आज के हालात में सच यही है कि सिर्फ पैसा लगा देने से योजनाएं नहीं चल सकती। योजना की सफलता के लिए धन से ज्यादा धुन की जरूरत है। लोकधुन की। लोकधुन के बगैर कोई नेता या अफसर योजना को सफल नहीं कर सकता। मानकर चलिए कि नेता-अफसर..... अच्छे-बुरे तो सभी जगह हैं। जो जैसा है, वह तो वैसा ही करेगा। भुगतना तो अंततः जनता को ही है। जनता को समझना होगा कि हर योजना अच्छी मंशा के साथ ही नियोजित की जाती है। स्व. राजीव गांधी जी की पुण्यतिथि हर बरस व्यापक स्तर पर मनाई जाती है। उनके सपनों को साकार करने की कसमें भी कम नहीं खाई जाती। लेकिन केन्द्र की योजनाओं का पूरा-पूरा लाभ अंतिम पंक्ति तक पहुंचाने का जो सपना राजीव गांधी जी ने देखा था, उसे पूरा करने की कोई गंभीर कोशिश आज तक नहीं हुई। हालांकि केन्द्र द्वारा भेजे एक सैकड़ा पैसे के नीचे तक पहुंचते-पहुंचते इकाई में तब्दील हो जाने संबंधी उनके बयान की चर्चा आज भी खूब होती है। किंतु समस्या जस की तस है। सरकारें भ्रष्टाचार में डूबी जरूर दिखाई दे रही हैं। राजीव जी ने इसका समाधान भी सुझाया था। उन्होंने 1984-85 में गंगा कार्ययोजना का शुभारंभ करते हुए वाराणसी में कहा था - ‘‘यह कार्ययोजना कोई पी.डब्ल्यू.डी. की कार्ययोजना नहीं है। गंगा जहां से आती है, गंगा जहां तक जाती है; यह उन लोगों की कार्ययोजना बननी चाहिए।’’ लेकिन गंगा कार्य योजना के कर्णधारों ने ऐसा नहीं होने दिया। गंगा कार्ययोजना जन-जन के जुड़ाव वाली योजना नहीं बन सकी। नतीजा? मैला साफ करने के नाम पर जारी हुआ सब पैसा जाने कहां चला गया। गंगा और मैली हुई।
योजना में हर स्तर पर जनसहभागिता सुनिश्चित करना सचमुच! एक अच्छा समाधान है। पता नहीं क्यों हर गांव, हर गली-मुहल्ले में फैले कांग्रेसियों ने कभी अपने उस सह्रदय नेता के उक्त बयानों को तवज्जो नहीं दी? इन्हें जमीन पर उतारने की कोशिश क्यों नहीं हुई? हालांकि उक्त दोनों ही बयानों पर यदि कोशिश हुई होती, तो परिणाम दूरगामी होते। दूरगामी परिणाम देने वाले ऐसे बयान लगभग हर राजनैतिक पार्टी की हस्तियों ने समय-समय पर दिए। लेकिन उनकी पालना करने को लेकर प्रतिबद्धता की कमी भी कमोबेश सभी पार्टियों में दिखाई दे रही है। दूरगामी परिणाम देने लायक ऐसा ही एक बयान 2010 में राजीव जी की पुण्यतिथि से तीन दिन पहले 18 मई को सोनिया गांधी जी ने अपने संसदीय क्षेत्र-रायबरेली में दिया था। योजनाओं का हश्र देखकर उन्होंने कहा था - ‘‘लोग खुद योजनाओं की निगरानी करें।’’ यह बयान मील का पत्थर साबित हो सकता था, बशर्ते सोनिया जी खुद इस पर गंभीर होती।
समझना होगा कि देश में एक सक्षम जननिगरानी तंत्र विकसित करने की आवश्यकता क्यों है? क्योंकि आज भी हमारी योजनाएं नेता-अफसर और ठेकेदारों के भरोसे चल रही है।..... और इस त्रिगुट की निगाह में, इनकी जेबों के आगे जनता का कोई मायने नहीं है। नेता फीता काटकर भूल जाते हैं और अफसर फाइल दबाकर। कुछ योजनाएं केन्द्र और राज्य के बीच फंसकर फेल हो जाती हैं। योजनाएं फेल होंगी ही और होती रहेंगी। जब तक योजनाएं जन-जन की योजनाएं नहीं बनेंगी, तब तक आतंकवाद और नक्सलवाद जैसे खतरों से भी लोहा नहीं लिया जा सकेगा। लेकिन सिर्फ कोसने से काम चलने वाला नहीं। यह रोना रोने के भी दिन नहीं है कि इस भ्रष्ट तंत्र में कुछ नहीं हो सकता। क्योंकि इस भ्रष्ट तंत्र में भी कई कोशिशें सफल हुई हैं। कई जगह आवाजें उठी भी हैं और सुनी भी गई हैं।
