योजना बनी तबाही बढ़ी

खिरोई तटबंधों के अतिरिक्त दरभंगा-बागमती के बाँये किनारे पर, मब्बी से लेकर सिरनियाँ तक, लहेरियासराय तथा दरभंगा शहरों की सुरक्षा के लिए 1976 में तटबंध बनाये गए थे।

1954 की बाढ़ के बाद विशेषज्ञों ने उत्तर बिहार की अन्य नदियों के साथ-साथ एक बार फिर अधवारा समूह की नदियों की समस्या का अध्ययन किया और तब यह विचार प्रस्तुत किया गया कि दरभंगा-बागमती की धारा विस्तृत और गहरी है जब कि खिरोई की धारा छिछली तथा पतली है जिसके कारण इसमें बाढ़ आती है। अतः मार्च 1955 में यह प्रस्ताव किया गया कि खिरोई की धारा को खोद कर उस पर सोनबरसा के नीचे की 56 किलोमीटर की लम्बाई में दोनों किनारों पर तटबंध बना दिए जाएँ। लगभग पैंसठ लाख रुपये की अनुमानित लागत राशि पर सोनबरसा से ऐग्रोपट्टी तक 1963-64 में तटबंध पूरे कर लिये गए थे और इनसे 68,500 एकड़ भूमि को बाढ़ से सुरक्षा मिल जाने का अनुमान किया गया था।

जब इस परियोजना के काम में हाथ लगा तो स्थानीय लोगों की सरकार से अपेक्षाएं भी बढ़ीं। इसकी अभिव्यक्ति बिहार विधान सभा में छोटे प्रसाद सिंह के बयान से हुई-

‘खिरोई और अधवारा सिस्टम आरंभ हुआ है। लेकिन इसकी प्रगति इतनी धीमी है कि जब तक यह काम पूरा होगा तब तक सारा का सारा किसान अपनी जमीन बेच चुका होगा। मैं चाहता हूँ कि इस काम को यथाशीघ्र पूरा किया जाय। अभी-अभी किसी काम के लिये वहाँ सम्मेलन हुआ था और उसमें भूतपूर्व माननीय सिंचाई मंत्री श्री राम चरित्र सिंह भी गए थे। उन्हें भी उस क्षेत्र को देखने का मौका मिला है। वे श्रीमती जनककिशोरी देवी, भूतपूर्व सदस्या के आग्रह पर गए थे। उन्होंने भी कहा था कि अधवारा सिस्टम में जमुने और धौंस को भी स्थान दिया गया है। वे जहाँ-जहाँ गए वहाँ के किसानों ने यही पूछा कि अधवारा सिस्टम में जमुने और धौंस को स्थान दिया गया है या नहीं। इस पर वे झुंझलाकर कहे थे कि हाँ, स्थान दिया गया है। लेकिन फिर भी कुछ काम होते नहीं देखता हूँ। इतना देखा है कि कुछ लोग गए और नाप जोख करके चले आये। नापजोख करने के सिलसिले में किसी से मिले भी नहीं और न किसी से कुछ सलाह ही ली।’

अधवारा और खिरोई नदियों के तटबंधों के निर्माण में भी किसानों की कुछ न कुछ जमीन का अधिग्रहण करना पड़ा था यद्यपि इन नदियों के तटबंधों के बीच घरों के होने की कोई सूचना नहीं है। यह नदियाँ काफी छोटी-छोटी है। अतः मुमकिन है कि घरों को तटबंधों के बीच फंसने से बचा लिया गया हो। छोटे प्रसाद सिंह के एक सवाल के जवाब में राज्य के सिंचाई मंत्री ने विधान सभा को बताया (1958), ‘‘...सिर्फ बेनीपट्टी थाने में खिरोई योजना के निर्माण के लिये 49.44 एकड़ जमीन ली गयी है जिसकी कीमत 74,160 रुपया होती है और उक्त थानान्तर्गत अधवारा योजना के लिये 14.39 एकड़ जमीन ली गई है जिसकी कीमत 21,585 रुपया होती है। जिन किसानों की जमीन ली गयी है उनका नाम तथा पते की लिस्ट तैयार की जा रही है। तैयार हो जाने पर उनका नाम तथा पता बताया जा सकता है।’’

