नदी बाँध विरोधियों के लिये अच्छी खबर है कि देश की सबसे बड़ी अदालत ने दिल्ली सरकार को चेताया है कि वह बाँधों के निर्माण के लिये तब तक दबाव न डाले, जब तक कि वह दिल्ली की जल-जरूरत को पूरा करने के लिये अपने सभी स्थानीय विकल्पों का उपयोग नहीं कर लेती। जाहिर है कि इन विकल्पों में दिल्ली के सिर पर बरसने वाला वर्षाजल संचयन, प्रमुख है। आदेश में यह भी कहा गया है कि दिल्ली अपने जल प्रबन्धन को सक्षम बनाए तथा जलापूर्ति तंत्र को बेहतर करे।
नदी बाँध विरोधियों के लिये बुरी खबर है कि देश की इसी सबसे बड़ी अदालत ने अलकनंदा-भागीरथी नदी बेसिन की पूर्व चिन्हित 24 परियोजनाओं को छोड़कर, उत्तराखण्ड राज्य की शेष पनबिजली परियोजनाओं को मंजूरी देने के लिये, पर्यावरण मंत्रालय को छूट दे दी है।
ग़ौरतलब है कि वर्ष 2013 में हुए उत्तराखण्ड विनाश के लिये जिम्मेदार ठहराते हुए उक्त उल्लिखित 24 परियोजनाओं की पर्यावरण व अन्य मंजूरियों को अदालत में चुनौती दी गई है। इन 24 पनबिजली परियोजनाओं के बारे में न्यायालय ने अपने एक पूर्व आदेश में कहा था कि इनके प्रभाव का अध्ययन होने के बाद प्राप्त रिपोर्ट के आधार पर ही आगे के कदम तय करें।
तय कायदों के आधार पर पर्यावरण मंजूरी देना और पाना, निश्चित ही क्रमशः संवैधानिक कर्तव्य और हकदारी है। सर्वोच्च न्यायालय ने फिलहाल इसी आधार पर निर्णय लिया है। किन्तु बाँध प्रबन्धक, हर हाल में तय कायदों की पालना करें; इसका निर्णय अभी तक शासन, प्रशासन, प्रबन्धन और न्यायालय द्वारा किसी भी स्तर पर नहीं लिया जा सका है।
क्या जरूरी है कि हम इन्तजार करें कि हिमालय के बाकी नदी बेसिन में भी 2013 की उत्तराखण्ड आपदा दोहराई जाये? क्या जरूरी है कि हम तब उन बेसिन की बाँध परियोजनाओं के प्रभाव के आकलन का आदेश दें? क्या जरूरी है कि महाराष्ट्र की तरह हिमालयी बाँधों में भी घोटाला सामने आया, तब हम चेतें? हम हर काम दुर्घटना घट जाने के बाद ही क्यों करते हैं?
जलाशयों में जल भण्डारण की क्षमता गत् वर्ष के 78 प्रतिशत की तुलना में घटकर, 59 प्रतिशत रह जाने से हमें समझ में क्यों नहीं आता कि उम्र बढ़ने के साथ बाँध परियोजनाएँ अव्यावहारिक हो जाने वाली हैं।
गौर कीजिए कि अक्टूबर, 2014 की तुलना में 15 अक्टूबर, 2015 की यह तुलना, देश के मुख्य 91 जलाशयों की जलभण्डारण स्थिति पर आधारित है। इधर, माटू संगठन ने अपनी ताजा जाँच में पाया है कि उत्तराखण्ड में विश्व बैंक और एनटीपीसी की पनबिजली परियोजनाएँ पर्यावरणीय नियमों की पालना नहीं कर रहे हैं; उधर, वाडिया इंस्टीट्यूट ने एक अध्ययन में चीख-चीख कर कह रहा है कि कई बारहमासी हिमालयी नदियाँ, छोटे नालों में तब्दील हो चुकी हैं।
कई तो बारिश समाप्त होने के बाद हर साल सूख ही जाती हैं। यह अध्ययन, गत् 30 वर्ष की निगरानी पर आधारित है। हालांकि वैज्ञानिक, इसमें जलवायु परिवर्तन की ही अधिक भूमिका मानते हैं। कारण के रूप में पेड़ों की गिरती संख्या, कम होती हरियाली, भूस्खलन और पनबिजली परियोजनाओं को प्रमुख माना गया है।
