सरकार हमेशा बड़े बांधों, उनसे बिजली बनाकर अमीरों को साधन पहुंचाने का ही क्यों सोचा करती है? कभी ऐसी जगहों पर रह रहे लोगों को वहीं स्थापित करने, नगरों, महानगरों की बजाय ऐसी जगहों को विकसित करने, जिससे कि यहां के लोग शहर की तरफ भागने की बजाय यहीं रहें, उल्टे वहां के लोग यहां आकर बसें- ऐसा कुछ क्यों नहीं सोचती? नहीं, वह अपनी बड़ी योजनाओं के नीचे उन लोगों को ही कुचल कर रख देगी, जो संख्या में भले कम हों, पर जो यहां के हैं, जिनका इस भूमि पर पहला अधिकार है।
इस बार मुबंई प्रवास थोड़ा लंबा था, तो अच्छा लगा जब मित्र आरके पालीवाल ने सुझाव दिया कि वापी के पास सह्याद्रि श्रेणियों के बीच एक आदिवासी इलाका देख आया जाए। वहां आदिवासियों के लिए कुछ अच्छा काम हो रहा है, कठिन परिस्थितियों में रहने वालों की तकलीफें दूर करने जैसे काम सीधे-सीधे समाज को लाभ पहुंचाते हैं, इसलिए पालीवाल को ऐसे काम साहित्य-लेखन से अधिक तुष्टि देने वाले लगते हैं। बस एक दिन जाना, एक रात रुकना, दूसरे दिन लौट आना। मैंने उरई में संजय सिंह के साथ ऐसे कामों को थोड़ा बहुत देखा था। उत्सुकता हुई कि देखें गुजरात में ये किस तरह से हो रहे हैं। आरके के अलावा वहां विकास कार्य से जुड़े दो लोग खंडेलवाल और रश्मिन संघवी भी साथ थे। मुंबई में लगातार बारिश चल रही थी। बरसात के दिनों में मुंबई के आसपास का इलाका, जिसे यहां के लोग बड़े उत्साह से कहते हैं – ‘लश ग्रीन’ हो जाता है... ऐसे में सह्याद्रि (भले ही बहुत ऊंचे पहाड़ न सही) जाना एक अतिरिक्त आकर्षण था।मुंबई से गुजरात वाले महामार्ग यानी हाई-वे पर ही वापी है। यहां से गुजरात लग जाता है। हमें धर्मपुरा ताल्लुका जाना था, जो दाएं मुड़ने पर मिलता है। धर्मपुरा गुजरात का गरीब इलाका है। धर्मपुरा बस्ती के आगे ही गांव है जो पहाड़ियों और जंगलों के बीच फैले हुए हैं, इसलिए दुर्गम। लगभग सौ गांवों में यहां कोई एक लाख आदिवासी रहते हैं। पिपरोल में सरकारी स्कूल है, जहां पास के गांवों से लड़के-लड़कियां पढ़ने आते हैं। पास ही बिलपुडी है, जहां लड़कियों का एक छात्रावास खोला गया है। हमारा पहला पड़ाव वही था। छात्रावास बीकू भाई और कोकिला बेन (पति-पत्नी) की देखरेख में चलता है। कोकिला बेन स्कूल की प्रधानाचार्य भी रही हैं, अब अवकाश प्राप्त। बीकू भाई उत्साही समाजसेवी हैं। छात्रावास के लिए एक आदिवासी भाई ने अपनी जमीन से एक टुकड़ा काटकर दे दिया। बदले में बीकू भाई और कोकिला बेन ने उसकी शेष जमीन को विकसित करने, पेड़ लगाने आदि का संकल्प लिया है। परिसर में घुसते ही, नए लगाए जा रहे पेड़ दिखने लगे।