आज के हालात में सच यही है कि सिर्फ पैसा लगा देने से योजनाएं नहीं चल सकती। योजना की सफलता के लिए धन से ज्यादा धुन की जरूरत है। लोकधुन की। लोकधुन के बगैर कोई नेता या अफसर योजना को सफल नहीं कर सकता। मानकर चलिए कि नेता-अफसर..... अच्छे-बुरे तो सभी जगह हैं। जो जैसा है, वह तो वैसा ही करेगा। भुगतना तो अंततः जनता को ही है। जनता को समझना होगा कि हर योजना अच्छी मंशा के साथ ही नियोजित की जाती है। ये योजनाएं, परियोजनाएं, सड़क, जंगल, इमारत जो कुछ भी है..... उसकी कल्याण के लिए है। सिर्फ सरकारी का ठप्पा लगने से ये सभी गैर नहीं हो सकती। समझ में नहीं आता कि सरकारी का ठप्पा लगते ही कैसे कोई चीज आम जन के लिए पराई हो जाती है? क्यों सरकारी संपत्ति या योजनाओं के क्षय से हमें तकलीफ नहीं होती? अपने घर का कोना-कोना हम साफ करते हैं। लेकिन घर के ठीक बाहर की सड़क साफ करने में हमें शर्म आती है। क्यों ? अपने एक-एक पैसे को हम संभालकर खर्च रकते हैं। फिर हमारी ही कमाई को हमसे लेकर सरकार द्वारा खर्च पैसे की बर्बादी पर हम चुप कैसे रह जाते हैं?
हमारी इस चुप्पी का शायद एक सबसे बड़ा कारण हमारा निजीपन है। जरूरी है कि यह निजी पीछे हो। साझा....... सभी का शुभ आगे आए। सरकारें यह सुनिश्चित तो नहीं ही करेंगी। करेगी, तो सिर्फ नाम भर को। हमें ही हर स्तर पर जनसहभागिता सुनिश्चित करने की पहल करनी होगी। अपने गांव, अपने कस्बे, अपने निगम क्षेत्र, विधानसभा, लोकसभा में जननिगरानी कमेटी का गठन कर हम पहल कर सकते हैं।
निगरानी कमेटी की भूमिका पंच परमेश्वर सरीखी है। योजना को ठीक से जानना-पहचाना। उसके हर पहलू पर नजर रखना। लाभार्थियों को पहले से अवगत कराना। योजना में कमी है तो टोकना। उन्हें दूर करने के लिए मजबूर करना। योजना ठीक से लागू हो; इसमें अपनी भूमिका को तलाशकर उसका निर्वाह करना। योजना के दुश्मनों को दूर करना और कर्मनिष्ठ सहायकों को मदद देना..... सम्मानित करना। समय-समय पर योजना की हकीकत को उजागर करना। ये निगरानी कमेटी के काम हो सकते हैं। ये काम अत्यंत जिम्मेदारी, सावधानी, कौशल व सातत्य की मांग करते हैं। सरकारों को सहायक भूमिका में आगे आना चाहिए। जननिगरानी कमेटियों के गठन, प्रशिक्षण, कौशल विकास, संवैधानिक मान्यता व हकदारी की पक्की व्यवस्था करनी चाहिए। निगरानी कमेटियों की आवाज सरकार में सुनी जाएगी; यह भरोसा सरकार, स्वयंसेवी जगत, पत्रकार, अदालत सभी को मिलकर दिलाना चाहिए।
यदि जनता यह जवाबदारी निभा सकी, तो हकदारी स्वतः आ जाएगी। जननिगरानी तंत्र जैसे-जैसे विकसित होंगे; लोकतंत्र भी विकसित होगा। अभी तंत्र आगे है, लोक पीछे। तब लोक आगे होगा; तंत्र सहायक की भूमिका में। सत्ता-शासन जनता की सुनने को मजबूर होंगे। भ्रष्टाचार पर स्वतः लगाम लग जाएगी। जन सहभागिता स्वतः सुनिश्चित होने लगेगी। यह आदर्श स्थिति होगी। इसकी अभी हम ठीक से कल्पना भी नहीं कर सकते। हां! बीज बो सकते हैं। उसे खाद-पानी, निराई-गुड़ाई कर सकते हैं। बगैर चिंता किए कि क्या होगा.... शुरूआत तो करें। निश्चित जानिए कि नतीजा तो निकलेगा ही। कभी देखा सपना भी एक दिन सच हो ही जाएगा।