इन परियोजनाओं के कारण पहाड़ों में दरार की घटनाएँ और सम्भावनाएँ बढ़ी हैं। ऐसा लगता है कि न हमें हिमालय की परवाह है, न नदियों की और न इनके बहाने अपनी।
अदालत रोक का आदेश देती है, तो नुकसान को जानते हुए भी नदियों में मूर्ति विसर्जन की जिद्द करते हैं। वाराणसी प्रशासन ने दुर्गा मूर्ति विसर्जन के लिये तीन ‘गंगा सरोवर’ बनाकर तैयार कर दिये हैं; फिर भी प्रशासन अपनी जगह, आदेश अपनी जगह और समाज अपनी जिद्द अपनी जगह। काश! वाराणसी का समाज, मूर्ति विसर्जन की जगह, वाराणसी में गंगा से मिलने वाले कचरे-नालों को लेकर कभी ऐसी जिद्द दिखाए।
अच्छा है कि बंगाल ने डॉल्फिन को बचाने की जिद्द में देश का पहला ‘डॉल्फिन कम्युनिटी रिजर्व’ बनाने की पहल शुरू कर दी है। ज्यादा अच्छा तब होगा, जब डॉल्फिन के लिये संकट का सबब बने कारणों को खत्म किया जाएगा। अच्छा है कि केन्द्र सरकार ने गंगा में जहरीले बहिस्रावों के कारण प्रदूषण को लेकर बिजनौर और अमरोहा स्थानीय निकायों को नोटिस जारी कर दिये हैं।
देश की सबसे बड़ी अदालत ने अलकनंदा-भागीरथी नदी बेसिन की पूर्व चिन्हित 24 परियोजनाओं को छोड़कर उत्तराखण्ड राज्य की शेष पनबिजली परियोजनाओं को मंजूरी देने के लिये, पर्यावरण मंत्रालय को छूट दे दी है। वर्ष 2013 में हुए उत्तराखण्ड विनाश के लिये जिम्मेदार ठहराते हुए उक्त उल्लिखित 24 परियोजनाओं की पर्यावरण व अन्य मंजूरियों को अदालत में चुनौती दी गई है। इन 24 पनबिजली परियोजनाओं के बारे में न्यायालय ने अपने एक पूर्व आदेश में कहा था कि इनके प्रभाव का अध्ययन होने के बाद प्राप्त रिपोर्ट के आधार पर ही आगे के कदम तय करें।ग़ौरतलब है कि बिजनौर और अमरोहा, दोनों ही ‘नमामि गंगे’ परियोजना के हिस्सा हैं। उत्तर प्रदेश राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भी बिजनौर व अमरोहा की 26 पंचायतों को नोटिस भेजे हैं। ये नोटिस, केन्द्र सरकार के निगरानी दल द्वारा साप्ताहिक आधार पर नदी जल के नमूने की रिपोर्ट के आधार पर भेजे गए हैं।
उधर खबर है कि यमुना को प्रदूषित करने के मामले में राष्ट्रीय हरित पंचाट ने आगरा की सात कॉलोनियों को वारंट जारी कर दिये हैं। नोटिस भेजने का सिलसिला पुराना है। ज्यादातर नोटिस, भ्रष्टाचार का सबब बनकर रह जाते हैं। ज्यादा अच्छा तब होगा, जब ये नोटिस कुछ सकारात्मक नतीजा लाएँगे।
दिलचस्प है कि अपना प्रदूषण सम्भालने के बजाय, आगरावासी, नदी में प्रवाह बढ़ाने की माँग कर रहे हैं। यदि इस माँग की पूर्ति, बैराज बनाकर की गई, तो माँग कल को स्वयंमेव परेशानी का सबब बन जाएगी। अच्छा होता कि आगरावासी पहले अपने प्रदूषण की चिन्ता करते, अपने सिर पर बरसने वाले पानी का संचयन कर यमुना का प्रवाह बढ़ाते और फिर कमी पड़ने पर शासन से कहते कि यमुना को और प्रवाह दो।
दिल्ली सरकार, यमुना नदी व बाढ़ क्षेत्र के विकास को लेकर कोई बिल लाने वाली है। इसका मकसद, बाढ़ क्षेत्र की सुरक्षा, संरक्षण, स्वच्छता, पुनर्जीवन और यमुना नदी का विकास के लिये विशेष प्रावधान करना बताया जा रहा है। भला नदी का भी कोई विकास कर सकता है!