बीकू भाई और कोकिला बेन का निवास कोने में था, छात्रावास सामने-एक बड़ा हाल छात्राओं के रहने के लिए, एक हाल भोजन के लिए, एक कंप्यूटर आदि सीखने या अन्य गतिविधियों के लिए। कोकिला बेन अपने नाम के अनुरूप बहुत नहीं बोलती थीं, वह कमी बीकू भाई पूरी कर रहे थे। उनका घर साफ-सुथरा, सादगी से भरा था। बाहर अलग से एक गोल-गोल कच्चा चबूतरा, ऊपर फूंसों का छप्पर। यह बैठकी थी। छात्रावास के तीनों हाल हमने भीतर से देखे। हर लड़की के लिए एक छोटा-सा रैक, जिसमें वह किताबें, कापियां और दीगर सामान रखती है। उसी के पास उसका छोटा सा बिस्तर लिपटा रखा रहता है, जिसे रात वहीं जमीन पर बिछाकर वह सो जाती है। बीकू भाई ने बताया कि इन लड़कियों के लिए पक्की जमीन में सोना और दोनों समय खाना-यह भी विलासिता है। उनसे कुछ पैसा नहीं लिया जाता। छात्रावास का खर्च वेदिच्छी प्रदेश सेवा समिति उठाती है। लड़के तो आसपास के गांवों में पैदल चलकर पिपरोल के स्कूल पहुंच जाते थे, लड़कियों के लिए यह मुश्किल था, इसलिए यह छात्रावास खोला गया। एक ऐसी लड़की भी छात्रावास में शरण पा सकी जिसका विवाह उसकी इच्छा के खिलाफ हुआ, टूट गया और वह लड़की करीब-करीब अनाथ हो गई थी। यहां रहकर वह पढ़ सकेगी और आगे जीवन संघर्ष के लिए तैयार हो सकेगी।
बूंदा-बांदी जारी थी। छात्रावास के नीचे हरी छाटी में बादल तैर रहे थे। यह जमीन उस आदिवासी भाई की थी जिसने छात्रावास के लिए जमीन दी। बीकू भाई ने उससे हमें मिलाया। वह प्रसन्न था कि उसकी जमीन के एक हिस्से का सदुपयोग हो रहा है और बाकी को भी विकसित करने में भी मदद मिल रही है। फूस वाली बैठकी में चाय पीकर हम आगे बढ़े आगे पिडवाल में सर्वोदय ट्रस्ट द्वारा स्थापित स्कूल में रुके। स्कूल के प्रधान गणेश में हमें सारा परिसर दिखाया। उनकी मिठास चेहरे से छलक-छलक पड़ती, बोलते तो सामने वाले को भिगो जाती। वे परिसर में अपने परिवार के साथ ही रहते हैं, इसलिए दत्तचित्त होकर काम करते हैं। स्कूल में 250 विद्यार्थी हैं। लड़के-लड़कियों के लिए अलग छात्रावास हैं, गोबर गैस प्लांट है, आठ-दस जर्सी गाएं हैं, जिनसे बच्चों को दूध मिल जाता है, एक चरखा कातने-खादी बनाने का केंद्र भी है। आस-पास के गांवों से इतनी संख्या में आते बच्चे सचमुच हैरत की बात थी, जबकि पास में एक सरकारी स्कूल और भी था। बताया गया कि इनके मां-बाप पर अपनी रोजी-रोटी कमाने का दबाव इतना अधिक होता है कि वे बच्चों को यहां पहुंचाकर बहुत हल्का महसूस करते हैं। छुट्टियों में इन्हें घर भेजने के लिए इनके मां-बाप से संपर्क करने, उन्हें यहां बुलाने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है। यहां भी छात्रावास या स्कूल..दोनों जगहों पर जमीन पर ही बैठना, सोना-बिछाना था। कक्षाओं में बच्चों को बैठने के लिए टाट भी नहीं थे...वे क्यों नहीं सुलभ किए जा सकते?
