आख़िर अदालत ने यमुना किनारे राष्ट्रमंडल खेलों के लिए विभिन्न तरह के निर्माणों की इजाज़त दे ही दी। लेकिन, सवाल तो फिर भी है कि राष्ट्रमंडल खेल या एक नदी की ज़िन्दगी से खिलवाड़! काश, यमुना अपने अहसास बाँट सकती तो अपनी वेदना ज़रूर व्यक्त करती कि-- अरे, सृष्टि के सबसे समझदार प्राणी, क्या यही तेरी समझदारी है कि अपने चन्द दिनों के खेल-तमाशे के लिए युग-युग से मेरे खेलने-विचरने की, मेरे हिस्से की ज़मीन भी हड़प ले। लेकिन दुर्भाग्य! यमुना सिर्फ़ एक नदी है। प्रकृति की मूक बेजान संरचना। उसके हर्ष-विषाद की कोई परिभाषा नहीं है, न कोई ज़ुबान। एक मरती हुई नदी के अहसास से गुज़रना, उसकी पीड़ा उसके क्रंदन को महसूस कर पाना तो दरअसल किसी बड़े जिगरे का काम है, जो प्रकृति के साथ समरस होकर जीवन जीने से संभव बनता है। और यह, शायद प्रकृति को रौंदकर विकास के महल बनाने के जुनून में पगलाए जा रहे आज के आदमी में नहीं रहा। और इस नाते, ढेर सारे प्रश्नों-प्रतिप्रश्नों, विरोधों-आपत्तियों के बीच विकास के नाम पर यमुना किनारे अतिक्रमण चलता रहेगा; उसके तटों पर पंचतारा होटल, मॉल, हेलीपैड और खेल प्रशाल बनते रहेंगे; और अंतत: सन्-2010 में दस दिनों तक कभी के उपनिवेश देशों की आज़ाद धमा-चौकड़ी भी चलेगी ही।
सवाल सन्-2010 में दिल्ली में आयोजित किए जा रहे राष्ट्रमंडल खेलों के औचित्य पर नहीं है। खेल तो होने ही चाहिए; क्योंकि वे मनुष्य जीवन की नीरसता कम करते हैं, संघर्षों के लिए हौसला देते हैं, देह-दिमाग़ की सक्रियता के महत्वपूर्ण उपादान हैं। यह बात अलग है कि दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन को जिस पैमाने पर राष्ट्रीय गौरव घोषित किया जा रहा है, वैसा बहुत कुछ है नहीं। यह हमारे लिए कोई जग जीतने वाली बात भी नहीं है। फिर भी ये खेल हों और सफलता के साथ हों, तो राष्ट्र का सम्मान बढ़ने से भला कहाँ इनकार।
मूल सवाल दरअसल यह है कि क्या सिर्फ़ दस दिन के जोश के लिए सदियों से हमारी तहज़ीब का हिस्सा रही एक नदी की अस्मिता से ऐसा अविवेकपूर्ण बरताव किया जाएगा, जिसके परिणाम भविष्य में ख़तरनाक हो सकते हैं? क्या राष्ट्रमंडल खेलों के लिए इस देश में और कोई जगह नहीं बची? दिल्ली में यमुना किनारे ही ये आयोजन आख़िर क्यों? और अगर, राष्ट्र का गौरव दिखाने को दिल्ली की ही दरकार है, तो यमुना तट छोड़ और भी तमाम जगहें दिल्ली में या दिल्ली के इर्द-गिर्द चिह्नित क्यों नहीं की जा सकती थीं?चन्द दिनों के लिए ही यमुना के तटों पर अस्थायी अतिक्रमण की बात होती तो भी बहुत ज्यादा चिंता की बात नहीं थी। चिंता तो इस बात से पैदा होती है कि खेल ख़त्म होने के बाद भी यमुना को उसका मूल स्वरूप वापस नहीं मिलेगा। उसकी प्राकृतिक संरचना हमेशा-हमेशा के लिए बिगाड़ दी जाएगी। यमुना सिमट जाएगी। दिल्ली में उसके तट से 47 किलोमीटर का दायरा समाप्तप्राय: सा हो जाएगा और निरंतर गंदे नाले में तब्दील होती जा रही इस नदी की दशा और भी दयनीय हो जाएगी।
