मीनाक्षी अरोड़ा और केसर

मीनाक्षी अरोड़ा और केसर
बुन्देलखण्ड - तालाबों की खुदाई में ही खुदाई है
Posted on 20 Sep, 2016 01:04 PM

बुन्देलखण्ड में जलसंकट कोई नया नहीं है। आज के हजार साल पहले से सूखे से निपटने के लिये बुन्देलखण्ड का समाज कोशिश करता रहा है। तब के राजाओं ने पानी के संकट से जूझने के लिये बड़े-बड़े तालाब बनाए थे। जल संकट से निजात के लिये बुन्देलखण्ड में आठवीं शताब्दी के चन्देल राजाओं से लेकर 16वीं शताब्दी के बुन्देला राजाओं तक ने खूब तालाब बनाए।

चन्देल राजकाल से बुन्देला राज तक चार हजार से ज्यादा बड़े-विशाल तालाब बनाए गए। समाज भी पीछे नहीं रहा। बुन्देलखण्ड के लगभग हर गाँव में औसतन 3-5 तालाब समाज के बनाए हुए हैं। पूरे बुन्देलखण्ड में पचास हजार से ज्यादा तालाब फैले हुए हैं।
तालाबनामा 2016 - तालाबों के साथ-साथ
Posted on 18 Jun, 2016 03:40 PM

उत्तर प्रदेश सरकार ने सौ बड़े तालाबों को एक-साथ उड़ाही के लिये चयनित किये। पचास तालाबों का चयन महोबा से किया गया। अट्ठारह तालाबों का बांदा से किया गया। शेष 32 तालाबों का चयन बुन्देलखण्ड के अन्य जिलों से किया गया। महोबा के चरखारी के पाँच से ज्यादा तालाबों की उड़ाही बहुत सुन्दर तरीके से की गई। महोबा के लगभग सभी जगह की रिपोर्टें बताती हैं कि लगभग हर जगह अच्छी तरह उड़ाही की गई है और उनमें पानी आने-जाने के रास्तों पर भी काम किया गया है। उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र में लगभग हर गाँव में औसतन 4-5 तालाब हैं। पूरे बुन्देलखण्ड में पचास हजार से ज्यादा तालाब फैले हुए हैं। चन्देल-बुन्देला राजाओं और गौड़ राजाओं के साथ ही समाज के बनाए तालाब ही बुन्देला धरती की जीवनरेखा रहे हैं। और ज्यादातर बड़े तालाबों की उम्र 400-1000 साल हो चुकी है।

उम्र का एक लम्बा पड़ाव पार कर चुके तालाब अब हमारी उपेक्षा और बदनीयती के शिकार हैं। तालाबों को कब्जेदारी-पट्टेदारी से खतरा तो है ही, पर सबसे बड़ा घाव तो हमारी उदासीनता का है। हमने जाना ही नहीं कि कब आगोर से तालाबों में पानी आने के रास्ते बन्द हो गए और कब हमारी उपेक्षा की गाद ने तालाबों को पूर दिया। इन सबके बावजूद 15 से 50 पीढ़ी तक इन्होंने बुन्देलखण्ड को पानी पिलाया है और आने वाली पीढ़ियों को भी पानी पिलाते रहेंगे, अगर अच्छे मन से तालाबों पर काम करते जाएँ। तो बुन्देलखण्ड के खुशियों के सागर कभी हमारा साथ न छोड़ेंगे।
कालीबाई की आंखों में भोर की उजास
Posted on 20 Sep, 2014 09:39 AM
झाबुआ के मियाटी गांव में कालीबाई कोई इकलौती नहीं, जिनको फ्लोरोसिस रोग लगा हो, यह तो यहां की घर-घर की कहानी है। अगर मियाटी को रेंगते, लुढ़कते और लड़खड़ाते हुए लोगों का गांव कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी

.लगभग डेढ़ दशक पहले झाबुआ जिले के मियाटी गांव के तोलसिंह का ब्याह जुलवानियां की थावरीबाई से हुआ। बाद में उसने थावरीबाई की छोटी बहन कालीबाई से “नातरा” कर लिया। मियाटी की आबोहवा में जाने क्या घुला हुआ था कि काली दिन-ब-दिन कमजोर होती चली गईं। 38 की उम्र आते-आते वह निशक्त हो गईं। हड्डियां ऐसी हो गईं जैसे वह कभी भी झर से झड़कर बिखर जाएंगी। उसके पैर टेढ़े-मेढ़े हो गए और उसके लिए दो कदम चलना भी पहाड़ जैसा हो गया था। लाठी ही उसका एक सहारा रह गई।