पास का सरकारी स्कूल भी बच्चों से भरा हुआ था। वहां मांचू से मुलाकात हुई। सारे बाल सफेद। स्कूल के ही एक बड़े से कमरे में उनका आफिस और रिहाइश। मेज और कुछ कुर्सियां...बैठ जाओ तो घर भीतर तक दिखता है- पास में ही सोने के लिए पलंग, पीछे रसोई जैसा। सब कुछ सादा, थोड़ा मैला भी। मांचू यहां 1948 से हैं। उनका लगभग पूरा जीवन इसी स्कूल में बीता है। वे जब यहां आए थे तब यहां एक ही तालाब और एक ही स्कूल था। यहीं से उन्होंने अवकाश प्राप्त किया और चूंकि मन यही लगता है इसलिए स्वेच्छा से अपनी सेवाएं अर्पित किए हुए हैं। वे बताने लगे कि पहले यहां पानी की बहुत दिक्कत होती थी, अब होती है सिर्फ गर्मियों में। पहले स्कूल में बच्चे बहुत कम होते थे..अब खूब हैं, बावजूद इसके कि पास में गणेशजी वाला स्कूल है। स्कूल के पास ही सर्वोदय ट्रस्ट के मुखिया कांति भाई का निवास है। उनसे मुलाकात नहीं हो सकी, क्योंकि वे बाहर गए हुए थे। मैंने देखा कि हमारे साथी संतोष संडेलवाल और रश्मिन संघवी जी अपने आपको सर्वोदय या सरकार द्वारा की जा रही गतिविधियों के प्रतिस्पर्धी नहीं लगते। वे इन संस्थाओं के पूरक होकर काम कर रहे थे।
सरकार की तरफ से इतना तो हुआ कि काफी गांव-जो अधिकतर चार-पांच घरों वाले ही होते हैं-वे सड़कों से जुड़ गए। सब जगह बिजली पहुंच गई, एकाध स्कूल खुल गए। यही बड़ी बात थी। संघवी जी ने देखा कि यहां के लोग गर्मियों में पानी और काम के अभाव में शहरों की तरफ पलायन कर जाते हैं, जहां उनकी दुर्दशा होती है। वे इस पलायन को रोकना चाहते हैं। इसे प्रकृति की विडंबना कहा जाए कि यहां बरसात खूब होती है....फिर भी गर्मियों में पानी की तकलीफ..तो पानी को रोकना, बह जाती मिट्टी को रोकना...यह लक्ष्य सामने रखा। इसके तहत जगह-जगह चेकडैम्स यहीं के लोगों से बनवाना, उन्हें मजदूरी...इस बहाने काम यहीं पर देना और जहां मिट्टी की पर्त अच्छी जम गई वहां धान-रोपण कराकर यहां के बाशिंदों को खेती की तरफ मोड़ना... इस तरह स्वावलंबी बनाना.. ऐसी चीजें आती हैं। संघवी जी मुंबई में दान देने वालों को दूंढते हैं। वे उनके और यहां के कार्यकर्ताओं के बीच सेतु का काम करते हैं। यहां के कार्यकलापों, उनके प्रगति की रिपोर्ट दानदाताओं को भेजते हैं, रुपयों की जरुरत जो होती है, वह दानदाताओं को बताते हैं और रुपए यहां पहुंचाकर काम पर निगरानी रखते हैं संघवी जगह-जगह गाड़ी रोककर हमें चेकडैम्स दिखा रहे थे, यह भी कि कैसे जमीन के टुकड़ों पर मोटे-मोटे पत्थरों की मेड़ बनाते हैं, ताकि छेदों से पानी तो बह जाए, पर मिट्टी रह जाए। इस तरह एक दो सालों में पहाड़ की पथरीली जमीन पर भी मिट्टी की खासी तह जम जाती है। ऐसी जगहों पर अब चावल की खेती होने लगी है।
