करिंगू अजय सिर्फ चौदह साल के हैं लेकिन खेलने कूदने की इस उम्र में उनका शरीर एक जिन्दा लाश बनकर रह गया है। फ्लोरोसिस नामक जहरीली बीमारी ने उनके शरीर को एक गठरी बनाकर रख दिया है। उनके शरीर पर तकिया बाँधकर रखा जाता है ताकि हड्डियों का दर्द उन्हें कम तकलीफ दे। उन्हीं के पड़ोस की उन्नीस साल के वीरमाला राजिता की हड्डियाँ इस तरह से मुड़ गयी हैं कि वो मुश्किल से जमीन पर रेंगकर चल पाती हैं। राजिता कहती हैं, “मेरा कोई जीवन नहीं है। मैं हर समय घर पर रहती हूँ। कहीं जा नहीं सकती। बड़े लोग घर पर आते हैं जिनमें नेता और फिल्मी हस्तियाँ सभी शामिल हैं लेकिन मदद कोई नहीं करता। सब सहानुभूति दिखाकर चले जाते हैं।”
राजिता और अजय की यह दर्दभरी कहानी न इकलौती है और न ही आखिरी। तेलंगाना के नलगोंडा जिले में सदियों से हड्डियों की यह चीख पुकार जारी है। इन्हीं दर्दभरी पुकारोंं में एक आवाज कंचुकटला सुभाष की भी है। अधेड़ हो चुके सुभाष के तन पर तो फ्लोरोसिस नामक घातक बीमारी का कोई असर नहीं है लेकिन उनके मन और जीवन पर फ्लोराइड का गहरा असर हुआ है।
सुभाष के पिता जानते थे कि उनके गाँव के पानी में फ्लोराइड का जहर मिला हुआ है शायद इसीलिए समय रहते उन्होंने सुभाष को पढ़ने के लिये नलगोंडा से दूर हैदराबाद भेज दिया। सुभाष बताते हैं कि “मैं तो फ्लोराइड के असर से बच गया लेकिन मेरे पिता नहीं बच पाये। उनकी दोनों किडनी फेल हो गयी और वो असमय हमें छोड़कर चले गये।” सुभाष के पिता की असमय मौत ने उनके मन और जीवन दोनों पर गहरा प्रभाव डाला। उन्होंने तय किया कि वो इस “दानव” से लड़ेंगे जिसने उनके पिता को असमय उनसे छीन लिया था।
इस तरह सुभाष के जीवन में फ्लोराइड के खिलाफ एक जंग की शुरूआत हुई। हालाँकि नलगोंडा के पानी में फ्लोराइड के खिलाफ यह सुभाष की पहली जंग नहीं थी। पहली जंग हैदराबाद के निजाम ने 1945 में शुरू कर दी थी लेकिन नवाबियत के खात्मे के साथ ही उस जंग का भी खात्मा हो गया। 1945 में निजाम ने बटलापेल्ली गाँव में फ्लोराइड मुक्त पानी मुहैया कराकर लोगों को फ्लोराइड से बचाने की शुरूआत की थी लेकिन यह काम आगे नहीं बढ़ पाया। देश आजाद हुआ। निजाम का शासन खत्म हुआ और इसके साथ ही निजाम की बनायी व्यवस्था भी टूट गयी।
आजाद भारत के पास इतना पैसा ही नहीं था कि वह नलगोंडा वासियों के पानी से ‘जहर’ खींचकर बाहर निकाल सके। आजादी के करीब सत्ताइस साल बाद पहली बार पानी में फ्लोराइड के खिलाफ सरकारी मुहिम शुरू हुई। नीदरलैण्ड सरकार ने भारत सरकार को इस काम के लिये 375 करोड़ रुपये का अनुदान दिया। इसी पैसे से नलगोंडा में पानी छानने के 29 प्लांट लगाये गये। इस तकनीकि को ही नलगोंडा तकनीकि कहा गया जिसमें भूजल को छानकर पीने योग्य बनाया जाता था। लेकिन जैसे ही नीदरलैंड सरकार का फण्ड खत्म हुआ, पानी छानने का यह काम भी बंद हो गया। इसके बाद आलम नाम का एक तरल पदार्थ लोगों को दिया गया जिसे पानी में मिलाने पर पानी में फ्लोराइड को खींच लेता था। दस लीटर पानी में 40 मिलीलीटर तरल मिलाना पड़ता था। लेकिन तकनीकि कारणों से यह तकनीकि भी सफल नहीं हो सकी। इसके बाद एक घरेलू वाटर फिल्टर लाया गया जिसमें एक्टिवेटेड एल्युमुनिया होता था। यह एक्टिवेटेड एल्युमुनिया फ्लोराइड कणों को पकड़ लेता था। इस एक्टिवेटेड एल्युमुनिया को हर पंद्रह दिन पर बदलना पड़ता था जो कि ग्रामीण परिवेश में संभव नहीं था। लिहाजा, यह तकनीकि भी फेल हो गयी।