शादी के कुछ साल बाद काली का एक बेटा, भूरसिंह पैदा हुआ। काली को भरोसा हुआ कि बेटा बुढ़ापे का सहारा बनेगा लेकिन वह तो जवान होने से पहले ही बूढ़ा हो गया।
Kalibai
बादल है उड़ती नदी और नदी है बहता बादल
Posted on 12 Jul, 2014 09:31 AM
मानसूनमेघ ही वह कहार हैं, जो प्रत्येक नदी-नाला, गाड़-गधेरे और कुआं-बावड़ी सहित हर जलस्रोत को तृप्त कर सबमें पानी भरते हैं। मेघ प्रतिवर्ष यह काम कश्मीर से कन्याकुमारी तक अनथक करते हैं।

मेघ बहुत साहसिक कहार हैं। यह खूब भारी डोली यानी ढेर सारा तरल वाष्प लेकर हजारों मील दूर से भारत की यात्रा की शुरुआत करते हैं।
सोच, शौच और शौचालय
Posted on 09 Oct, 2012 10:41 AM
खुले में शौच तो हमें हर हाल में रोकना ही होगा। खुले में पड़ी टट्टी से उसके पोषक तत्व (नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम) कड़ी धूप से नष्ट होते हैं। साथ ही टट्टी यदि पक्की सड़क या पक्की मिट्टी पर पड़ी है तो कम्पोस्ट यानी खाद भी जल्दी नहीं बन पाती और कई दिनों तक हवा, मिट्टी, पानी को प्रदूषित करती रहती है। मानव मल में मौजूद जीवाणु और विषाणु हवा, मक्खियों, पशुओं आदि तमाम वाहकों के माध्यम से फैलते रहते हैं और कई रोगों को जन्म देते हैं। सुबह-सुबह गांवों में अद्भुत नजारा होता है। रास्तों में महिलाओं की टोली सिर पर घूंघट डाले सड़कों पर टट्टी करती मिल जाएगी। पुरुषों की टोली का भी यही हाल होता है। टोली जहां-तहां सकुचाते, शर्माते और अपने भाई-भाभियों, काका-काकियों से अनजान बनते मलत्याग को डटी रहती है। हिंदुस्तान की बहुत सी भाषाओं में शौच जाने के लिए ‘जंगल जाना’, ‘बाहर जाना’, ‘दिशा मैदान जाना’ आदि कई उपयोगी शब्द हैं। झारखंड में खुले में ‘मलत्याग’ को अश्लील मानते हुए लोगों में एक ज्यादा प्रचलित शब्द है ‘पाखाना जाना’। पर जनसंख्या बहुलता वाले इस देश में न गांवों के अपने जंगल रहे और न मैदान ही। अब तो गांवों को जोड़ने वाली पगडंडियां, सड़कें, रेल की पटरियां, नदी-नालों के किनारे ही ‘दिशा मैदान’ हो गए हैं। परिणाम; गांव के गली-कूचे, घूरे-गोबरसांथ और कच्ची-पक्की सड़कें सबके सब शौच से अटी पड़ी हैं।
लोगों की गाड़गंगा
Posted on 01 Dec, 2013 09:20 AM
30 सालों के दौरान गाँवों के समाज ने करीब 30 हजार चाल-खाल बनाई हैं। उनके लगे जंगल 100 फिट कैनोपी तक के हैं। जमीन पर ह्यूमस की परत काफी मोटी है। पशु पक्षी भी वहां मौजूद हैं। जंगल खेती और चारा सभी कुछ उगाने के लिए पर्याप्त पानी मौजूद है। इन जंगलों में अब हर तरह का जीवन संगीत गूँज रहा है। बाढ़ और सुखाड़ दोनों ही उस इलाके से जा चुके हैं। ग्लेशियर सूखने की घोषणा और बातें वहां के जंगल अपनी हवा में उड़ा देते हैं। अपने धर्म-कर्म के लिए एक गंगा बहा देते हैं।उफरैखाल, पौड़ी, चमोली और अल्मोड़ा तीन जिलों के बीच स्थित गांव है। जो जिम कार्बेट नेशनल पार्क के उत्तर में और समुद्र तल से 6000 फीट ऊपर पहाड़ों में है। दरअसल उफरैखाल ‘दूधातोली पर्वत श्रृंखला का हिस्सा है।’

उत्तराखंड में बहुत से कस्बों और गाँवों के नाम खाल के नाम पर हैं जैसे... उफरैखाल, चौबाटाखाल, नौगांवखाल, गुमखाल, बूबाखाल, चौखाल, परसुंडाखाल, पौंखाल, बीरोंखाल, भदेलीखाल, अदालीखाल, सतेराखाल, पड़जीखाल, किनगोड़ीखाल आदि। पूरे उत्तराखंड में लगभग ढाई हजार खाल पूर्वजों के बनाए हुए हैं।
×