हमें रात खड़की में गुजारनी थी, जहां सर्वोदय ट्रस्ट का ही एक स्कूल है। वहां की प्रभारी सुजाता थीं। हमें रास्ते में ही मिल गईं। खड़की के रास्ते हम उस पॉइंट पर खड़े हुए जहां बहुत नीचे खाई में ‘यू’ की शक्ल में एक नदी की गेरुए रंग की खासी मोटी और चौड़ी धार बह रही थी। बीच में हमारी बराबरी तक उठी एक पहाड़ी का द्वीप...गेरुए के बीच हरे रंग का गुच्छा... खूबसूरत। जहां खड़े थे वहां से अगर कोई गिरे तो टुकड़े-टुकड़े हो जाए। मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया स्यूसाइड पॉइंट। मैंने सुजाता से मीठी शिकायत भी की कि अभी मेरा मरने का कोई इरादा नहीं है, फिर वे यहां क्यों लाईं? उसी वक्त भीतर यह भी टकटका रहा था कि खूबसूरती के इर्दगिर्द वहीं खत्म हो जाने का ख्याल क्यों मंडराने लगता है, शायद इसलिए लगा करता है कि ऐसी खूबसूरती क्या फिर देखने को मिलेगी? ऊपर से तीन तरफ गेरुआ बहाव जो तीन नदियों जैसा दिखता था, वह दरअसल एक ही नदी का था। यह नदी नार थी...बीच की उस पहाड़ी का चक्कर लगाकर आगे निकलती। सुजाता ने बताया कि मुंबई के जिस रास्ते हम आए थे, वहां एक पुल है जिसके थोड़ा पहले ही यह नदी-नार, पार नदी से मिलती है। पुल के नीचे से दोनों का पानी जाकर समुद्र में मिल जाता है।
इसी को देखकर योजनाकारों के दिमाग में यहां बड़ा बांध बनाने का ख्याल कौंधा होगा-पानी के लिए प्राकृतिक छेंक और आगार। अफसोस कि उन्हें यह तो कौंधता है कि यह पानी व्यर्थ समुद्र में न जाएं... पर यह नहीं कौंधता कि इसे इसी क्षेत्र के लिए कैसे रोककर रखा जाए या उसकी ही तरफ कैसे मोड़ा जाए। वह काम संघवी एंड कंपनी जगह-जगह चैकडैम्स बनाकर कर रहे थे। हम उस पहाड़ी पर भी गए जो नार नदी के बीच द्वीप-सी खड़ी थी। एक रपटे के रास्ते वह भी अन्य श्रेणियों से जुड़ी थी। यहां भी चैकडैम्स और मिट्टी स्खलन के रोकने का काम चल रहा था।
सुजाता एमएम-सी पास हैं... शहर में कहीं भी नौकरी पा सकती हैं, नगरीय सुख-सुविधाओं में रह सकती हैं..लेकिन उन्होंने अपना जीवन इस क्षेत्र को समर्पित कर रखा है। वे खड़की में चल रही पाठशाला, उसका परिसर और क्षेत्र की अन्य विकास गतिविधियों की देखरेख करती हैं, सर्वोदय परिवार की ट्रस्टी हैं। एक जगह उन्होंने एक आदिवासी से मिलवाया, जिसने ढलान के एक छोटे-से भूखंड पर मिट्टी रोक-रोककर वहां धान की रोपाई की है। फिर वे ग्रामवन ले गईं..दो तीन घरों का एक छोटा- सा गांव जिसके आसपास पहाड़ी पर चालीस हजार पेड़ रोपे जाने का लक्ष्य चल रहा है। कुछ पेड़ लगाए जा चुके थे, कुछ के पौधे तैयार रखे थे। अंधेरा उतर आया था जब हम खड़की की रिहाइशी पाठशाला वाले परिसर में पहुंचे। साफ-सुथरा परिसर, सामने बहती नार नदी, उसके पार नासिक क्षेत्र। नदी के किनारे एक गोल-गोल बैठकी, जिसमें सीमेंट की बेंचें बनी थीं। हमने चाय वहीं बैठकर पी... सामने बहती नदी की कलकल आवाज, पानी का गेरुआ रंग। थोड़ा आगे चलकर नदी पर खूब लहरें उठ रही थीं.. वहां छोटा पर पक्का बांध था, जो फिलहाल डूबा हुआ था। यह छोटा बांध गर्मियों में यहां पानी को रोके रखता है...और इस पार से उस पार जाने के काम भी आता है।