सुना है कि प्रावधानों को लागू करने के लिये ’यमुना विकास निगम लिमिटेड’ नाम की एक कम्पनी भी बनेगी। विविध एजेंसियों की बजाय, यमुना के सारे काम यह एक कम्पनी ही करेगी। खैर, अच्छा होता कि दिल्ली सरकार, बिल लाने से पहले यमुना के लिये मौजूदा संकट का सबब बने अतिक्रमण को लेकर कोई ठोस कार्रवाई करती और इसके लिये किसी को अदालत का दरवाज़ा खटखटाने की जरूरत न पड़ती।
ग़ौरतलब है कि यमुना बाढ़ क्षेत्र पर बढ़ते अतिक्रमण और जारी निर्माण को लेकर ‘यमुना जिये अभियान’ ने राष्ट्रीय हरित पंचाट में पहुँच गया है। उसने ऐसे निर्माण पर रोक व जुर्माने की माँग कर दी है। अवैध कब्जे व निर्माण के कारण, ओखला बैराज से जैतपुर गाँव के बीच के करीब चार किलोमीटर के हिस्से में यमुना सिकुड़ गई है।
यमुना का यह दक्षिणी क्षेत्र ही वह क्षेत्र है, जो दिल्ली की पेयजल माँग के 70 प्रतिशत हिस्से की पूर्ति करता है। इस दृष्टि से बाढ़ क्षेत्र का अतिक्रमण और खतरनाक है, किन्तु केन्द्र, राज्य और सम्बन्धित एजेंसियों को लगता है कि जैसे इसकी कोई परवाह ही नहीं है।
निजामुद्दीन पुल के पास यमुना किनारे दिल्ली परिवहन निगम के बस डिपो का मामला लम्बा खींचा जा ही रहा है। यमुना जिये अभियान ने पत्र लिखकर दिल्ली के उपराज्यपाल, मुख्यमंत्री और दिल्ली विकास प्राधिकरण का ध्यान भी इस ओर आकर्षित किया है।
मसला बाँध का हो, प्रदूषण का या जलप्रवाह का, सारी विवाद की जड़, संवैधानिक स्तर पर सम्बन्धित नीतिगत सिद्धान्तों तथा उनकी पालना की सख्त व प्रेरक व्यवस्था का न होना है। शासन, प्रशासन और समाज की नीयत और संकल्प तो अन्य बिन्दु हैं ही। क्या उक्त स्थितियों में ‘नमामि गंगे’ का सपना पूरा हो सकता है? क्या उक्त स्थितियों के चलते कोई भी एक सरकार, गंगा, यमुना या किसी भी एक प्रमुख नदी को उसका प्रवाह व गुणवत्ता वापस लौटा सकती है?यमुना सिग्नेचर ब्रिज का काम करीब 85 प्रतिशत पूरा कर लिया गया है, लेकिन दिल्ली सरकार ने इसके लिये अपेक्षित पर्यावरण मंजूरी अभी तक नहीं ली है। इसके लिये हरित पंचाट द्वारा बताई समय सीमा भी बीत चुकी है।
बुनियादी प्रश्न यह है कि हर बार गुहार लगाने की जरूरत क्यों हैं? जब कभी मसला अटकता है, तो एजेंसियाँ, एक-दूसरे पर और केन्द्र व राज्य सरकारें भी एक-दूसरे की कमी बताकर जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेती हैं। इनमें आपस में न कोई तालमेल है और न तालमेल की मंशा। इस खेल से नाराज राष्ट्रीय हरित पंचाट ने 19 अक्तूबर को उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड तथा केन्द्र सरकार के सम्बन्धित अधिकारियों तथा उद्योग प्रतिनिधि की बैठक भी बुलाई थी।
आखिरकार हमारी सरकारें, नदी समाज के साथ एक बार बैठकर क्यों नहीं सारे विवाद के नीतिगत पहलुओं का निपटारा कर लेती? क्यों नहीं सभी की जिम्मेदारियाँ और पालना सुनिश्चित करने की व्यवस्था तय हो जाती है? सुना है कि दिल्ली जलनीति बनाने की प्रक्रिया चल रही है। क्या इसमें दिल्ली नदी नीति और व्यवहार सुनिश्चितता पर अलग से कुछ तय किया जा रहा है?
