रोहिणी निलेकणी

रोहिणी निलेकणी
आ अब लौट चलें जड़ों की ओर
Posted on 04 Sep, 2015 11:11 AM

इस समय भारत में हर कोई यह समझता है कि हम एक गम्भीर जल संकट का सामना कर रहे हैं। हमारी ज्यादातर नदियाँ प्रदूषित हैं, अवरुद्ध हैं या फिर मृतप्राय हैं। वर्षा का चक्र लगातार अनियमित होता जा रहा है और आगे इसके बढ़ते रहने का अन्देशा है। हमारा भूजल स्तर निरन्तर कम हो रहा है। झीलें या तो सूख रही हैं या गन्दे पानी से भर रही हैं।

‘लो’ कार्बन के साथ ‘लो’ वॉटर इकॉनमी भी जरूरी
Posted on 23 Jun, 2011 11:17 AM

‘लो’ वॉटर इकॉनमी का अर्थ है, पानी को कम खर्च करना और उसका दोबारा इस्तेमाल करना। इसके पीछे यह सिद्धांत है कि पर्यावरण में प्राकृतिक अवस्था में जितना भी पानी है, उसे जहां तक संभव है बचाया जाए। पानी की हर बूंद का दोबारा इस्तेमाल किया जाए।

पानी के बिना जीवन की कल्पना मुश्किल है। गर्मियों के मौसम में पानी की सबसे ज्यादा जरूरत महसूस होती है और यही वह समय होता है, जब इसकी सबसे ज्यादा किल्लत होती है। भारतीय उपमहाद्वीप की भीषण गर्मी के बीच हर साल मानसून में हम अच्छी बारिश की कामना करते हैं। हमारे जल स्रोत बहुत हद तक बारिश पर निर्भर करते हैं। वैसे पानी की कमी सिर्फ गर्मियों की समस्या नहीं है। अगर पिछले दशक का सारा संघर्ष तेल को लेकर था, तो बेशक यह दशक पानी के नाम रहने वाला है। धरती पर पानी तेजी से खत्म हो रहा है और जो उपलब्ध है, वह भी अच्छी क्वालिटी का नहीं है।

स्वस्थ जीवन के लिये स्वच्छ पानी का “अर्घ्य”
Posted on 23 Mar, 2010 04:17 PM

वर्तमान समय की सबसे बड़ी समस्या है “जल प्रदूषण”, जो करोड़ों लोगों को अपनी चपेट में ले रही है, आज की सबसे बड़ी जरूरत है कि हम पानी के अपने स्थानीय स्रोतों को पुनर्जीवित करें और उन्हें संरक्षित करें ताकि एक तरफ़ तो सूखे से बचाव हो सके, वहीं दूसरी तरफ़ साफ़ पानी की उपलब्धता हो सके। साफ पानी को हमें अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण घटक मानकर भारत में पर्यावरण स्वच्छता के तरीके भी हासिल किये जा सकें। - रोहिणी निलेकणी

 

 


रोहिणी निलेकणी, “अर्घ्यम” की अध्यक्षा और संस्थापक हैं, “अर्घ्यम” की स्थापना उन्होंने सन् 2005 में की थी।

रोहिणी नीलेकणी
कच्छ में प्रकृति का सुन्दर संतुलन
Posted on 24 Sep, 2009 07:27 PM

हमेशा की तरह मानसून समूचे देश में समय पर आये, न आये, अच्छी बरसात हो, न हो। इससे क्या फर्क पड़ता है, राजस्थान और गुजरात जैसे हमेशा सूखे की मार झेलने वाले इलाके जहाँ औसत बारिस सलाना 250 मिमी से अधिक नहीं है, हर वर्ष की तरह उन्हें तो इस बार भी पानी की कमी से जूझना ही है।
पानी के लिये स्थापित प्रतिमानों का आपसी संघर्ष
Posted on 24 Sep, 2009 06:40 PM

(पानी एक सामाजिक सम्पत्ति है या आर्थिक सम्पत्ति? प्रतिमानों की इस भीषण लड़ाई के लिये युद्धक रेखाएं खींची जा रही हैं)

हरित शौचालयः ईको फ्रैंडली टॉयलेट
Posted on 24 Sep, 2009 06:32 PM

पर्यावरण की सफ़ाई के लिये अपशिष्ट को उपयोगी संसाधन में बदलना ही नये युग का प्रतिमान गढ़ना है।
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