शाम को पाठशाला के लड़के-लड़कियों के साथ हमने वह छोटी-सी फिल्म देखी, जो इस क्षेत्र पर आरके पालीवाल ने ही बनाई है। मैं सोच रहा था कि गुजरात जो तरक्की कर रहा है, उसका श्रेय किसी मुख्यमंत्री, अधिकारियों या सुशासन को नहीं दिया जा सकता, यह सीधा गुजरातियों को जाता है- कैसे एक इस छोटे-से क्षेत्र के विकास के अलग-अलग आयामों के लिए अलग-अलग लोग लगे हुए हैं...और सभी समान प्रीतिभाव से, कहीं कोई ईर्ष्या नहीं। मैंने खंडेलवाल से पूछा कि चैकडैम्स बनवाने के लिए सरकार से आर्थिक सहायता क्यों नहीं ली जा सकती...तो वे बोले सरकार के यहां दस अड़ंगे लगते हैं, कितना समय बर्बाद होता है। वह कहने में भी उनके मन में कटुता नहीं उगी थी। सरकार को करने दें जो वह कर पाती है, जो वह नहीं करती... वह हम सब करें। मुंबई में बैठे रईस (जो शायद ही कभी यहां आए हों) वे अपने न्यासों से यहां संघवी या खंडेलवाल के माध्यम से दान भिजवाते हैं, ये लोग यहां काम करवाते हैं और सर्वोदय या फिर बीकू भाई, कोकिला बेन जैसे लोग भी हैं। सब एक उस चीज पर लगे हैं कि किसी तरह यहां का आदमी शहर न जाए, यहीं रहकर अपना विकास करे। गांधीजी के ‘हिंद स्वराज’ की परिकल्पना। क्यों नहीं सरकार की तरफ न ताकते हुए कहीं भी ऐसे क्षेत्र गोद लिए जा सकते? वहां वे सब चीजें उपलब्ध करा दी जाएं जिनके लिए वहां का आदमी शहर की तरफ भागने को मजबूर होता है। यह जरूर है कि गुजरातियों में गुजरात के ही किसी भूखंड के लिए ही यह उत्साह भाव जागता है, वे किसी और प्रांत के लिए यह सब करते कम दिखाई देंगे...पर वह है भी तो क्या खराबी? सभी प्रांत अपनी स्थानीयता का प्रेम अपनी-अपनी जगहों के लिए इसी तरह दिखाएं। यह जरुर है कि उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश जैसे प्रांतों में ऐसे रईस दुर्लभ होंगे, जो पैसे लगा सकें...
शाम की उस खुश-खुश बातचीत में उदासी की एक पर्त आ चिपकी जब सुजाता ने बताया कि सरकार यहां पर एक बड़े बांध की योजना पर विचार कर रही है, अगर वैसा हुआ तो जहां हम बैठे थे वह क्षेत्र भी डूब में आ जाएगा। मुझे कंपकंपी छूट गई कि क्या आश्रम जैसा यह सुंदर परिसर, सामने बहती नदी का नजारा, यह हरित संपदा... और सबसे ऊपर सुजाता, संघवी, मांचू, खंडेलवाल, कोकिला बेन जैसे लोगों का सारा श्रम सरकार डूबो देगी? सरकार हमेशा बड़े बांधों, उनसे बिजली बनाकर अमीरों को साधन पहुंचाने का ही क्यों सोचा करती है? कभी ऐसी जगहों पर रह रहे लोगों को वहीं स्थापित करने, नगरों, महानगरों की बजाय ऐसी जगहों को विकसित करने, जिससे कि यहां के लोग शहर की तरफ भागने की बजाय यहीं रहें, उल्टे वहां के लोग यहां आकर बसें- ऐसा कुछ क्यों नहीं सोचती? नहीं, वह अपनी बड़ी योजनाओं के नीचे उन लोगों को ही कुचल कर रख देगी, जो संख्या में भले कम हों, पर जो यहां के हैं, जिनका इस भूमि पर पहला अधिकार है।