कहना न होगा कि मसला चाहे बाँध का हो, प्रदूषण का या जलप्रवाह का, सारी विवाद की जड़, संवैधानिक स्तर पर सम्बन्धित नीतिगत सिद्धान्तों तथा उनकी पालना की सख्त व प्रेरक व्यवस्था का न होना है। शासन, प्रशासन और समाज की नीयत और संकल्प तो अन्य बिन्दु हैं ही। क्या उक्त स्थितियों में ‘नमामि गंगे’ का सपना पूरा हो सकता है? क्या उक्त स्थितियों के चलते कोई भी एक सरकार, गंगा, यमुना या किसी भी एक प्रमुख नदी को उसका प्रवाह व गुणवत्ता वापस लौटा सकती है?
मैं नहीं समझता कि नदी अनुकूल सिद्धान्त.. नीति, नीयत और आचार-व्यवहार, और अच्छी नीयत सुनिश्चित किये बगैर यह सम्भव नहीं है। बगैर यह सुनिश्चित किये नदी प्रदूषण मुक्ति के कार्य, धन बहाने की भ्रष्ट युक्ति साबित होने वाले हैं। नदी निश्चिन्तता के बिन्दु कैसे सुनिश्चित हो, क्या हम कभी सोचेंगे?
पनबिजली के विरोधाभास
नदी बाँध विरोधियों के लिये बुरी खबर है कि देश की इसी सबसे बड़ी अदालत ने अलकनंदा-भागीरथी नदी बेसिन की पूर्व चिन्हित 24 परियोजनाओं को छोड़कर, उत्तराखण्ड राज्य की शेष पनबिजली परियोजनाओं को मंजूरी देने के लिये, पर्यावरण मंत्रालय को छूट दे दी है।
ग़ौरतलब है कि वर्ष 2013 में हुए उत्तराखण्ड विनाश के लिये जिम्मेदार ठहराते हुए उक्त उल्लिखित 24 परियोजनाओं की पर्यावरण व अन्य मंजूरियों को अदालत में चुनौती दी गई है। इन 24 पनबिजली परियोजनाओं के बारे में न्यायालय ने अपने एक पूर्व आदेश में कहा था कि इनके प्रभाव का अध्ययन होने के बाद प्राप्त रिपोर्ट के आधार पर ही आगे के कदम तय करें।
तय कायदों के आधार पर पर्यावरण मंजूरी देना और पाना, निश्चित ही क्रमशः संवैधानिक कर्तव्य और हकदारी है। सर्वोच्च न्यायालय ने फिलहाल इसी आधार पर निर्णय लिया है। किन्तु बाँध प्रबन्धक, हर हाल में तय कायदों की पालना करें; इसका निर्णय अभी तक शासन, प्रशासन, प्रबन्धन और न्यायालय द्वारा किसी भी स्तर पर नहीं लिया जा सका है।
क्या जरूरी है कि हम इन्तजार करें कि हिमालय के बाकी नदी बेसिन में भी 2013 की उत्तराखण्ड आपदा दोहराई जाये? क्या जरूरी है कि हम तब उन बेसिन की बाँध परियोजनाओं के प्रभाव के आकलन का आदेश दें? क्या जरूरी है कि महाराष्ट्र की तरह हिमालयी बाँधों में भी घोटाला सामने आया, तब हम चेतें? हम हर काम दुर्घटना घट जाने के बाद ही क्यों करते हैं?