योजना के अब जो भी रिकार्ड उपलब्ध हैं उसके अनुसार यह काम 1963-64 में पूरा हो गया था मगर जब बाढ़ आती थी तो यह तटबंध किसी काम नहीं आते थे। निर्माण के साथ उनका टूटना शुरू हुआ मगर अपेक्षाएं कम नहीं हुई थीं। किसानों को आशा थी कि तटबंधों में जो गैप हैं उनमें स्लुइस गेट लगा दिये जायेंगे और उनकी मदद से खेती के लिए सिंचाई भी मिलने लगेगी। राज कुमार पूर्वे की शिकायत थी, ‘‘...यह दुख की बात है कि जब 1964 में भयानक बाढ़ आई थी तो केन्द्रीय सरकार ने और बिहार सरकार ने फ्लड कंट्रोल बोर्ड का निर्माण किया था लेकिन अभी तक बाढ़ का नियंत्रण नहीं हो सका है। प्रतिवर्ष बाढ़ वहाँ आती है और लोगों को कठिनाई होती है, उनके मवेशी दह (बह) जाते हैं, जमीन कट जाती है, घर दह जाते हैं, आदमी दह जाते हैं और उसके बीच का जो अधवारा क्षेत्र है, उसकी भी यही हालत है। मैं बड़े अदब के साथ कहना चाहता हूँ कि बिहार सरकार की तरफ से और केन्द्रीय सरकार की तरफ से जो बाढ़ नियंत्रण का संगठन है, उससे उस इलाके का कंट्रोल नहीं हो पाया है।

प्रतिवर्ष सरकार की तरफ से रिलीफ अनुदान दिया जाता है, लेकिन जो मुख्य समस्या है और भारत सरकार के जो ऑफिसर आये और उनका जो सुझाव हुआ, अधवारा क्षेत्र के लिये, उसे आज तक कानून में परिणत नहीं किया गया। इन इलाकों की जितनी नदियाँ हैं, उनके बारे में रिपोर्ट में कहा गया है कि उन्हें बांध दिया जाए और स्लुइस गेट लगा दिया जाए, तो बाढ़ का नियंत्रण भी हो सकेगा और उस क्षेत्र में सिंचाई का काम भी हो सकेगा। आज इस योजना के अभाव में सारी फसल पानी में बर्बाद हो जाती है। बाढ़ नियंत्रण के लिये बिहार सरकार के जो अधिकारी हैं, उन्हें इस योजना पर खर्च करने के लिये हर साल करोड़ों रुपया दिया जाता है, लेकिन वे सफल नहींहो पाते हैं।’’ बाद के वर्षों में ऐग्रोपट्टी से लेकर दरभंगा में एकमीघाट तक खिरोई की इस धारा को पुनः गहरा करके इसके दोनों तटबंधों को पूरा करके इसे दरभंगा बागमती में मिला दिया गया। सोनबरसा से लेकर एकमी घाट तक तटबंधों के बीच बहने वाली इस नदी का एक छोटा सा हिस्सा, बायें तट पर, ऐग्रोपट्टी में मुक्त है जिससे इसका कुछ प्रवाह बुढ़नद धार से होकर वहीं से दरभंगा-बागमती में चला जाया करता है। तटबंधों की उपयोगिता आधिकारिक तौर पर अच्छी मानी जाती है फिर भी बाद के वर्षों की कई बाढ़ों के स्तर को देखते हुए इन तटबंधों को ऊँचा करने की बात चल रही है।

खिरोई तटबंधों के अतिरिक्त दरभंगा-बागमती के बाँये किनारे पर, मब्बी से लेकर सिरनियाँ तक, लहेरियासराय तथा दरभंगा शहरों की सुरक्षा के लिए 1976 में तटबंध बनाये गए थे। अपने निर्माण के पहले ही साल में यह तटबंध टूट गया था जिसकी वजह से बाढ़ का पानी शहर में घुस गया था। इस घटना को लेकर तकनीकी हलकों में काफी बवाल खड़ा हो गया था। यह तटबंध करेह के बाएँ तटबंध से जोड़ दिया गया है।

