बारिश हुई है। तीस से पचास हजार लोग बेघर हो गये हैं और बारिश थमने के बाद भी घरों के गिरने का सिलसिला जारी है। सोनभद्र के अलावा वाराणसी, गाजीपुर, मिर्जापुर और जौनपुर में भी बारिश ने अपना कहर ढाया है। जो खबरें आ रही हैं उसके अनुसार सबसे ज्यादा मौतें जौनपुर जिले में हुई हैं। असर लगभग समूचे पूर्वी उत्तर प्रदेश में है। जाहिर है प्रशासन को सक्रिय होना ही चाहिए। वह हुआ भी लेकिन बाढ़ की इस विभिषिका से निपटने के लिए उसने जो मदद की घोषणा की है वह मदद कम मजाक ज्यादा नजर आती है। आप कल्पना करिए कि कोई एक समूचा जिला बाढ़ के पानी से घिर गया हो, फसलें चौपट हो गई हों और लोगों के घर गिर रहे हों तब क्या किसी एक जिले के दर्द को कुछ लाख रुपए का अनुदान देकर उसकी टीस को कम किया जा सकता है? आप मानें न मानें मायावती का प्रशासन यही मानता है। 'उदारमना' माया प्रशासन से पूर्वी उत्तर प्रदेश को बाढ़ की विभिषिका से उबरने के लिए डेढ़ करोड़ के मदद की घोषणा की है। निजी विमान से वाराणसी का दौरा करने पहुंचे मुख्य सचिव की यात्रा पर हुआ खर्च भी इस लिहाज से ज्यादा बड़ी राशि नजर आती है। इन डेढ़ करोड़ रुपयों में सोनभद्र और वाराणसी को पचास पचास लाख रुपये तथा जौनपुर को पच्चीस लाख रुपये की मदद अविलंब उपलब्ध करवाई जा रही है। मुख्य सचिव का आश्वासन है कि जिनके घर गिर रहे हैं उन्हें इंदिरा आवास के तहत आवास उपलब्ध करवाया जाएगा और मुख्यमंत्री मायावती कह रही हैं जिन घरों के जन मर रहे हैं उनको एक एक लाख रुपया दिया जाएगा लेकिन उन उदार घोषणाओं के बीच जो राशि मंजूर की गई है वह महज डेढ़ करोड़ ही है।बाढ़ पीड़ितों का सुध लेने वाला कोई नहींकल तक जो अखबार बाढ़ की बिरुदावली गा रहे थे वे अब मदद की बिरुदावली गाने लगे हैं। अखबार इसी बात से खुश दिख रहे हैं कि कम से कम लखनऊ ने हमारी ओर देखा तो सही। किसी भी अखबार ने यह सवाल नहीं उठाया है कि जूता चप्पल भी प्राइवेट जेट से मंगाने वाली बहनजी की इस राहत राशि से कौन सा राहत कार्य चलाया जाएगा? लेकिन यह इस इलाके की सोच भी है और दुर्भाग्य भी कि यहां बसने वाले लोग स्वभाव से स्थानीय नहीं होते। उनकी सोच राष्ट्रीय होती है और वे हमेशा राष्ट्रीय चर्चा करते हुए अपनी प्रासंगिकता बनाये रखना चाहते हैं इसलिए चिदम्बरम का इस्तीफा उनके लिए जीवन पर वास्तविक संटक से बड़ी खबर है। खुद उन्हें भी चिदम्बरम के इस्तीफे की ही चिंता है जो बाढ़ से घिरे हैं तो अखबार भला क्यों उनकी चिंता करेंगे? तय मानिए अगर ऐसे हालात देश के किसी और हिस्से में होते तो शोर भी मचता और मदद भी मिलती, लेकिन क्योंकि यह बाढ़ पूरबियों के सिर आई है इसलिए वह इसमें भी तैरकर खुद ही पार हो जाएगा और किसी शासन प्रशासन से सवाल जवाब करने की बजाय ईश्वर का कोप मानकर अपने अंदर समाहित कर लेगा।
वे चिंतित हो न हों लेकिन दूर से देखने पर आप चिंतित हुए बिना नहीं रह सकते। जिस बाढ़ ने इलाके की अर्थव्यवस्था को पलीता लगा दिया हो उसकी भरपाई डेढ़ करोड़ देकर पूरी नहीं की जा सकती लेकिन अतीत की बिरुदावली गाकर अपना समय काटनेवाले प्रदेश के इस हिस्से में बाढ़ भी कुछ ऐसा ही संकट है जैसे बेरोजगारी और बेकारी। इन दो संकटों से यह हिस्सा अपने तईं निपट लेता है तो बाढ़ के लिए किसी लखनऊ की ओर क्यों टकटकी लगाएगा?
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