जलाशयों में जल भण्डारण की क्षमता गत् वर्ष के 78 प्रतिशत की तुलना में घटकर, 59 प्रतिशत रह जाने से हमें समझ में क्यों नहीं आता कि उम्र बढ़ने के साथ बाँध परियोजनाएँ अव्यावहारिक हो जाने वाली हैं।
गौर कीजिए कि अक्टूबर, 2014 की तुलना में 15 अक्टूबर, 2015 की यह तुलना, देश के मुख्य 91 जलाशयों की जलभण्डारण स्थिति पर आधारित है। इधर, माटू संगठन ने अपनी ताजा जाँच में पाया है कि उत्तराखण्ड में विश्व बैंक और एनटीपीसी की पनबिजली परियोजनाएँ पर्यावरणीय नियमों की पालना नहीं कर रहे हैं; उधर, वाडिया इंस्टीट्यूट ने एक अध्ययन में चीख-चीख कर कह रहा है कि कई बारहमासी हिमालयी नदियाँ, छोटे नालों में तब्दील हो चुकी हैं।
कई तो बारिश समाप्त होने के बाद हर साल सूख ही जाती हैं। यह अध्ययन, गत् 30 वर्ष की निगरानी पर आधारित है। हालांकि वैज्ञानिक, इसमें जलवायु परिवर्तन की ही अधिक भूमिका मानते हैं। कारण के रूप में पेड़ों की गिरती संख्या, कम होती हरियाली, भूस्खलन और पनबिजली परियोजनाओं को प्रमुख माना गया है।
इन परियोजनाओं के कारण पहाड़ों में दरार की घटनाएँ और सम्भावनाएँ बढ़ी हैं। ऐसा लगता है कि न हमें हिमालय की परवाह है, न नदियों की और न इनके बहाने अपनी।
समाज का विरोधाभास
अदालत रोक का आदेश देती है, तो नुकसान को जानते हुए भी नदियों में मूर्ति विसर्जन की जिद्द करते हैं। वाराणसी प्रशासन ने दुर्गा मूर्ति विसर्जन के लिये तीन ‘गंगा सरोवर’ बनाकर तैयार कर दिये हैं; फिर भी प्रशासन अपनी जगह, आदेश अपनी जगह और समाज अपनी जिद्द अपनी जगह। काश! वाराणसी का समाज, मूर्ति विसर्जन की जगह, वाराणसी में गंगा से मिलने वाले कचरे-नालों को लेकर कभी ऐसी जिद्द दिखाए।
गंगा : दिखावटी न रह जाएँ पहल
अच्छा है कि बंगाल ने डॉल्फिन को बचाने की जिद्द में देश का पहला ‘डॉल्फिन कम्युनिटी रिजर्व’ बनाने की पहल शुरू कर दी है। ज्यादा अच्छा तब होगा, जब डॉल्फिन के लिये संकट का सबब बने कारणों को खत्म किया जाएगा। अच्छा है कि केन्द्र सरकार ने गंगा में जहरीले बहिस्रावों के कारण प्रदूषण को लेकर बिजनौर और अमरोहा स्थानीय निकायों को नोटिस जारी कर दिये हैं।
देश की सबसे बड़ी अदालत ने अलकनंदा-भागीरथी नदी बेसिन की पूर्व चिन्हित 24 परियोजनाओं को छोड़कर उत्तराखण्ड राज्य की शेष पनबिजली परियोजनाओं को मंजूरी देने के लिये, पर्यावरण मंत्रालय को छूट दे दी है। वर्ष 2013 में हुए उत्तराखण्ड विनाश के लिये जिम्मेदार ठहराते हुए उक्त उल्लिखित 24 परियोजनाओं की पर्यावरण व अन्य मंजूरियों को अदालत में चुनौती दी गई है। इन 24 पनबिजली परियोजनाओं के बारे में न्यायालय ने अपने एक पूर्व आदेश में कहा था कि इनके प्रभाव का अध्ययन होने के बाद प्राप्त रिपोर्ट के आधार पर ही आगे के कदम तय करें।ग़ौरतलब है कि बिजनौर और अमरोहा, दोनों ही ‘नमामि गंगे’ परियोजना के हिस्सा हैं। उत्तर प्रदेश राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भी बिजनौर व अमरोहा की 26 पंचायतों को नोटिस भेजे हैं। ये नोटिस, केन्द्र सरकार के निगरानी दल द्वारा साप्ताहिक आधार पर नदी जल के नमूने की रिपोर्ट के आधार पर भेजे गए हैं।
