अघनाशिनी, अर्थात पापों का नाश करने वाली। अघनाशिनी प्रायद्विपीय भारत की अविरल बहने वाली अंतिम प्रमुख नदी है। जिसके किनारों पर बसे दो लाख परिवारों का जीवन और आजीविका नदी पर ही निर्भर है। ये नदी अपने प्रोटीन से भरपूर बिरवे, केकड़ें और झींगा की फसल के लिए भी प्रसिद्ध है। नदी के कई पवित्र स्थान यहां आने वाले तीर्थयात्रियों को अध्यात्मिक संतुष्टि प्रदान करते हैं। इसके भूभाग के किनारे स्थित अद्वितीय और अनोखे स्थान पर्यटकों और शोधकर्ताओं आकर्षित करते हैं और शोध के लिए कई स्थान भी प्रदान करते हैं। इसके पवित्र घाटों पर पेड़ कभी गिरे नहीं है। घने मैंग्रोव और लुप्तप्राय शेर की पूंछ वाल लंगूर यहां पांच मिलियन वर्ष पहले आए थे। नदी के किनारों पर बसी आदिवासी आबादी यक्ष कला को जीवित रखे हुए हैं और इसके अप्पेमिडी जंगली आम का अचार सबसे अच्छा और स्वादिष्ट बनता है। इसके नमक और कीट प्रतिरोधी कग्गा चावल की सूचनी तो अंतहीन है।
अघनाशिनी नदी सिरसी शहर के शंकर होंडा गांव में स्थित है, जो घुमावदार मोड़ों, अनोखें दलदलों और प्राचीन खेती के क्षेत्रों से होते हुए कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ जिले के कुमता में अरब सागर में मिलती है। नदी का ये गहना अरब सागर तक के अपने 124 किलोमीटर के सफर में अविरल रूप से बहता है, जो हिमालय की रेंज से भी ज्यादा पुराना या शायद पश्चिमी घाट जितना पुराना है। पश्चिमी घाट की तरफ बहने वाली अघनाशिनी में पानी की मात्रा बड़ी काली और शरवती नदी के बराबर है, लेकिन ये लंबे समय तक बनी नहीं रहेगी। नदी का मुहाना मछलियों की दर्जनों किस्मों को पनाह देने वाले बाइवलेव्स, केकड़ों और मैंग्रोव से समृद्ध है। नदी की जंगली भूमि पर बायोलूमिनेसंसे बिछी हुई है।
प्रायद्वीपीय भारत की इस अविरल बहने वाली नदी पर समय-समय पर बुनियादी ढांचों की कई योजनाएं बनाई गईं। एक बार औद्योगिक नमक उत्पादन की कोशिश की गई, लेकिन फिर काम को बंद कर दिया गया। फिर एक पनबिजली परियोजना, एक थर्मल पाॅवर प्लांट, एक बंदरगाह और दूर-दराज के शहरों के लिए नदी के पानी को मोड़ने की योजना बनाई गई। जिसका स्थानीय लोगों, पारिस्थितिक वैज्ञानिकों, आध्यात्मिक नेताओं और मछुआरों ने निरंतर और भारी विरोध किया। विरोध के चलते योजना को बंद कर दिया गया और नदी मुक्त हो गई।
नदी में विभिन्न स्थानों पर ढाल होने के कारण यहां उन्चल्ली झरने जैसे कई झरने हैं, जहां सर्दियों की पूर्णिमा में रात की चांदनी और चांदनी से उत्पन्न इंद्रधनुष को देख सकते हैं। दरअसल, अघनाशिनी अविरल बहने, प्रदूषण रहित होने और और सदियों से अपने पुराने प्राकृतिक मार्ग पर बहने के कारण अद्वितीय नदी है, लेकिन बांध और विभिन्न चैनलों में बांधे जाने के कारण भारत की अधिकांश नदियां अविरल नही हैं। जलग्रहणों को तबाह करने और पानी की निकासी के रास्तों पर अतिक्रमण करने के कारण कई अन्य नदियों ने तो हार ही मान ली है, जिस कारण भारत की अधिकांश नदियां समुंद्र तक नहीं पहुंच पाती हैं। आज भी जल विज्ञान चक्र और मानसून समुद्र तक बहने वाली नदियों पर निर्भर करता है, लेकिन प्रचतिल हाइड्रो स्किजोर्फेनियां इस वास्तविकता को स्वीकार करने से इनकार करते हैं जिस कारण हम नदियों के बुनियादी ढांचे के साथ निर्माण जारी रखते हैं।
