गोविंद मिश्र

गोविंद मिश्र
जाके आंगन है नदी
Posted on 30 Dec, 2011 06:27 PM
गुजरात का आदिवासी इलाका धर्मपुरा बदहाली और मुफलिसी का बावजूद कुछ समर्पित समाजसेवियों और संस्थाओं की मदद से स्वावलंबन के रास्ते पर बढ़ रहा है। इस काम में कुदरत के साथ तालमेल बिठाकर जीने की कला भी विकसित हो रही है। लेकिन राज्य सरकार बड़ा बांध बनाकर इस क्षेत्र को विकसित करना चाहती है। विकास की विडंबना को कलमबद्ध किया है जाने-माने कथाकार गोविंद मिश्र ने इस यात्रा-वृत्त में।

सरकार हमेशा बड़े बांधों, उनसे बिजली बनाकर अमीरों को साधन पहुंचाने का ही क्यों सोचा करती है? कभी ऐसी जगहों पर रह रहे लोगों को वहीं स्थापित करने, नगरों, महानगरों की बजाय ऐसी जगहों को विकसित करने, जिससे कि यहां के लोग शहर की तरफ भागने की बजाय यहीं रहें, उल्टे वहां के लोग यहां आकर बसें- ऐसा कुछ क्यों नहीं सोचती? नहीं, वह अपनी बड़ी योजनाओं के नीचे उन लोगों को ही कुचल कर रख देगी, जो संख्या में भले कम हों, पर जो यहां के हैं, जिनका इस भूमि पर पहला अधिकार है।

इस बार मुबंई प्रवास थोड़ा लंबा था, तो अच्छा लगा जब मित्र आरके पालीवाल ने सुझाव दिया कि वापी के पास सह्याद्रि श्रेणियों के बीच एक आदिवासी इलाका देख आया जाए। वहां आदिवासियों के लिए कुछ अच्छा काम हो रहा है, कठिन परिस्थितियों में रहने वालों की तकलीफें दूर करने जैसे काम सीधे-सीधे समाज को लाभ पहुंचाते हैं, इसलिए पालीवाल को ऐसे काम साहित्य-लेखन से अधिक तुष्टि देने वाले लगते हैं। बस एक दिन जाना, एक रात रुकना, दूसरे दिन लौट आना। मैंने उरई में संजय सिंह के साथ ऐसे कामों को थोड़ा बहुत देखा था। उत्सुकता हुई कि देखें गुजरात में ये किस तरह से हो रहे हैं। आरके के अलावा वहां विकास कार्य से जुड़े दो लोग खंडेलवाल और रश्मिन संघवी भी साथ थे। मुंबई में लगातार बारिश चल रही थी। बरसात के दिनों में मुंबई के आसपास का इलाका, जिसे यहां के लोग बड़े उत्साह से कहते हैं – ‘लश ग्रीन’ हो जाता है...
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