1964 के बाद अधवारा और खिरोई नदी पर बने तटबंधों का एक तरह मूल्यांकन होना शुरू ही हुआ था कि इसी बीच 1966 वाली बाढ़ आ गयी। उस वर्ष बागमती घाटी में क्या-क्या हुआ उसके बारे में हम पहले चर्चा कर आये हैं। अधवारा घाटी में भी तटबंधों के निर्माण के बाद तबाही बदस्तूर जारी रही। घाटी में बाढ़ से हुई तबाही का जिक्र करते हुए तेज नारायण झा ने बिहार विधान सभा को बताया, ‘‘...हमारे क्षेत्र बेनीपट्टी, मधवापुर, बिसफी और हरलाखी में दर्जनों बाँध टूट गया, पाली, करहरा का बाँध टूट गया, उरेन का बाँध टूट गया। तीन-तीन चार-चार दिन तक भर-भर रात जग कर सैकड़ों ग्रामीण बाँध की हिफाजत में लगे रहे, लेकिन सरकार का कोई मुलाजिम वहाँ पर उपस्थित नहीं हुआ। बी.डी.ओ., सुपरवाइजर, वी.एल.डब्लू., ग्राम सेवक या सरकार का कोई भी कर्मचारी वहाँ उपस्थित नहीं था और न किसी तरह की मदद ही दी गयी। यहीं पर सौली घाट के पूरब जो कॉज-वे बना है उसका स्तर इतना नीचा है कि पानी खुलने के बाद उड़ेन का बाँध टूट गया। पी.डब्लू.डी. इस बात की तहकीकात करे कि योजना में क्या खामी थी। बेनीपट्टी से हरलाखी, बेनीपट्टी से मधवापुर, बेनीपट्टी से कमतौल और जोगियारा जाने की सभी सड़कों पर पानी आ गया और कई जगह ये सड़कें टूट गयी हैं। बेनीपट्टी-पुपरी पी.डब्लू.डी. सड़क सात जगहों में टूट चुकी है। बेनीपट्टी से दक्खिन जाने का कच्चा रास्ता बिल्कुल बंद है, इसलिए कि चारों तरफ समुद्र के जैसा दृश्य है। यह वह इलाका है जहाँ न कोई मंत्री जाते हैं और न सरकार के कोई बड़े अधिकारी, यहाँ तक कि न डी.एम. या एस.डी.ओ. ही जा सके। इसलिए दरभंगा से पक्की सड़क होकर जयनगर और बेनीपट्टी तक आ सकते हैं। लेकिन उसके बाद बिना नाव पर गए कोई उस इलाके में नहीं जा सकता है।’’

1968 की बाढ़ के बाद अधवारा घाटी में बाढ़ की तबाही हर साल का किस्सा बन गयी और यह रवायत आज भी कायम है। उत्तर में भारत-नेपाल सीमा से लेकर दक्षिण पूरब में हायाघाट तक का पूरा इलाका बरसात के मौसम में खबरों में बना रहता है। सड़कों का टूटना, तटबंधों का टूटना, जल-जमाव, राहत सामग्री का न पहुँच पाना आदि खबरों से समाचार पत्र आज भी भरे रहते हैं। जिन तटबंधों के निर्माण से पूरे इलाके में पानी का रास्ता रोक देने से इतनी तबाही होती है, प्रभावित लोगों की तरफ से उन्हीं के विस्तार, ऊँचा करने और मजबूत बनाने की मांग उठती है। यही वजह थी कि 1966 के बाद राज्य सरकार को इस दिशा में सोचना पड़ गया। प्रतिभा देवी ने 1967 में विधान सभा में फिर एक बार उत्तरी सीतामढ़ी की बरबादी का किस्सा कुछ इस तरह बयान किया-‘‘फिर भी स्थायी समाधान नहीं निकलता है, जैसा कि हर बरसात में सीतामढ़ी से भीठाचक की सड़क दो जगह टूट गयी है और इसके बारे में सरकार का ध्यान खींचा जाता है कि पुल वहाँ न बना कर यदि इरिश कॉजवे बना दें, तो बहुत फायदा होगा, लेकिन इस पर ध्यान नहीं दिया जाता है। वहाँ जो पुल बनाया जाता है, वह हर साल दो-तीन महीनें के अंदर टूट जाता है। इसलिये इरिश कॉजवे बना दें, तो उससे लोगों को बहुत लाभ होगा। दूसरी बात यह है कि बेला-परिहार सड़क, पुपरी से चोरौत, पिरोखर पुल तथा नाढीघाट (भिठा) नदी की धारा वगैरह समस्याओं की तरफ भी मैं सरकार का ध्यान आकृष्ट करना चाहती हूँ। वहाँ प्रतिवर्ष बाढ़ से क्षति होती है और उसके बारे में कहा जाता है, लेकिन सरकार ध्यान नहीं देती है। पुपरी प्रखंड में अमनपुर में छरकी के टूट जाने से इस ग्राम पर खतरा है। बेला-परिहार सड़क, जो कई जगह बरसात में टूट जाया करती है, उस पर जगह-जगह स्लूइस गेट लगाने के बारे में सुझाव दिया गया, लेकिन उसके सुझाव का कार्यान्वयन नहीं हो सका।’’

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Post By: tridmin
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