योजना में हर स्तर पर जनसहभागिता सुनिश्चित करना सचमुच! एक अच्छा समाधान है। पता नहीं क्यों हर गांव, हर गली-मुहल्ले में फैले कांग्रेसियों ने कभी अपने उस सह्रदय नेता के उक्त बयानों को तवज्जो नहीं दी? इन्हें जमीन पर उतारने की कोशिश क्यों नहीं हुई? हालांकि उक्त दोनों ही बयानों पर यदि कोशिश हुई होती, तो परिणाम दूरगामी होते। दूरगामी परिणाम देने वाले ऐसे बयान लगभग हर राजनैतिक पार्टी की हस्तियों ने समय-समय पर दिए। लेकिन उनकी पालना करने को लेकर प्रतिबद्धता की कमी भी कमोबेश सभी पार्टियों में दिखाई दे रही है। दूरगामी परिणाम देने लायक ऐसा ही एक बयान 2010 में राजीव जी की पुण्यतिथि से तीन दिन पहले 18 मई को सोनिया गांधी जी ने अपने संसदीय क्षेत्र-रायबरेली में दिया था। योजनाओं का हश्र देखकर उन्होंने कहा था - ‘‘लोग खुद योजनाओं की निगरानी करें।’’ यह बयान मील का पत्थर साबित हो सकता था, बशर्ते सोनिया जी खुद इस पर गंभीर होती।
समझना होगा कि देश में एक सक्षम जननिगरानी तंत्र विकसित करने की आवश्यकता क्यों है? क्योंकि आज भी हमारी योजनाएं नेता-अफसर और ठेकेदारों के भरोसे चल रही है।..... और इस त्रिगुट की निगाह में, इनकी जेबों के आगे जनता का कोई मायने नहीं है। नेता फीता काटकर भूल जाते हैं और अफसर फाइल दबाकर। कुछ योजनाएं केन्द्र और राज्य के बीच फंसकर फेल हो जाती हैं। योजनाएं फेल होंगी ही और होती रहेंगी। जब तक योजनाएं जन-जन की योजनाएं नहीं बनेंगी, तब तक आतंकवाद और नक्सलवाद जैसे खतरों से भी लोहा नहीं लिया जा सकेगा। लेकिन सिर्फ कोसने से काम चलने वाला नहीं। यह रोना रोने के भी दिन नहीं है कि इस भ्रष्ट तंत्र में कुछ नहीं हो सकता। क्योंकि इस भ्रष्ट तंत्र में भी कई कोशिशें सफल हुई हैं। कई जगह आवाजें उठी भी हैं और सुनी भी गई हैं।
आज के हालात में सच यही है कि सिर्फ पैसा लगा देने से योजनाएं नहीं चल सकती। योजना की सफलता के लिए धन से ज्यादा धुन की जरूरत है। लोकधुन की। लोकधुन के बगैर कोई नेता या अफसर योजना को सफल नहीं कर सकता। मानकर चलिए कि नेता-अफसर..... अच्छे-बुरे तो सभी जगह हैं। जो जैसा है, वह तो वैसा ही करेगा। भुगतना तो अंततः जनता को ही है। जनता को समझना होगा कि हर योजना अच्छी मंशा के साथ ही नियोजित की जाती है। ये योजनाएं, परियोजनाएं, सड़क, जंगल, इमारत जो कुछ भी है..... उसकी कल्याण के लिए है। सिर्फ सरकारी का ठप्पा लगने से ये सभी गैर नहीं हो सकती। समझ में नहीं आता कि सरकारी का ठप्पा लगते ही कैसे कोई चीज आम जन के लिए पराई हो जाती है? क्यों सरकारी संपत्ति या योजनाओं के क्षय से हमें तकलीफ नहीं होती? अपने घर का कोना-कोना हम साफ करते हैं। लेकिन घर के ठीक बाहर की सड़क साफ करने में हमें शर्म आती है। क्यों ? अपने एक-एक पैसे को हम संभालकर खर्च रकते हैं। फिर हमारी ही कमाई को हमसे लेकर सरकार द्वारा खर्च पैसे की बर्बादी पर हम चुप कैसे रह जाते हैं?