सुबह-सुबह अकेले घूमने निकल गया। बारिश नहीं थी परिसर और नदी के किनारे तक पक्की सड़क थी, लेकिन अंधेरे में थोड़ा डर तो लग ही रहा था। जल्द ही उजाला हो गया... फिर मैं निशंक सड़क पर बढ़ता गया। तीनेक किलोमीटर के बाद दाईं तरफ दो-तीन और बाएं, थोड़ा नीचे चार-पांच घरों के संकुल दिखे। उधर ही सड़क के नीचे एक पक्का हौज-सा था जिसमें ऊपर तक बारिश का साफ पानी भरा था। पानी खींचने के लिए एक भीगी रस्सी और उससे बंधी बाल्टी कुएं के किनारे पड़ी थी। एक युवती कुएं की जगत पर बैठी अपनी कंसाड़ी मांज रही थी। मैं रुककर देखने लगा। उसने कंसाड़ी मांज कर उसे दूसरे बर्तन के पानी से धोया। उसके बाद वह चाहती तो कंसाड़ी को सीधे हौज में डुबोकर पानी भर लेती...पर उसने कुएं पर पड़ी, रस्सी से जुड़ी बाल्टी को ही कुएं के पानी में उतारा और उसके कंसाड़ी और अपने दूसरे बर्तनों को भरा... सफाई का इतना ख्याल! मैंने आंखों-आंखों से उसकी सफाई की सराहना की, वह हल्के से मुस्कराई और पानी से भरे बर्तनों को सिर पर, कंसाड़ी को कमर पर रख चल दी। जीवन की मिठास... जो अगर पानी जैसी जरुरत की चीजें इस तरह सुलभ हो जाएं तो इनके संघर्ष को कैसे आप्लवित कर देती हैं।
हम दूसरे रास्ते से लौट रहे थे। सबसे पहले हम नार नदी जहां ‘यू’ की शक्ल में लेटी हुई थी... ठीक वहीं, एकदम नीचे, उस हिस्से में पहुंचे जहां रपटा था। बहाव थोड़ी देर पहले ही रपटा के नीचे उतरा था, क्योंकि रपटा अब भी गीला था। हम रपटे पर चल इस पार से उस पार पहुंचे, हमारी गाड़ी भी निकल सकी। यह जगह पाताल-भूमि जैसी थी। हमारे ठीक ऊपर वह पहाड़ी थी जो कल ‘स्यूसाइड पॉइंट’ से हरियाली भरी द्वीप-सी उछली हुई थी। खंडेलवाल ने बताया कि गर्मियों में यहां थोड़-बहुत पानी रह जाता है तो आदिवासी औरतें आस-पास के गांवों से यहां उतरती हैं पानी भरने, घर ले जाने के लिए। मैं कल्पना करता रह गया...कमर और सिर पर, पानी भरे बड़े-बड़े बर्तन रखे महिलाएं कैसे चढ़ती होंगी यह सरपट चढ़ाई.... जहां ऊपर की ऊंचाई तक पहुंचने के लिए पहाड़ियों से गुजरती संकरी पगडंडियां ही थीं।
ऊपर पहुंचकर हम वहां खड़े हुए जहां से नीचे नार नदी का वह ‘यू’ शक्ल वाला बहाव काफी दूर तक देखा जा सकता था-नीचाई....वह भी पहाड़ी द्वीप के करीब-करीब चारों तरफ। इसी को देखकर योजनाकारों के दिमाग में यहां बड़ा बांध बनाने का ख्याल कौंधा होगा-पानी के लिए प्राकृतिक छेंक और आगार। अफसोस कि उन्हें यह तो कौंधता है कि यह पानी व्यर्थ समुद्र में न जाएं... पर यह नहीं कौंधता कि इसे इसी क्षेत्र के लिए कैसे रोककर रखा जाए या उसकी ही तरफ कैसे मोड़ा जाए। वह काम संघवी एंड कंपनी जगह-जगह चैकडैम्स बनाकर कर रहे थे। हम उस पहाड़ी पर भी गए जो नार नदी के बीच द्वीप-सी खड़ी थी। एक रपटे के रास्ते वह भी अन्य श्रेणियों से जुड़ी थी। यहां भी चैकडैम्स और मिट्टी स्खलन के रोकने का काम चल रहा था। संघवी बारिश के बीच भी गाड़ी रोककर आस-पास जाते रहे और चल रहे काम को देखते रहे, दिखाते रहे। कहीं-कहीं तो पहाड़ी के ऊपर से उतरती एक ही धार को तीन-तीन जगह रोकने का प्रयास था, और आखिर में मिट्टी को रोकने के लिए बड़े-बड़े पत्थरों से बनाई छेंकदारी थी। सब काम स्थानीय लोग ही कर रहे थे, क्योंकि इतना ऊपर मजदूर कहां से आएंगे।
