पीने का पानी। इस एक शब्द में क्या अतिश्योक्ति है? अगर कोई आपसे पूछे कि इस एक शब्द में आपत्तिजनक क्या है तो आप क्या कहेंगे? निश्चित रूप से इसमें आपत्तिजनक कुछ भी नहीं है। पानी होता ही है पीने के लिए। फिर इसमें आपत्तिजनक क्या हो सकता है? फिर भी वह आपसे पूछे कि नहीं इसमें कुछ आपत्तिजनक है तो फिर आप क्या कहेंगे?
पीने का पानी और नहाने का पानी, कपड़ा धोने का पानी और शौचालय का पानी, गाड़ी धोने का पानी और बगिया सींचने का पानी ये सब पानी अलग अलग हो गये हैं। लेकिन क्या पानी अलग अलग हो सकता है? पानी तो सिर्फ पानी ही होता है फिर वह अलग अलग कैसे हो गया?
पानी से पानी का यह अलगाव मनुष्य के विकासनामा से आया है। दुनियाभर में औद्योगिक उत्पादन की जो सोच पिछले ढाई तीन सौ सालों से काम कर रही है उसका परिणाम है कि पंच महाभूत यानी पर्यावरण के पांच अनिवार्य तत्व बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं। पानी, हवा और धरती तीनों ही प्रदूषित हुए हैं। अग्नि और आकाश की बात इसमें इसलिए नहीं जोड़ रहे हैं क्योकिं इनका प्रयोजन भौतिक नहीं बल्कि अधिभौतिक है। प्रदूषण तो आकाश तत्व में भी आया है लेकिन इसके प्रदूषण का लेबल नापने का हमारे पास कोई यंत्र नहीं है। रही बात अग्नि की तो वह प्रदूषित हो नहीं सकती क्योंकि वह समस्त प्रकार के दोषों का निवारण करती है। अपने यंत्रों से हम पानी, हवा और धरती के प्रदूषण को नाप सकते हैं इसलिए इन तीनों की ही बात करते हैं।
दो कौड़ी की औद्योगिक सोच होते हुए भी उसने पूरी दुनिया को ऐसा गिरफ्त में लिया हुआ है कि कोई इसके खिलाफ बोलकर पिछड़ा होना नहीं चाहता। इसी औद्योगिक सोच ने धरती, पानी और हवा की हवा निकाल दी है। धरती तेजी से बंजर हो रही है, पानी तेजी से प्रदूषित हो रहा है और हवा तेजी से प्रदूषित हो रही है। फिर भी पागलपन देखिए कि कोई भी औद्योगीकरण के इस रास्ते से पीछे नहीं हटना चाहता। पानी का बंटवारा भी इसी औद्योगिक सोच का परिणाम है।
परंपरागत समाज में प्राकृतिक पदार्थ का बंटवारा नहीं किया जाता। वह सबके लिए समान रूप से और पूरी पवित्रता में उपलब्ध होता है। दुनिया में जो लोग भाईचारा कायम करने की कोशिश कर रहे हैं अगर वे दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों की पवित्रता और समान उपलब्धता सुनिश्चित कर सकें तो इस दुनिया से वैमनस्य अपने आप खत्म हो जाएगा। अगर सबके लिए समान रूप से प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध होगा तो भला झगड़ा किस बात का है?
अपने यहां भी पानी का बंटवारा तो करते हैं लेकिन वह बंटवारा दूषित और स्वच्छ का बंटवारा नहीं है। वह बंटवारा शीतल और उष्ण का हो सकता है, वह बंटवारा मीठे और खारे का हो सकता है, वह बंटवारा अम्लीय और क्षारे का हो सकता है लेकिन दूषित और स्वच्छ पानी का बंटवारा तो कहीं है ही नहीं। मसलन देश में कुल 49 तरह की बयार (हवा) बहती है लेकिन उसमें भी कोई बंटवारा नहीं है बल्कि मौसम को समझने की कला छिपी हुई है।
अब सोचिए, पीने का पानी शब्द में क्या आपत्तिजनक है?
पीने का पानी और नहाने का पानी, कपड़ा धोने का पानी और शौचालय का पानी, गाड़ी धोने का पानी और बगिया सींचने का पानी ये सब पानी अलग अलग हो गये हैं। लेकिन क्या पानी अलग अलग हो सकता है? पानी तो सिर्फ पानी ही होता है फिर वह अलग अलग कैसे हो गया?
पानी से पानी का यह अलगाव मनुष्य के विकासनामा से आया है। दुनियाभर में औद्योगिक उत्पादन की जो सोच पिछले ढाई तीन सौ सालों से काम कर रही है उसका परिणाम है कि पंच महाभूत यानी पर्यावरण के पांच अनिवार्य तत्व बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं। पानी, हवा और धरती तीनों ही प्रदूषित हुए हैं। अग्नि और आकाश की बात इसमें इसलिए नहीं जोड़ रहे हैं क्योकिं इनका प्रयोजन भौतिक नहीं बल्कि अधिभौतिक है। प्रदूषण तो आकाश तत्व में भी आया है लेकिन इसके प्रदूषण का लेबल नापने का हमारे पास कोई यंत्र नहीं है। रही बात अग्नि की तो वह प्रदूषित हो नहीं सकती क्योंकि वह समस्त प्रकार के दोषों का निवारण करती है। अपने यंत्रों से हम पानी, हवा और धरती के प्रदूषण को नाप सकते हैं इसलिए इन तीनों की ही बात करते हैं।
दो कौड़ी की औद्योगिक सोच होते हुए भी उसने पूरी दुनिया को ऐसा गिरफ्त में लिया हुआ है कि कोई इसके खिलाफ बोलकर पिछड़ा होना नहीं चाहता। इसी औद्योगिक सोच ने धरती, पानी और हवा की हवा निकाल दी है। धरती तेजी से बंजर हो रही है, पानी तेजी से प्रदूषित हो रहा है और हवा तेजी से प्रदूषित हो रही है। फिर भी पागलपन देखिए कि कोई भी औद्योगीकरण के इस रास्ते से पीछे नहीं हटना चाहता। पानी का बंटवारा भी इसी औद्योगिक सोच का परिणाम है।
परंपरागत समाज में प्राकृतिक पदार्थ का बंटवारा नहीं किया जाता। वह सबके लिए समान रूप से और पूरी पवित्रता में उपलब्ध होता है। दुनिया में जो लोग भाईचारा कायम करने की कोशिश कर रहे हैं अगर वे दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों की पवित्रता और समान उपलब्धता सुनिश्चित कर सकें तो इस दुनिया से वैमनस्य अपने आप खत्म हो जाएगा। अगर सबके लिए समान रूप से प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध होगा तो भला झगड़ा किस बात का है?
अपने यहां भी पानी का बंटवारा तो करते हैं लेकिन वह बंटवारा दूषित और स्वच्छ का बंटवारा नहीं है। वह बंटवारा शीतल और उष्ण का हो सकता है, वह बंटवारा मीठे और खारे का हो सकता है, वह बंटवारा अम्लीय और क्षारे का हो सकता है लेकिन दूषित और स्वच्छ पानी का बंटवारा तो कहीं है ही नहीं। मसलन देश में कुल 49 तरह की बयार (हवा) बहती है लेकिन उसमें भी कोई बंटवारा नहीं है बल्कि मौसम को समझने की कला छिपी हुई है।
अब सोचिए, पीने का पानी शब्द में क्या आपत्तिजनक है?
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