हमारी इस चुप्पी का शायद एक सबसे बड़ा कारण हमारा निजीपन है। जरूरी है कि यह निजी पीछे हो। साझा....... सभी का शुभ आगे आए। सरकारें यह सुनिश्चित तो नहीं ही करेंगी। करेगी, तो सिर्फ नाम भर को। हमें ही हर स्तर पर जनसहभागिता सुनिश्चित करने की पहल करनी होगी। अपने गांव, अपने कस्बे, अपने निगम क्षेत्र, विधानसभा, लोकसभा में जननिगरानी कमेटी का गठन कर हम पहल कर सकते हैं।
निगरानी कमेटी की भूमिका पंच परमेश्वर सरीखी है। योजना को ठीक से जानना-पहचाना। उसके हर पहलू पर नजर रखना। लाभार्थियों को पहले से अवगत कराना। योजना में कमी है तो टोकना। उन्हें दूर करने के लिए मजबूर करना। योजना ठीक से लागू हो; इसमें अपनी भूमिका को तलाशकर उसका निर्वाह करना। योजना के दुश्मनों को दूर करना और कर्मनिष्ठ सहायकों को मदद देना..... सम्मानित करना। समय-समय पर योजना की हकीकत को उजागर करना। ये निगरानी कमेटी के काम हो सकते हैं। ये काम अत्यंत जिम्मेदारी, सावधानी, कौशल व सातत्य की मांग करते हैं। सरकारों को सहायक भूमिका में आगे आना चाहिए। जननिगरानी कमेटियों के गठन, प्रशिक्षण, कौशल विकास, संवैधानिक मान्यता व हकदारी की पक्की व्यवस्था करनी चाहिए। निगरानी कमेटियों की आवाज सरकार में सुनी जाएगी; यह भरोसा सरकार, स्वयंसेवी जगत, पत्रकार, अदालत सभी को मिलकर दिलाना चाहिए।
यदि जनता यह जवाबदारी निभा सकी, तो हकदारी स्वतः आ जाएगी। जननिगरानी तंत्र जैसे-जैसे विकसित होंगे; लोकतंत्र भी विकसित होगा। अभी तंत्र आगे है, लोक पीछे। तब लोक आगे होगा; तंत्र सहायक की भूमिका में। सत्ता-शासन जनता की सुनने को मजबूर होंगे। भ्रष्टाचार पर स्वतः लगाम लग जाएगी। जन सहभागिता स्वतः सुनिश्चित होने लगेगी। यह आदर्श स्थिति होगी। इसकी अभी हम ठीक से कल्पना भी नहीं कर सकते। हां! बीज बो सकते हैं। उसे खाद-पानी, निराई-गुड़ाई कर सकते हैं। बगैर चिंता किए कि क्या होगा.... शुरूआत तो करें। निश्चित जानिए कि नतीजा तो निकलेगा ही। कभी देखा सपना भी एक दिन सच हो ही जाएगा।
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