यमुना : कागजी न रह जाएँ चेतावनियाँ
उधर खबर है कि यमुना को प्रदूषित करने के मामले में राष्ट्रीय हरित पंचाट ने आगरा की सात कॉलोनियों को वारंट जारी कर दिये हैं। नोटिस भेजने का सिलसिला पुराना है। ज्यादातर नोटिस, भ्रष्टाचार का सबब बनकर रह जाते हैं। ज्यादा अच्छा तब होगा, जब ये नोटिस कुछ सकारात्मक नतीजा लाएँगे।
दिलचस्प है कि अपना प्रदूषण सम्भालने के बजाय, आगरावासी, नदी में प्रवाह बढ़ाने की माँग कर रहे हैं। यदि इस माँग की पूर्ति, बैराज बनाकर की गई, तो माँग कल को स्वयंमेव परेशानी का सबब बन जाएगी। अच्छा होता कि आगरावासी पहले अपने प्रदूषण की चिन्ता करते, अपने सिर पर बरसने वाले पानी का संचयन कर यमुना का प्रवाह बढ़ाते और फिर कमी पड़ने पर शासन से कहते कि यमुना को और प्रवाह दो।
दिल्ली सरकार, यमुना नदी व बाढ़ क्षेत्र के विकास को लेकर कोई बिल लाने वाली है। इसका मकसद, बाढ़ क्षेत्र की सुरक्षा, संरक्षण, स्वच्छता, पुनर्जीवन और यमुना नदी का विकास के लिये विशेष प्रावधान करना बताया जा रहा है। भला नदी का भी कोई विकास कर सकता है!
सुना है कि प्रावधानों को लागू करने के लिये ’यमुना विकास निगम लिमिटेड’ नाम की एक कम्पनी भी बनेगी। विविध एजेंसियों की बजाय, यमुना के सारे काम यह एक कम्पनी ही करेगी। खैर, अच्छा होता कि दिल्ली सरकार, बिल लाने से पहले यमुना के लिये मौजूदा संकट का सबब बने अतिक्रमण को लेकर कोई ठोस कार्रवाई करती और इसके लिये किसी को अदालत का दरवाज़ा खटखटाने की जरूरत न पड़ती।
अतिक्रमण पर कब चेतेगी सरकार
ग़ौरतलब है कि यमुना बाढ़ क्षेत्र पर बढ़ते अतिक्रमण और जारी निर्माण को लेकर ‘यमुना जिये अभियान’ ने राष्ट्रीय हरित पंचाट में पहुँच गया है। उसने ऐसे निर्माण पर रोक व जुर्माने की माँग कर दी है। अवैध कब्जे व निर्माण के कारण, ओखला बैराज से जैतपुर गाँव के बीच के करीब चार किलोमीटर के हिस्से में यमुना सिकुड़ गई है।
यमुना का यह दक्षिणी क्षेत्र ही वह क्षेत्र है, जो दिल्ली की पेयजल माँग के 70 प्रतिशत हिस्से की पूर्ति करता है। इस दृष्टि से बाढ़ क्षेत्र का अतिक्रमण और खतरनाक है, किन्तु केन्द्र, राज्य और सम्बन्धित एजेंसियों को लगता है कि जैसे इसकी कोई परवाह ही नहीं है।
निजामुद्दीन पुल के पास यमुना किनारे दिल्ली परिवहन निगम के बस डिपो का मामला लम्बा खींचा जा ही रहा है। यमुना जिये अभियान ने पत्र लिखकर दिल्ली के उपराज्यपाल, मुख्यमंत्री और दिल्ली विकास प्राधिकरण का ध्यान भी इस ओर आकर्षित किया है।