संघवी का अपना काम जब खत्म हुआ तो वे हमें यहां की पर्वत श्रेणियों के सबसे ऊपरी स्थल-जिसे ‘विल्सन पॉइंट’ कहते हैं, वहां ले आए। यह पर्यटक स्थल है, पास में एक रेस्तरां भी खोला गया है, सरकारी पर्यटन विभाग द्वारा, पर तब न पर्यटक थे और न ही रेस्तरां खुला था... जबकि दिन के एक बज रहे थे। धुंध और बूंदा-बांदी थी। हम जल्दी ही नीचे उतर गए। बाघवल का स्कूल। नाम शायद इसलिए कि यहां कभी बाघ का काफी आवन-जावन था। गांव के साथ एक सज्जन सीताराम का भी नाम काफी मशहूर है...कि वे बाघ से डरे नहीं। उस किस्से के नीचे का यथार्थ गांव पहुंचकर खुला। हुआ यह था कि एक बार यहां भीषण बारिश हुई, उससे बचने के लिए भाई सीताराम पास की पहाड़ी की एक गुफा में पहुंच गए। गुफा में बाघ भी बारिश से अपना बचाव कर रहा था। बाघ की उपस्थिति से अनजान भाई सीताराम पूरी रात वहीं रहे, सुबह के उजाले में देखा तो भीतर बाघ था...भागे। रात भर इस सह-अस्तित्व का श्रेय बाघ को अधिक जाता है. वह नरभक्षी नहीं था, या उसका पेट भरा होगा। श्रेय सीताराम को भी है जिससे बाघ को कोई खतरा महसूस नहीं हुआ।
भाई सीताराम से मिलने की हमारी इच्छा स्वाभाविक रूप से उठी। वे आए तो सचमुच ऐसी काया, ऐसा चेहरा जिससे चींटी को भी डर न महसूस हो, बाघ की तो दूर की बात। भिखारी से थोड़ा ऊपर एक निरीह सा व्यक्ति, जो संसार में हर किसी के होने से खुश था...अपने हाल से भी कोई शिकायत नहीं। बाघ ने यह भाव सीताराम के चेहरे पर देख लिया होगा। विल्सन पॉइंट और आस-पास की दूसरी पहाड़ियों से कई झरने यहां एक साथ मिलकर एक प्रपात बनाते हैं... जो स्कूल से कुछ दूरी पर नीचे गिरता है। इसे देखने पिकनिकिया लोग आस-पास से आते हैं। हम भी उसे देखने गए...दूर से प्रपात के पास ही एक गुफा जैसी भी दिखी... एक बड़ी चट्टान की छाया के भीतर एक खोह। यही सीताराम और बाघ की सम्मिलित शरणस्थली थी। बताया गया कि मौजूदा मुख्यमंत्री इस क्षेत्र को टूरिस्ट-स्पॉट के रूप में विकसित करने की सोच रहे हैं...और क्या। हाइस्ट पॉइंट, फाल्स हो गए...बाद में कोई ‘सनसेट पॉइंट’ ढूंढ लिया जाएगा।
सरकारें पर्यटन और बड़े बांध बनाकर बिजली उत्पादन करने को ही विकास कार्य क्यों मानती हैं? कोई अच्छा वनक्षेत्र दिखा नहीं कि, विकसित करो उसे पर्यटन के लिए! भले ही वह क्षेत्र वन प्राणियों के लिए अहम हो। जो क्षेत्र पहले से वन-प्राणियों के लिए हैं-टाइगर-रिजर्व जैसे-वहां भी ‘इको-टूरिज्म’ के नाम पर घुसा दो, आदमी खड़ा करो आमदनी का जरिया। वन प्राणियों का भी कहीं कुछ हम बनता है कि नहीं? लौटते समय मेरे सामने झूल रही थी हौज से पानी निकालती वह युवती, उसके चेहरे पर उतरी मिठास...अपने स्थान से जुड़े होने की मिठास। यह स्थान जब डूब में आ जाएगा तो उसे यहां से उखाड़ कर विस्थापन के नाम पर कहीं दूर फेंक दिया जाएगा, वह और उसका परिवार दफ्तरों के चक्कर लगाते रहेंगे, वह आजीवन किसी स्थान को अपना नहीं कह पाएगी...
वन प्राणियों और उस युवती जैसों की आवाज सुनो...वे बोल नहीं पाते तो क्या!
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