नलगोंडा में फ्लोराइड से लड़ने के लिये एक के बाद एक तकनीकि आती रही लेकिन सब फेल होती रहीं। इधर 1992 में जब सुभाष हैदराबाद से पढ़ाई करके वापस लौटे तो उनका पहला सामना फ्लोराइड की समस्या से ही हुआ। सुभाष ने इस समस्या के खिलाफ अपनी लड़ाई की शुरूआत जनजागरण से शुरू करने का फैसला किया। सुभाष बताते हैं “दूषित पानी का सबसे पहला शिकार बच्चे ही होते हैं क्योंकि घर से लेकर बाहर तक वो बिल्कुल अनजान होते हैं कि वो जो पानी पी रहे हैं उसका उनके स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ेगा।” इसलिए सुभाष ने सबसे पहले स्कूलों में जन जागरण अभियान चलाया। इसके अलावा नलगोंडा के आठ सौ गाँवों में दीवार लेखन किया। गाँव-गाँव जाकर नुक्कड़ नाटक किये और लोगों को बताया कि उनके साथ जो शारीरिक समस्या हो रही है वह पानी में फ्लोराइड के कारण हो रही है। उन्होंंने लोगों को समझाना शुरू किया कि वो सावधानी रखेंगे तो कैसे इससे अपना बचाव कर सकते हैं।
सुभाष जानते थे कि सिर्फ जनजागरण से समस्या का समाधान नहीं होने वाला है फिर भी कुछ बचाव तो हो ही सकता था। ऐसा नहीं है कि नलगोंडा के पास इस फ्लोराइड वाले पानी की समस्या का कोई समाधान नहीं था। समाधान था और बिल्कुल बगल में था। 1968 में देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने जिस नागार्जुन सागर बाँध की आधारशिला रखी थी वह नलगोंडा में ही था। नलगोंडा का यह नागार्जुन सागर बाँध राज्य के दूर दराज के इलाकोंं की प्यास तो बुझा रहा था लेकिन खुद नलगोंडा वासियों को नागार्जुन सागर का पानी पीने के लिये उपलब्ध नहीं था। इसलिए अब सुभाष के सामने एक ही रास्ता था कि वो सरकार को मजबूर करते कि वह नलगोंडा वासियों को पीने के लिये नागार्जुन सागर बाँध का पानी मुहैया कराती। सुभाष कहते हैं, “हमारा संविधान हमें जीने का अधिकार देता है लेकिन यहाँ हमें अपने उस मूलभूत अधिकार से ही वंचित कर दिया गया था।”
सुभाष ने साल 2000 में हाईकोर्ट जाने का फैसला किया। उन्होंने नलगोंडा में पानी के बारे में विस्तृत रिपोर्ट तैयार की, प्रयोगशालाओं में पानी की जाँच करवाई और पूरी तैयारी के साथ वो हाईकोर्ट गये कि नलगोंडा वासियों के जीवन के मूलभूत अधिकार की रक्षा हो सके। तीन साल सुनवाई के बाद 2003 में हाईकोर्ट ने आंध्र प्रदेश सरकार को आदेश दिया कि सरकार साल भर के भीतर नलगोंडा वासियों को सुरक्षित पीने का पानी मुहैया करवाये। हाइकोर्ट ने अपने आदेश में जो मुख्य बातें कहीं उसके मुताबिक “सरकार सुरक्षित पेयजल उपलब्ध करवाये, बच्चों के लिये स्कूल में फ्लोराइड मुक्त पानी की व्यवस्था करे, जहाँ जरूरी हो वहाँ गैर सरकारी संगठनों की भी मदद ले और युद्धस्तर पर इस काम को पूरा करके एक साल के भीतर न्यायालय को सूचित करे।”