दुर्भाग्य है कि सारी दुनिया में पर्यावरण चेतना के ढेर सारे अभियानों के बावजूद हमारे नीति-निर्माताओं, योजनाकरों को यह बात समझ में नहीं आती कि अविरल बहती एक नदी का मनुष्य के जीवन से कितना घना रिश्ता है। बात शहरों की, घनी आबादी की हो, तो यह सवाल और मौज़ूँ हो उठता है। प्राचीनकाल से ही हमारे शहर नदियों से नज़दीकी बनाकर बसते रहे हैं तो यह यूँ ही नहीं है। ख़ास बात यह भी है हमारा नगरीय जीवन नदी तटों से सटकर भले ही शुरू हुआ, पर उसने कभी इन तटों को अतिक्रमण का शिकार नहीं बनाया। प्रकृति की यह हमारी पुरातन समझ है कि नदी अपने किनारों का जो विस्तार करती है वह प्राकृतिक संतुलन की अनिवार्य माँग होती है। हमारे पुरखों को मालूम था कि नदी के तटों पर कंक्रीट के जंगल नहीं, हो सके तो पेड़-पौधों की हरियाली पैदा की जाती है, ताकि नदी की निर्मल धार और हरियाली का सुयोग हमारे फेफड़ों को साफ़ स्वास्थ्यप्रद हवा प्रदान करने का माध्यम बने, और बाढ़ की विभीषिकाएँ विनाश के त्रासद अध्याय न लिख पाएँ। यमुना का तट, कदम्ब का पेड़ और बंसी बजैया - मिलकर इस देश का सांस्कृतिक प्रतीक गढ़ते हैं। यह बात हमारे रहनुमाओं को समझ में आ जाय तो शायद वे यह भी जान-समझ पाएँगे कि यमुना के किनारों को पाट देने का उनका पुरुषार्थ अंतत: हमारे जीवन से बहुत कुछ छीन लेने का धतकरम ही साबित होगा।राष्ट्रमंडल खेलों के चलते यमुना के साथ कैसा खेल शुरू हुआ है और इसके क्या नफ़ा-नुक़सान हैं, इसे समझने के लिए पूरी योजना पर ही एक निगाह डालनी होगी। जो खेलगाँव यमुना के तटों को पाटकर बनाया जा रहा है, उसके तहत पाँच सितारा होटल, हेलीपैड, मॉल, मनोरंजन केंद्र वगैरह बनेंगे। 8500 खिलाड़ियों के ठहरने के लिए 4500 कमरों की आलीशान इमारतें बनाने का काम जारी है। यमुना के सीने पर ही आरामदेह दिल्ली को समर्पित मेट्रो का बुलडोजरी अक्स तो ख़ैर बहुत पहले से ही साफ़ दिखने लगा है। मेट्रो डिपो का काम दिन-दूनी रात-चौगुनी रफ्तार से जारी है। भगवान का नाम लेकर बना अक्षरधाम मंदिर भी यमुना की देह में ज़बरदस्ती पनपा दिया गया एक नासूर ही है। खेल के नाम पर तो ख़ैर जिस तरह से नित नई योजनाओं की घोषणा जारी है उसके चलते कहा नहीं जा सकता कि इस नदी के साथ अभी और कितने हादसे गुज़रेंगे।
राष्ट्र के इस तथाकथित आत्मगौरव के लिए पहले का तय पूरा बज़ट 1700 करोड़ रुपए तो जाने कब का पानी की तरह बहा दिया गया है। अब तो बात 23000 करोड़ रुपए से भी ज्यादा ख़र्चने तक जा पहुँची है। ज़ुबान से अंक-ऑंकड़े तो आप बड़ी आसानी बोल-बताकर आगे बढ़ सकते हैं, पर देश के आम आदमी को तो तब अहसास होगा जब उसे यह पता चले कि इतने पैसों में देश के सारे गरीब बच्चों की पढ़ाई का इन्तज़ाम किया जा सकता है। या, इतने पैसों में पाँच सौ बेहतर सुविधाओं के अस्पताल खोले जा सकते हैं। इतना धन ठीक से समायोजित कर दिया जाए तो आत्महत्या कर रहे किसानों की ज़िन्दगी ख़ुशहाल बन जाए। याकि, इतने धन से गाँवों में पीने के साफ़ पानी की व्यवस्था बहुत बेहतर बनाई जा सकती है। लेकिन अरबों रुपयों के खर्च के बाद कुल नतीजा यह होगा कि दिल्ली में यमुना और दुबली हो जाएगी। दुखद यही है कि यमुना के दुबलाने का अर्थ सिर्फ़ उसका किनारा-कछार ख़त्म हो जाने तक ही सीमित नहीं रहेगा। इसके नतीजों को तो यमुना के जल अधिग्रहण क्षेत्र के सिमट जाने के ख़तरों के अन्यान्य रूपों में पहचानना होगा। इससे बरसात में जल सोखने का क्षेत्र घट जाएगा, जिससे दिल्ली और उसके इर्द-गिर्द के इलाकों की सतह के नीचे जो भूजल भंडार है उसकी पुनर्भरण की अब तक की सहज प्राकृतिक प्रक्रिया भी बाधित हो जाएगी। मतलब यह कि अभी से पानी की किल्लत झेल रहा महानगर और मुश्किल में फँसेगा। नदी के जल अधिग्रहण क्षेत्र