साथियों, 2010 का साल बड़े बाँधों की 50वीं बरसी का साल था। यह 50वां साल हमें समीक्षा का अवसर देता है कि हम यह तय कर सकें कि यह नव-विकास क्या सचमुच अपने साथ विकास को लेकर आ रहा है या इस तरह के विकास के साथ विनाश के आने की खबरें ज्यादा है। इस पूरी बहस में एक सवाल यह भी है कि यह विकास हम मान भी लें तो यह किसकी कीमत पर किसका विकास है? दलित/आदिवासी या हाशिये पर खड़े लोग ही हर बार इस विकास की भेंट क्यों चढ़ें? आखिर क्यों?
इस क्यों का जवाब ही तलाश रहे हैं बाँध या इस तरह की अन्य विकास परियोजनाओं के विस्थापित एवं प्रभावित लोग? एक बड़ा वर्ग भी है जो इस तरह के विकास को जायज ठहराने में कही कसर नहीं छोड़ता है क्योंकि इसी विकास के दम पर मिलती है उसको बिजली और पानी लेकिन उनके विषय में सोचने को उसके पास समय भी नहीं है और न ही विश्लेषण की क्षमता।
बड़े बाँधों की 50वीं बरसी पर बरगी बाँध की पड़ताल करती प्रशान्त दुबे और रोली शिवहरे के चार आलेखों की श्रृंखला।
1 - ‘विकास के विनाश’ का टापू
2 - काली चाय का गणित
3 - हाथ कटाने को तैयार ?
4 - कैसे कहें यह राष्ट्रीय तीर्थ है .......!!!
इससे बड़ा नक्शा देखें
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