प्रायद्वीपीय भारत की इस अविरल बहने वाली नदी पर समय-समय पर बुनियादी ढांचों की कई योजनाएं बनाई गईं। एक बार औद्योगिक नमक उत्पादन की कोशिश की गई, लेकिन फिर काम को बंद कर दिया गया। फिर एक पनबिजली परियोजना, एक थर्मल पाॅवर प्लांट, एक बंदरगाह और दूर-दराज के शहरों के लिए नदी के पानी को मोड़ने की योजना बनाई गई। जिसका स्थानीय लोगों, पारिस्थितिक वैज्ञानिकों, आध्यात्मिक नेताओं और मछुआरों ने निरंतर और भारी विरोध किया। विरोध के चलते योजना को बंद कर दिया गया और नदी मुक्त हो गई। अब सागरमाला के हिस्से के रूप में अघनाशिनी के मुहाने पर 40 हजार करोड़ रुपये की लागत से मेगा आल वेदर पोर्ट की कल्पना की गई है, यह बंदरगाह मौजूदा छोटे तादरी बंदरगाह का विस्तार करेगा।
कर्नाटक में पहले से ही तीन सौ किलोमीटर की तटरेखा के साथ 13 बंदरगाह हैं। जिनमें मंगलुरु एक प्रमुख बंदगाह है, जो राज्य से आने और जाने के लिए भारी यात्रा जहाजों का संचालन करता है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि जब आसपास के बंदरगाहों को कम उपयोग में लाया जाता है तो राज्य सरकार किस आधार पर तादरी बंदरगाह को व्यवहार्य बनाने की अपेक्षा करती है। 25 किलोमीटर दूर बेलेकी बंदरगाह है, जिसका उपयोग उद्योग धराशाही होने से पहले लौह अयस्क के निर्यात और कोयले के आयात के लिए किया जाता था। महज 25 किलोमीटर दक्षिण में होन्नावर बंदरगाह का सदियों पुराना समुद्री इतिहास है। ये दोनों कोंकण रेलवे लाइन और एनएच-17 के माध्यम से अच्छी तरह से जुड़े हुए हैं। हालाकि यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि यह बंदरगाह कभी आर्थिक रूप से व्यवहार्य होगा या नहीं।
इस क्षेत्र की प्राकृतिक संपदा के संदर्भ में जो रिपोर्ट छोड़ी गई है और इस बंदरगाह के निर्माण के माध्यम से क्या नुकसान होगा, इस पर सामान्य विवादों के साथ पर्यावरण मंजूदरी में तेजी आई है। इसी बीच नदी और उसके जलग्रहण द्वारा बनाए गए आर्थिक और भविष्य के प्रमाण के अवसरों को ठीक से प्रलेखित नहीं किया गया है। पश्चिमी घाट में नदी के मुहाने पर एक साथ रेत और मैंग्रोव में प्रभावी कार्बन सिंक है। जो बाढ़ और कटाव की रोकथाम सहित क्षेत्र में अनकही पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएं प्रदान करते हैं। नदी के मुहानों पर पानी की गहराई मुश्किल से दो मीटर है, जिस कारण यदि बंदरगाह का निर्माण किया जाता है, तो इसे व्यापक ड्रेजिंग की आवश्यकता होगी। डॉक के जहाजों के लिए यह लगभग 20 मीटर तक घिसना होगा, जिससे कार्बन समृद्ध मिट्टी और रेत की एक बड़ी मात्रा जारी होगी। किसको होगा फायदा? हम अक्सर रोजगार सृजन के नाम पर पारिस्थितिकी आधारित आजीविका को नष्ट कर देते हैं, लेकिन समुद्री उत्पादन में गिरावट आने पर उत्तरदायी कौन होगा, जैसा कि बंदरगाहों के पास का अनुभव रहा है ?
आर्थिक अनुशासन के लिए एक पारिस्थितिक अनुशासन की आवश्यकता होती है। अगर हम सागरमाला परियोजना के लिए डिजाइन किए गए प्रत्येक बंदरगाह के साथ आगे बढ़ते हैं, तो हम अविकसित बुनियादी ढांचे में फंसी हुई संपत्ति और अरबों डॉलर बर्बाद करे देंगे। ठीक वैसा ही परिणाम हिमालय में दिखाई देता है जहां भूमि और अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों का समग्र व वैज्ञानिक आकलन किये बिना ही बांधों का निर्माण किया गया था। दरअसल यहाँ इको-टूरिज्म की क्षमता को यदि चरम प्राकृतिक सुंदरता के साथ संभाला जाए तो पर्याप्त राजस्व प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन क्या संतों, कवियों, लोक प्रशासकों और सरल वास्तुकारों के इस महान देश में, हमारी राष्ट्रीय और स्थानीय कल्पना इतनी अधिक सिकुड़ गई है कि हम आने वाली पीढ़ियों को तलाशने, आनंद लेने और लाभ उठाने के लिए, प्रायद्वीपीय भारत की अंतिम प्रमुख बहती नदी को अकेला नहीं छोड़ सकते ? भविष्य को ध्यान में रखते हुए हमें समझना होगा और अघनाशिनी की निर्मल धारा को निर्मल बहने देना होगा।
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