के सिमटने का यह भी अर्थ है कि दिल्ली जैसी घनी आबादी वाले शहर से खुले इलाके का एक बहुत बड़ा हिस्सा ख़त्म हो जाएगा। नतीजतन, हवा में प्रदूषण का ख़तरा अब और बढ़ेगा। अजब विडम्बना है कि यमुना की खादर पर विकास और राष्ट्रीय सम्मान के नाम पर बेहद घनी आबादी की उस दिल्ली में अतिक्रमण का खेल चल रहा है, जहाँ खुले तटों की ज़रूरत ज्यादा है। इसके भावी संकेत यह भी हो सकते हैं कि कहीं एक दिन यमुना को पूरी तरह पाटकर समतल बना दिए जाने की ही कोई योजना न सामने आ जाए।
विकास की आधुनिक सोच के पंडित ख़ुशहाली का रास्ता जिस तरह 'नदी जोड़ो' जैसी योजनाओं में देख रहे हैं, उसके चलते नाला बन चुकी यमुना की राह नदियों को जोड़ने के क्रम में सचमुच बदलकर दिल्ली से उसका वजूद ही मिटा दिया जाए तो सचमुच कोई बहुत आश्चर्य नहीं होना चाहिए? भविष्य की पीढ़ियाँ अस्तित्व के संकट से जूझने को अभिशप्त हों तो अपनी बला से! अभी हाल तो हमें अपनी तकनीकी उपलब्धियों पर इतना भरोसा हो चला है कि नदी की धारा बदल देने, उसके तटों को पाटकर वहाँ बहुमंजिला इमारतें खड़ी कर देने में ही विकास और समॄध्दि के सूत्र दिखाई दे रहे हैं। लेकिन शायद यह हम भूल रहे हैं कि प्रकृति के नियमों में किंचित भी फेरबदल कर सकने की बिसात आदमी में नहीं हैं। आख़िर हम उत्पाद तो प्रकृति के ही हैं, तो प्रकृति पर भारी पड़ने का मुग़ालता अंतत: हम पर ही भारी पड़ेगा। नदी प्रकृति की महान निर्मितियों में से एक है। नदी के स्वरूप में इतना बड़ा परिवर्तन कोई गङ्ढा खोदने-पाटने जैसी छोटी-मोटी परिघटना नहीं है कि इसके परिणामों की अनदेखी कर दी जाए। प्रकृति की बड़ी संरचनाओं के साथ छेड़छाड़ के परिणाम भी बड़े ही होंगे। धरती की हरियाली की अहमियत हमने कम की, हवा में ज़हर घोला तो उसके दुष्प्रभावों के तौर पर प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, जीव-जन्तुओं की तमाम प्रजातियों पर मँडरा रहे ख़तरे का सामना तमाम वैज्ञानिक-तकनीकी उपलब्धियों के बाद भी सारी दुनिया को करना ही पड़ रहा है। ऐसे में दिल्ली में यमुना के तटों पर बड़ी-बड़ी इमारतों का जाल खड़ा कर देने का प्रकृति विरोधी काम भी किसी भी ख़तरे को आमंत्रित कर दे, तो ताज्ज़ुब की बात न होगी। जगह-जगह बंधी हुई यमुना दिल्ली में नाला जैसी हो गई है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि भविष्य में इसमें कभी पानी नहीं उफनेगा। बरसात या पिघलते ग्लेशियरों ने कभी बाढ़ की स्थिति पैदा की अथवा टिहरी जैसे बाँधों की दीवारें - भगवान न करे - कभी दरक गईं तो उफनता पानी यमुना का तल तलाश ही लेगा और तब उसके जल अधिग्रहण क्षेत्र में खड़ी बहुमंजिली इमारतों का क्या हाल होगा, यह सोच लेना भर रोंगटे खड़े करने को काफ़ी है। ख़तरा भूकंप का भी है। दिल्ली सिस्मिक जोन चार में आता है। यानी भूकंप के बड़े ख़तरे यहाँ की धरती ने अपने गर्भ में छुपा रखे हैं। उसमें भी यमुना के तटों पर ख़तरा अन्य जगहों की तुलना में ज्यादा ही है। ऐसे में भूकंप की स्थितियों में विनाश का शिकार भी यमुना का तट ही ज्यादा होगा। प्रकृति के शायद ये संकेत हैं कि उसने आदमी के स्थायी निवास न बन लायक़ ख़तरे की जगहों पर नदी, पहाड़, समंदर बना रखे हैं, ताकि वहाँ आबादी की स्थितियाँ कम बनें या न बनें; पर आदमी प्रकृति के संकेत समझने से इनकार कर दे तो दैवी आपदाओं में दोष किसका?