हाईकोर्ट के इस सख्त निर्देश के वाजिब कारण थे। नलगोंडा की 36 लाख की आबादी में से आधी आबादी को उस वक्त डेन्टल फ्लोरोसिस था। 75 हजार ऐसे लोगों की पहचान की गयी जिनके शरीर का ढाँचा बिगड़ गया था और करीब 8.5 लाख बच्चे फ्लोराइड के प्रभाव में थे। लेकिन अदालत के इस सख्त आदेश के बावजूद सरकार सालभर में अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं कर सकी। लिहाजा सुभाष ने अपने आंदोलन को और तेज करने का निर्णय किया। नलगोंडा जिले से डेढ़ लाख पोस्टकार्ड लिखवाकर उन्होंने हाईकोर्ट को दिया साथ ही साथ उन्होंने लोगों का आह्वान किया कि वो नागार्जुन सागर बांध की तरफ चलें और अपना पानी खुद हासिल कर लें।
राज्य में चुनाव आया तो उन्होंने फ्लोराइड को राजनीतिक मुद्दा बनाते हुए अपने प्रत्याशियों को भी चुनाव मैदान में उतारने का काम किया। नलगोंडा जिले में पदयात्रा का आयोजन किया और हैदराबाद में होने वाले एशिया सोशल फोरम से लेकर दिल्ली के वर्ल्ड सोशल फोरम तक नलगोंडा में फ्लोराइड की समस्या को उठाते रहे। आखिरकार एक दशक से ज्यादा समय से चला आ रहा उनका संघर्ष सफल हुआ और राज्य सरकार ने नागार्जुन सागर बांध से नलगोंडा वासियों को पीने का पानी मुहैया कराना शुरू कर दिया। शुरूआत में आंगनवाड़ी केन्द्रो, स्कूलों और उन गाँवों को प्राथमिकता पर रखा गया जहाँ फ्लोराइड का असर सबसे ज्यादा था। इसके साथ ही सरकार के अंदर एक विभाग डीएफएमसी का गठन भी किया गया जो फ्लोराइड प्रभावित इलाकों पर नजर रखने का काम करता है और वहाँ चलायी जा रही योजनाओं का क्रियान्वयन और समीक्षा करता है ताकि समय से योजनाएँ पूरी होती रहें। राज्य का पुलिस विभाग भी नागरिकों की मदद के लिये आगे आया और कंपनियों की मदद से जिले के 25 गाँवों में आरओ प्लांट लगावया।
नलगोंडा में फ्लोराइड ने न केवल व्यक्ति का शरीर बल्कि अर्थव्यवस्था से लेकर सामाजिक व्यवस्था तक सबको चौपट किया है। सुभाष बताते हैं कि हमारे यहाँ फ्लोराइड की वजह से लोग खुलकर हँसना भूल गये थे। दाँतों पर चढ़ा फ्लोराइड का रंग यहाँ के लोगों की जिन्दगी को बदरंग कर रहा था। शादी विवाह की समस्या भयावह हो चुकी थी। जिन गाँवों में फ्लोराइड की समस्या बहुत ज्यादा थी वहाँ न तो लोग अपनी बेटी देते थे और न ही वहाँ की बेटी को बहू बनाकर अपने यहाँ लाते थे। शारीरिक अक्षमता के कारण यहाँ के लोग सेना पुलिस में भी भर्ती होने नहीं जा पाते हैं। पलायन तो एक समस्या थी ही। लोगों को जहाँ साफ पीने का पानी मिला वहाँ जाकर बस गये।
लेकिन अब सुभाष को उम्मीद है कि जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई तो नहीं हो सकती लेकिन भविष्य में धीरे-धीरे हालात बदलेंगे। नलगोंडा में उनका संघर्ष रंग लाया है। अब वो चाहते हैं कि फ्लोराइड के खिलाफ नलगोंडा का यही मॉडल पूरे देश में लागू किया जाए। देश में जहाँ-जहाँ फ्लोराइड लोगों की जिन्दगी के रंग को बदरंग कर रहा है वहाँ-वहाँ नलगोंडा की ही तर्ज पर डीएफएमसी मॉडल लागू किया जाए। सुभाष को उम्मीद है कि नलगोंडा तकनीकि भले ही खुद नलगोंडा में असफल हो गयी हो लेकिन नलगोंडा का यह मॉडल देश में जरूर सफल होगा। अब उनके जीवन का अगला मकसद भी यही है। इसके लिये नलगोंडा के इस नायक ने देशभर में उन इलाकों का दौरा करना शुरू कर दिया है जहाँ-जहाँ फ्लोराइड का असर है।
Path Alias
/articles/nalagaondaa-kaa-naayaka
Post By: Hindi