पुरुषार्थवती

पुरुषार्थवती
सरिता के प्रति
Posted on 06 Dec, 2013 10:31 AM
सजनि! कहां से बही आ रही, चली किधर किस ओर?
किसके लिए मची है हिय में, यह व्याकुलता घोर?

अगणित हृदयों में छेड़ी है मूक व्यथा अनजान,
कितने ही सूनेपन का, कर डाला है अवसान।

बिछा प्रकृति का अंचल सुंदर तेरा स्वागत सार,
चूम-चूमकर वृक्ष झूमते, ले-ले निज उपहार।

सतत तुम्हारे मन-रंजन को विहग करें कल्लोल,
तुझे हंसाने को ही निशि-दिन बोलें मीठे बोल!
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