यमुना के शीलहरण की दरअसल यह 'रियल स्टेट' कहानी है। रियल स्टेट के बड़े-बड़े खिलाड़ियों, बिल्डर माफियाओं की निगाहें अब यमुना के खुले तटों पर ही लगी हैं। दिन-दिन फैलती दिल्ली में घटती ज़मीनों ने मुनाफ़े के कारोबारियों को यमुना के किनारे के दस हज़ार हेक्टेयर खाली इलाके में अकूत पैसा बनाने की संभावना दिखा दी है। राष्ट्रीय सम्मान के राष्ट्रमंडल खेलों को तो असल में क़ब्ज़े की शुरुआत के लिए एक बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। इसका प्रमाण यह भी है कि खेल ख़त्म होने के बाद इसके निर्माणों को बड़े पैमाने पर बेचने की योजना अभी से बना ली गई है। बड़ी संख्या में बने फ्लैट दो-दो करोड़ में बिकेंगे। 'राष्ट्रीय सम्मान' का शोर मचाकर तमाम विरोधों के बावजूद सौ एकड़ के तट पर डीडीए के क़ाबिज़ होने की प्रक्रिया पूरी होने को है। यहाँ रिहायशी और व्यावसायिक इमारतें बनेंगी। पर्यावरण और वन मंत्रालय पर दबाव डालकर 'पर्यावरण स्वीकृति' भी प्राप्त कर ली गई है। भले ही मंत्रालय ने यमुना तट की स्थितियों के मद्देनज़र सिर्फ़ अस्थायी निर्माण की स्वीकृति दी हो, पर सत्ता-तंत्र का मिज़ाज पहचानें तो साफ़ कहा जा सकता है कि खेल ख़त्म होते ही अस्थायी को स्थायी में बदलते देर न लगेगी। मज़े की बात यह है कि इस सारे निर्माण में प्राइवेट बिल्डरों की सबसे बड़ी भूमिका रहेगी। मतलब, खेल के बहाने मुनाफ़े का खेल। आम आदमी की इसमें भी कोई जगह नहीं। असल में विकास के नाम पर हर तरह के खेल-तमाशे में 80 फ़ीसद उस आबादी की नियति में तो त्रासदी भोगना ही बदा है जो जल-जंगल-ज़मीन का सिर्फ़ ज़रूरत भर को इस्तेमाल करके अपनी ज़िन्दगी गुज़ार रहा है।
कहने को सरकारी ऐलान यही है कि यमुना को बरबाद नहीं होने दिया जाएगा, बल्कि राष्ट्रमंडल खेलों के चलते उसका कायाकल्प कर दिया जाएगा। 3150 करोड़ रुपए की योजना सिर्फ यमुना की साफ़-सफ़ाई के लिए तैयार की गई है। यमुना के किनारों के लिए बनी योजनाओं से पूर्वी और मध्य दिल्ली का हुलिया तक बदल देने की बात कही जा रही है। डीडीए ने यमुना की अभी तक किसी भी तरह की छेड़छाड़ से बच गई 7300 हेक्टेयर ज़मीन का कायाकल्प करने की घोषणा की है। इसमें से 85 फ़ीसद ज़मीन मनोरंजन गतिविधियों के काम में ली जाएगी। इसके तहत पार्क, वाटर स्पोट्र्स, पक्षी अभ्यारण्य, हेरिटेज वॉक से लेकर फार्मूला वन रेसिंग कार के टैक वगैरह बनेंगे। वादा यह भी है कि यमुना किनारे पक्के निर्माण कम से कम किए जाएंगे।
यमुना को बचाने-सँवारने की सरकारी चिंता अगर असली हो तो कुछ राहत महसूस की जा सकती है, पर दुर्भाग्य से अब तक यमुना के कायाकल्प की जो भी सरकारी चिंताएं सामने आई हैं, उनके नतीजे उल्टे दुखी करने वाले ही रहे हैं। पिछले डेढ़ दशक में यमुना की सफ़ाई पर 1500 करोड़ रुपए से ज्यादा ख़र्च कर दिए गए, पर इस नदी में गंदगी की कालिमा बढ़ती ही रही। यमुना को बचाने की ढेर सारी आयोजनाओं का कुल नतीजा यह हुआ है कि 30 जगहों पर इस नदी का तट अब तक ख़त्म हो चुका है। ढेर सारी कोशिशों के बावजूद 22 नाले 3296 मिलियन गैलन लीटर गंदा पानी और औद्योगिक कचरा यमुना में दिन-रात उड़ेल ही रहे हैं, भले देश का 40 फ़ीसद सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट अकेले दिल्ली में ही हो।