मसला बाँध का हो, प्रदूषण का या जलप्रवाह का, सारी विवाद की जड़, संवैधानिक स्तर पर सम्बन्धित नीतिगत सिद्धान्तों तथा उनकी पालना की सख्त व प्रेरक व्यवस्था का न होना है। शासन, प्रशासन और समाज की नीयत और संकल्प तो अन्य बिन्दु हैं ही। क्या उक्त स्थितियों में ‘नमामि गंगे’ का सपना पूरा हो सकता है? क्या उक्त स्थितियों के चलते कोई भी एक सरकार, गंगा, यमुना या किसी भी एक प्रमुख नदी को उसका प्रवाह व गुणवत्ता वापस लौटा सकती है?यमुना सिग्नेचर ब्रिज का काम करीब 85 प्रतिशत पूरा कर लिया गया है, लेकिन दिल्ली सरकार ने इसके लिये अपेक्षित पर्यावरण मंजूरी अभी तक नहीं ली है। इसके लिये हरित पंचाट द्वारा बताई समय सीमा भी बीत चुकी है।
बुनियाद प्रश्न
बुनियादी प्रश्न यह है कि हर बार गुहार लगाने की जरूरत क्यों हैं? जब कभी मसला अटकता है, तो एजेंसियाँ, एक-दूसरे पर और केन्द्र व राज्य सरकारें भी एक-दूसरे की कमी बताकर जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेती हैं। इनमें आपस में न कोई तालमेल है और न तालमेल की मंशा। इस खेल से नाराज राष्ट्रीय हरित पंचाट ने 19 अक्तूबर को उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड तथा केन्द्र सरकार के सम्बन्धित अधिकारियों तथा उद्योग प्रतिनिधि की बैठक भी बुलाई थी।
आखिरकार हमारी सरकारें, नदी समाज के साथ एक बार बैठकर क्यों नहीं सारे विवाद के नीतिगत पहलुओं का निपटारा कर लेती? क्यों नहीं सभी की जिम्मेदारियाँ और पालना सुनिश्चित करने की व्यवस्था तय हो जाती है? सुना है कि दिल्ली जलनीति बनाने की प्रक्रिया चल रही है। क्या इसमें दिल्ली नदी नीति और व्यवहार सुनिश्चितता पर अलग से कुछ तय किया जा रहा है?
कहना न होगा कि मसला चाहे बाँध का हो, प्रदूषण का या जलप्रवाह का, सारी विवाद की जड़, संवैधानिक स्तर पर सम्बन्धित नीतिगत सिद्धान्तों तथा उनकी पालना की सख्त व प्रेरक व्यवस्था का न होना है। शासन, प्रशासन और समाज की नीयत और संकल्प तो अन्य बिन्दु हैं ही। क्या उक्त स्थितियों में ‘नमामि गंगे’ का सपना पूरा हो सकता है? क्या उक्त स्थितियों के चलते कोई भी एक सरकार, गंगा, यमुना या किसी भी एक प्रमुख नदी को उसका प्रवाह व गुणवत्ता वापस लौटा सकती है?
मैं नहीं समझता कि नदी अनुकूल सिद्धान्त.. नीति, नीयत और आचार-व्यवहार, और अच्छी नीयत सुनिश्चित किये बगैर यह सम्भव नहीं है। बगैर यह सुनिश्चित किये नदी प्रदूषण मुक्ति के कार्य, धन बहाने की भ्रष्ट युक्ति साबित होने वाले हैं। नदी निश्चिन्तता के बिन्दु कैसे सुनिश्चित हो, क्या हम कभी सोचेंगे?
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