भारतेंदु हरिश्चन्द्र

भारतेंदु हरिश्चन्द्र
जल-विहार
Posted on 04 Jul, 2013 03:34 PM
नाव चढ़ि दोऊ इत उत डोलैं।
छिरकत कर सों जल जंत्रित करि गावत-हँसत कलौलैं।
करनधार ललिता अति सुंदर सखि सब खेवत नावैं।
नाव-हलनि मैं पिया-बाहु मैं प्यारी डरि लपटावैं
जेहि दिसि करि परिहास झुकावहिं
सबही मिलि जल-यानै।
तेही दिसि जुगुल सिमिट झुकि
परहिं सो छबि कौन बखाने।
ललिता कहत दाँ अब मेरी तू मों हाथन प्यारी।
मान करन की सौंह खाई तौ हम पहुंचावैं पारी।
गंगा-छवि
Posted on 04 Jul, 2013 03:29 PM
नव उज्जल जलधार हार हीरक सी सोहति।
बिच बिच छहरति बूंद मध्य मुक्ता मनि पोहति।
लोल लहर लहि पवन एक पै इक इमि आवत।
जिमि नर-गन मन विविध मनोरथ करत मिटावत।
सुभग स्वर्ग सोपान सरिस सब के मन भावत।
दरसन मज्जन पान त्रिविध भय दूर मिटावत।
श्रीहरि-पद-नख-चंद्रकांत-मनि-द्रवित सुधारस।
ब्रह्म कमंडल मंडन भव खंडन सुर सरबस।
शिव-सिर-मालति-माल भगीरथ नृपति-पुण्य-फल।
यमुना-छवि
Posted on 04 Jul, 2013 03:13 PM
तरनि-तनुजा-तट तमाल तरुवर बहु छाए।
झुके कूल सौं जल-परसन-हित मनहु सुहाए।।
किधौं मुकुर में लखत उझकि सब निज-निज शोभा।
कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा।।
मनु आतप-वारन तीर कौ, सिमिट सबैं छाए रहत।
कै हरि-सेवा-हित नै रहै निरखि नैन नित सुख लहत।।

कहुँ तीर पर अमल कमल सोभित बहु भाँतिन।
कहुँ सैवालिन मध्य कुमुदिनी लगि रहि पाँतिन।।
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