इन हालात में समाज, संस्कृति और आबोहवा बचाए रखने के हामी लोग अगर चिंतित हो रहे हैं कि कहीं राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन यमुना के वजूद पर कहर बनकर न टूटे, तो स्वाभाविक ही है। त्रासदीपूर्ण स्थिति यह है कि तथाकथित विकास का कालिया नाग यमुना के सीने पर सवार है, और उसे नथ सकने की कूवत वाला कोई कृष्ण दूर-दूर तक नजर नहीं आता।
सन्त समीर
सवाल सन्-2010 में दिल्ली में आयोजित किए जा रहे राष्ट्रमंडल खेलों के औचित्य पर नहीं है। खेल तो होने ही चाहिए; क्योंकि वे मनुष्य जीवन की नीरसता कम करते हैं, संघर्षों के लिए हौसला देते हैं, देह-दिमाग़ की सक्रियता के महत्वपूर्ण उपादान हैं। यह बात अलग है कि दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन को जिस पैमाने पर राष्ट्रीय गौरव घोषित किया जा रहा है, वैसा बहुत कुछ है नहीं। यह हमारे लिए कोई जग जीतने वाली बात भी नहीं है। फिर भी ये खेल हों और सफलता के साथ हों, तो राष्ट्र का सम्मान बढ़ने से भला कहाँ इनकार।
मूल सवाल दरअसल यह है कि क्या सिर्फ़ दस दिन के जोश के लिए सदियों से हमारी तहज़ीब का हिस्सा रही एक नदी की अस्मिता से ऐसा अविवेकपूर्ण बरताव किया जाएगा, जिसके परिणाम भविष्य में ख़तरनाक हो सकते हैं? क्या राष्ट्रमंडल खेलों के लिए इस देश में और कोई जगह नहीं बची? दिल्ली में यमुना किनारे ही ये आयोजन आख़िर क्यों? और अगर, राष्ट्र का गौरव दिखाने को दिल्ली की ही दरकार है, तो यमुना तट छोड़ और भी तमाम जगहें दिल्ली में या दिल्ली के इर्द-गिर्द चिह्नित क्यों नहीं की जा सकती थीं?चन्द दिनों के लिए ही यमुना के तटों पर अस्थायी अतिक्रमण की बात होती तो भी बहुत ज्यादा चिंता की बात नहीं थी। चिंता तो इस बात से पैदा होती है कि खेल ख़त्म होने के बाद भी यमुना को उसका मूल स्वरूप वापस नहीं मिलेगा। उसकी प्राकृतिक संरचना हमेशा-हमेशा के लिए बिगाड़ दी जाएगी। यमुना सिमट जाएगी। दिल्ली में उसके तट से 47 किलोमीटर का दायरा समाप्तप्राय: सा हो जाएगा और निरंतर गंदे नाले में तब्दील होती जा रही इस नदी की दशा और भी दयनीय हो जाएगी।
दुर्भाग्य है कि सारी दुनिया में पर्यावरण चेतना के ढेर सारे अभियानों के बावजूद हमारे नीति-निर्माताओं, योजनाकरों को यह बात समझ में नहीं आती कि अविरल बहती एक नदी का मनुष्य के जीवन से कितना घना रिश्ता है। बात शहरों की, घनी आबादी की हो, तो यह सवाल और मौज़ूँ हो उठता है। प्राचीनकाल से ही हमारे शहर नदियों से नज़दीकी बनाकर बसते रहे हैं तो यह यूँ ही नहीं है। ख़ास बात यह भी है हमारा नगरीय जीवन नदी तटों से सटकर भले ही शुरू हुआ, पर उसने कभी इन तटों को अतिक्रमण का शिकार नहीं बनाया। प्रकृति की यह हमारी पुरातन समझ है कि नदी अपने किनारों का जो विस्तार करती है वह प्राकृतिक संतुलन की अनिवार्य माँग होती है। हमारे पुरखों को मालूम था कि नदी के तटों पर कंक्रीट के जंगल नहीं, हो सके तो पेड़-पौधों की हरियाली पैदा की जाती