प्रशान्त दुबे और रोली शिवहरे
प्रशान्त दुबे और रोली शिवहरे
कैसे कहें यह राष्ट्रीय तीर्थ है .......!!!
Posted on 16 Feb, 2011 09:22 AM
कल एक बांध को देखा तो कसक जाग उठी ।
एक तीर्थ बनाने में कितने घर डूबे होंगे ।।
कौन मरा, कौन जिया, किसकी जमीनें डूबीं, कोई बहीखाता नहीं है यहां ।
आज कौन है, कहां हैं, कोई नहीं जानता ।
पर कल रिक्शा चलाते मिला था, एक आदमी सतना की सड़कों पर ।
कुरेदा तो बताया कि बरगी से आया हूं।
वो तो आज भी रहते हैं अंधेरे में ही
हाथ कटाने को तैयार ?
Posted on 15 Feb, 2011 03:41 PMकाम के अभाव में यहां के लोगों का पलायन जारी है। खामखेड़ा के बीरनलाल कहते हैं कि पहले तो हमें डुबो कर मार ड़ाला, अब काम ना देकर मार डालेगी ये सरकार !! पेट के बच्चे तक के लिये यहां पर योजनायें हैं लेकिन हम क्या विदेशी हैं, आतंकवादी हैं ?काली चाय का गणित
Posted on 15 Feb, 2011 03:26 PMजब बाँध बनने की बात होती थी तो हम लोग हंसते थे कि जिस नर्मदा माई को भगवान नहीं बाँध पाये और जो अमरकंटक से निकलकर कल-कल बहती ही रही है,उसे कौन बाँध सकता है ? और जब भगवान नहीं बाँध पाये तो नर्मदा विकास (प्राधिकरण) की क्या बिसात ...........?बरगी बांध की डूब में डूबते-उतराते सवाल
Posted on 17 Feb, 2011 11:42 AM
साथियों, 2010 का साल बड़े बाँधों की 50वीं बरसी का साल था। यह 50वां साल हमें समीक्षा का अवसर देता है कि हम यह तय कर सकें कि यह नव-विकास क्या सचमुच अपने साथ विकास को लेकर आ रहा है या इस तरह के विकास के साथ विनाश के आने की खबरें ज्यादा है। इस पूरी बहस में एक सवाल यह भी है कि यह विकास हम मान भी लें तो यह किसकी कीमत पर किसका विकास है? दलित/आदिवासी या हाशिये पर खड़े लोग ही हर बार इस विकास की भेंट क्यों चढ़ें? आखिर क्यों?