है, ताकि नदी की निर्मल धार और हरियाली का सुयोग हमारे फेफड़ों को साफ़ स्वास्थ्यप्रद हवा प्रदान करने का माध्यम बने, और बाढ़ की विभीषिकाएँ विनाश के त्रासद अध्याय न लिख पाएँ। यमुना का तट, कदम्ब का पेड़ और बंसी बजैया - मिलकर इस देश का सांस्कृतिक प्रतीक गढ़ते हैं। यह बात हमारे रहनुमाओं को समझ में आ जाय तो शायद वे यह भी जान-समझ पाएँगे कि यमुना के किनारों को पाट देने का उनका पुरुषार्थ अंतत: हमारे जीवन से बहुत कुछ छीन लेने का धतकरम ही साबित होगा।राष्ट्रमंडल खेलों के चलते यमुना के साथ कैसा खेल शुरू हुआ है और इसके क्या नफ़ा-नुक़सान हैं, इसे समझने के लिए पूरी योजना पर ही एक निगाह डालनी होगी। जो खेलगाँव यमुना के तटों को पाटकर बनाया जा रहा है, उसके तहत पाँच सितारा होटल, हेलीपैड, मॉल, मनोरंजन केंद्र वगैरह बनेंगे। 8500 खिलाड़ियों के ठहरने के लिए 4500 कमरों की आलीशान इमारतें बनाने का काम जारी है। यमुना के सीने पर ही आरामदेह दिल्ली को समर्पित मेट्रो का बुलडोजरी अक्स तो ख़ैर बहुत पहले से ही साफ़ दिखने लगा है। मेट्रो डिपो का काम दिन-दूनी रात-चौगुनी रफ्तार से जारी है। भगवान का नाम लेकर बना अक्षरधाम मंदिर भी यमुना की देह में ज़बरदस्ती पनपा दिया गया एक नासूर ही है। खेल के नाम पर तो ख़ैर जिस तरह से नित नई योजनाओं की घोषणा जारी है उसके चलते कहा नहीं जा सकता कि इस नदी के साथ अभी और कितने हादसे गुज़रेंगे।
राष्ट्र के इस तथाकथित आत्मगौरव के लिए पहले का तय पूरा बज़ट 1700 करोड़ रुपए तो जाने कब का पानी की तरह बहा दिया गया है। अब तो बात 23000 करोड़ रुपए से भी ज्यादा ख़र्चने तक जा पहुँची है। ज़ुबान से अंक-ऑंकड़े तो आप बड़ी आसानी बोल-बताकर आगे बढ़ सकते हैं, पर देश के आम आदमी को तो तब अहसास होगा जब उसे यह पता चले कि इतने पैसों में देश के सारे गरीब बच्चों की पढ़ाई का इन्तज़ाम किया जा सकता है। या, इतने पैसों में पाँच सौ बेहतर सुविधाओं के अस्पताल खोले जा सकते हैं। इतना धन ठीक से समायोजित कर दिया जाए तो आत्महत्या कर रहे किसानों की ज़िन्दगी ख़ुशहाल बन जाए। याकि, इतने धन से गाँवों में पीने के साफ़ पानी की व्यवस्था बहुत बेहतर बनाई जा सकती है। लेकिन अरबों रुपयों के खर्च के बाद कुल नतीजा यह होगा कि दिल्ली में यमुना और दुबली हो जाएगी। दुखद यही है कि यमुना के दुबलाने का अर्थ सिर्फ़ उसका किनारा-कछार ख़त्म हो जाने तक ही सीमित नहीं रहेगा। इसके नतीजों को तो यमुना के जल अधिग्रहण क्षेत्र के सिमट जाने के ख़तरों के अन्यान्य रूपों में पहचानना होगा। इससे बरसात में जल सोखने का क्षेत्र घट जाएगा, जिससे दिल्ली और उसके इर्द-गिर्द के इलाकों की सतह के नीचे जो भूजल भंडार है उसकी पुनर्भरण की अब तक की सहज प्राकृतिक प्रक्रिया भी बाधित हो जाएगी। मतलब यह कि अभी से पानी की किल्लत झेल रहा महानगर और मुश्किल में फँसेगा। नदी के जल अधिग्रहण क्षेत्र के सिमटने का यह भी अर्थ है कि दिल्ली जैसी घनी आबादी वाले शहर से खुले इलाके का एक बहुत बड़ा हिस्सा ख़त्म हो जाएगा। नतीजतन, हवा में प्रदूषण का ख़तरा अब और बढ़ेगा। अजब विडम्बना है कि यमुना की खादर पर विकास और राष्ट्रीय सम्मान के नाम पर बेहद घनी आबादी की उस दिल्ली में अतिक्रमण का खेल चल रहा है, जहाँ खुले तटों की ज़रूरत ज्यादा है। इसके भावी संकेत यह भी हो सकते हैं कि कहीं एक दिन यमुना को पूरी तरह पाटकर समतल बना दिए जाने की ही कोई योजना न सामने आ जाए।
विकास की आधुनिक सोच के पंडित ख़ुशहाली का रास्ता जिस तरह 'नदी जोड़ो' जैसी योजनाओं में देख रहे हैं, उसके चलते नाला बन चुकी यमुना की राह नदियों को जोड़ने के क्रम में सचमुच बदलकर दिल्ली से उसका वजूद ही मिटा दिया जाए तो सचमुच कोई बहुत आश्चर्य नहीं होना चाहिए? भविष्य की पीढ़ियाँ अस्तित्व के संकट से जूझने को अभिशप्त हों तो अपनी बला से! अभी हाल तो हमें अपनी तकनीकी उपलब्धियों पर इतना भरोसा हो चला है कि नदी की धारा बदल देने, उसके तटों को पाटकर वहाँ बहुमंजिला इमारतें खड़ी कर देने में ही विकास और समॄध्दि के सूत्र दिखाई दे रहे हैं। लेकिन शायद यह हम भूल रहे हैं कि प्रकृति के नियमों में किंचित भी फेरबदल कर सकने की बिसात आदमी में नहीं हैं। आख़िर हम उत्पाद तो प्रकृति के ही हैं, तो प्रकृति पर भारी पड़ने का मुग़ालता अंतत: हम पर ही भारी पड़ेगा। नदी प्रकृति की महान निर्मितियों में से एक है। नदी के स्वरूप में इतना बड़ा परिवर्तन कोई गङ्ढा खोदने-पाटने जैसी छोटी-मोटी परिघटना नहीं है कि इसके परिणामों की अनदेखी कर दी जाए। प्रकृति की बड़ी संरचनाओं के साथ छेड़छाड़ के परिणाम भी बड़े ही होंगे। धरती की हरियाली की अहमियत हमने कम की, हवा में ज़हर घोला तो उसके दुष्प्रभावों के तौर पर प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, जीव-जन्तुओं की तमाम प्रजातियों पर मँडरा रहे ख़तरे का सामना तमाम वैज्ञानिक-तकनीकी उपलब्धियों के बाद भी सारी दुनिया को करना ही पड़ रहा है। ऐसे में दिल्ली में यमुना के तटों पर बड़ी-बड़ी इमारतों का जाल खड़ा कर देने का प्रकृति विरोधी काम भी किसी भी ख़तरे को आमंत्रित कर दे, तो ताज्ज़ुब की बात न होगी। जगह-जगह बंधी हुई यमुना दिल्ली में नाला जैसी हो गई है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि भविष्य में इसमें कभी पानी नहीं उफनेगा। बरसात या पिघलते ग्लेशियरों ने कभी बाढ़ की स्थिति पैदा की अथवा टिहरी जैसे बाँधों की दीवारें - भगवान न करे - कभी दरक गईं तो उफनता पानी यमुना का तल तलाश ही लेगा और तब उसके जल अधिग्रहण क्षेत्र में खड़ी बहुमंजिली इमारतों का क्या हाल होगा, यह सोच लेना भर रोंगटे खड़े करने को काफ़ी है। ख़तरा भूकंप का भी है। दिल्ली सिस्मिक जोन चार में आता है। यानी भूकंप के बड़े ख़तरे यहाँ की धरती ने अपने गर्भ में छुपा रखे हैं। उसमें भी यमुना के तटों पर ख़तरा अन्य जगहों की तुलना में ज्यादा ही है। ऐसे में भूकंप की स्थितियों में विनाश का शिकार भी यमुना का तट ही ज्यादा होगा। प्रकृति के शायद ये संकेत हैं कि उसने आदमी के स्थायी निवास न बन लायक़ ख़तरे की जगहों पर नदी, पहाड़, समंदर बना रखे हैं, ताकि वहाँ आबादी की स्थितियाँ कम बनें या न बनें; पर आदमी प्रकृति के संकेत समझने से इनकार कर दे तो दैवी आपदाओं में दोष किसका?
यमुना के शीलहरण की दरअसल यह 'रियल स्टेट' कहानी है। रियल स्टेट के बड़े-बड़े खिलाड़ियों, बिल्डर माफियाओं की निगाहें अब यमुना के खुले तटों पर ही लगी हैं। दिन-दिन फैलती दिल्ली में घटती ज़मीनों ने मुनाफ़े के कारोबारियों को यमुना के किनारे के दस हज़ार हेक्टेयर खाली इलाके में अकूत पैसा बनाने की संभावना दिखा दी है। राष्ट्रीय सम्मान के राष्ट्रमंडल खेलों को तो असल में क़ब्ज़े की शुरुआत के लिए एक बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। इसका प्रमाण यह भी है कि खेल ख़त्म होने के बाद इसके निर्माणों को बड़े पैमाने पर बेचने की योजना अभी से बना ली गई है। बड़ी संख्या में बने फ्लैट दो-दो करोड़ में बिकेंगे। 'राष्ट्रीय सम्मान' का शोर मचाकर तमाम विरोधों के बावजूद सौ एकड़ के तट पर डीडीए के क़ाबिज़ होने की प्रक्रिया पूरी होने को है। यहाँ रिहायशी और व्यावसायिक इमारतें बनेंगी। पर्यावरण और वन मंत्रालय पर दबाव डालकर 'पर्यावरण स्वीकृति' भी प्राप्त कर ली गई है। भले ही मंत्रालय ने यमुना तट की स्थितियों के मद्देनज़र सिर्फ़ अस्थायी निर्माण की स्वीकृति दी हो, पर सत्ता-तंत्र का मिज़ाज पहचानें तो साफ़ कहा जा सकता है कि खेल ख़त्म होते ही अस्थायी को स्थायी में बदलते देर न लगेगी। मज़े की बात यह है कि इस सारे निर्माण में प्राइवेट बिल्डरों की सबसे बड़ी भूमिका रहेगी। मतलब, खेल के बहाने मुनाफ़े का खेल। आम आदमी की इसमें भी कोई जगह नहीं। असल में विकास के नाम पर हर तरह के खेल-तमाशे में 80 फ़ीसद उस आबादी की नियति में तो त्रासदी भोगना ही बदा है जो जल-जंगल-ज़मीन का सिर्फ़ ज़रूरत भर को इस्तेमाल करके अपनी ज़िन्दगी गुज़ार रहा है।
कहने को सरकारी ऐलान यही है कि यमुना को बरबाद नहीं होने दिया जाएगा, बल्कि राष्ट्रमंडल खेलों के चलते उसका कायाकल्प कर दिया जाएगा। 3150 करोड़ रुपए की योजना सिर्फ यमुना की साफ़-सफ़ाई के लिए तैयार की गई है। यमुना के किनारों के लिए बनी योजनाओं से पूर्वी और मध्य दिल्ली का हुलिया तक बदल देने की बात कही जा रही है। डीडीए ने यमुना की अभी तक किसी भी तरह की छेड़छाड़ से बच गई 7300 हेक्टेयर ज़मीन का कायाकल्प करने की घोषणा की है। इसमें से 85 फ़ीसद ज़मीन मनोरंजन गतिविधियों के काम में ली जाएगी। इसके तहत पार्क, वाटर स्पोट्र्स, पक्षी अभ्यारण्य, हेरिटेज वॉक से लेकर फार्मूला वन रेसिंग कार के टैक वगैरह बनेंगे। वादा यह भी है कि यमुना किनारे पक्के निर्माण कम से कम किए जाएंगे।
यमुना को बचाने-सँवारने की सरकारी चिंता अगर असली हो तो कुछ राहत महसूस की जा सकती है, पर दुर्भाग्य से अब तक यमुना के कायाकल्प की जो भी सरकारी चिंताएं सामने आई हैं, उनके नतीजे उल्टे दुखी करने वाले ही रहे हैं। पिछले डेढ़ दशक में यमुना की सफ़ाई पर 1500 करोड़ रुपए से ज्यादा ख़र्च कर दिए गए, पर इस नदी में गंदगी की कालिमा बढ़ती ही रही। यमुना को बचाने की ढेर सारी आयोजनाओं का कुल नतीजा यह हुआ है कि 30 जगहों पर इस नदी का तट अब तक ख़त्म हो चुका है। ढेर सारी कोशिशों के बावजूद 22 नाले 3296 मिलियन गैलन लीटर गंदा पानी और औद्योगिक कचरा यमुना में दिन-रात उड़ेल ही रहे हैं, भले देश का 40 फ़ीसद सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट अकेले दिल्ली में ही हो।
इन हालात में समाज, संस्कृति और आबोहवा बचाए रखने के हामी लोग अगर चिंतित हो रहे हैं कि कहीं राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन यमुना के वजूद पर कहर बनकर न टूटे, तो स्वाभाविक ही है। त्रासदीपूर्ण स्थिति यह है कि तथाकथित विकास का कालिया नाग यमुना के सीने पर सवार है, और उसे नथ सकने की कूवत वाला कोई कृष्ण दूर-दूर तक नजर नहीं आता।
सन्त समीर
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