1993 में सरकार ने यमुना एक्शन प्लान की शुरुआत की। आंकड़े बताते हैं कि रिवर एक्शन प्लानों के तहत अब तक खर्च किए गए कुल 2,310 करोड़ रुपयों में से एक तिहाई केवल यमुना पर ही खर्च हुए हैं। इसमें से भी 71 फीसदी हिस्सा दिल्ली, गाज़ियाबाद, आगरा, फ़रीदाबाद, पानीपत और यमुनानगर जैसे छह शहरों के ऊपर ही खर्च हुआ। यह प्लान कागजी तौर पर तो बेहतरीन तरीके से बनाया गया लेकिन इसे हकीक़त में बदलने के लिये बेवकूफाना और अयोग्यता भरे तौर-तरीकों को अपनाया गया। दिल्ली में यमुना का पानी इस कदर मैला, प्रदूषित और सड़ांध भरा है कि प्लांट से सफाई के बाद भी इसे पीना तो दूर नहाने के लायक भी नहीं है। इस तथ्य की खबर के लिहाज से कोई कीमत नहीं है। खबर तो यह है कि यमुना की सफाई के नाम करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाये जा रहे हैं लेकिन नतीजा सिफर ही है। अनुमान है कि सात राज्यों से गुजरने वाली 1,376 किलोमीटर लंबी यमुना के लिए 2009 तक, जब यमुना एक्शन प्लान खत्म होगा, 1,356.05 करोड़ रुपये खर्च किये जा चुके होंगे। यानी प्रत्येक किलोमीटर के लिये लगभग एक करोड़ रुपये। इस रकम के अलावा राज्य सरकारें अपने-अपने यहां जो खर्च कर रही हैं, वह अलग है। इसके बावजूद यमुना जस की तस मैली है। चौंकाने वाली बात यह है कि वजीराबाद बैराज से दिल्ली में प्रवेश करते समय तो यमुना अपेक्षाकृत स्वच्छ होती है मगर शहर से गुजरकर आगे के सफर की शुरुआत तक यह सीवर में तब्दील हो चुकी होती है। यमुना पर यह सितम उस दिल्ली में हो रहा है, जहां की आबादी तो महज देश की कुल आबादी की 5 फीसदी है मगर देश के कुल सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों में तकरीबन 40 फीसदी यहीं है। इससे साफ है...सफाई के नाम पर फकत पैसे को यमुना में उड़लते रहने से बात नहीं बनेगी। हमें समस्या की तह तक जाना होगा, कुछ बातें समझनी-सीखनी होंगी और कुछ अलग अंदाज़ में चीजों को अंजाम देना होगा।
समस्या की तह तक जाने और समझने-सीखने के लिए हमें पहले इस बात पर नजर डालनी होगी कि अब तक इसकी सफाई के लिये क्या-क्या किया गया और इसमें कहां हमसे चूक हुई। तभी हम आगे के लिये अचूक योजनाएं बना सकेंगे और उन पर काम कर सकेंगे। पिछले 13 वर्षों में केंद्र और राज्य सरकारों ने इसकी सफाई के लिये बड़े पैमाने पर कवायद की। अब यह एक अलग मुद्दा है कि इस कवायद में से अधिकांश जनहित याचिकाओं पर कार्यवाई करने वाले कोर्ट के कोड़े की फटकार का ही नतीजा थी।
बहरहाल, 1993 में सरकार ने यमुना एक्शन प्लान की शुरुआत की। आंकड़े बताते हैं कि रिवर एक्शन प्लानों के तहत अब तक खर्च किए गए कुल 2,310 करोड़ रुपयों में से एक तिहाई केवल यमुना पर ही खर्च हुए हैं। इसमें से भी 71 फीसदी हिस्सा दिल्ली, गाज़ियाबाद, आगरा, फ़रीदाबाद, पानीपत और यमुनानगर जैसे छह शहरों के ऊपर ही खर्च हुआ। एक्शन प्लान के तहत सरकार का जोर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाने, सीवरेज सिस्टम के रखरखाव-मरम्मत, कम खर्चीले शौचालय बनाने और विद्युत शवदाह गृह बनाने पर था। यह प्लान कागजी तौर पर तो बेहतरीन तरीके से बनाया गया लेकिन इसे हकीक़त में बदलने के लिये बेवकूफाना और अयोग्यता भरे तौर-तरीकों को अपनाया गया। मसलन सीवेज के अंकगणित को न समझते हुए वॉटर प्लानिंग और वेस्ट प्लानिंग की गई। प्रदूषण स्तर बढ़ने के बावजूद किसी को भी पक्के तौर पर यही नहीं पता कि कितना पानी इस्तेमाल किया जा रहा है और कितना वेस्ट इससे पैदा हो रहा है। इसी तरह यह आंकड़े सही तरीके से नहीं जुटाए गए कि कितना वेस्ट मैटेरियल नालों और नदियों में बहाया जा रहा है। यही नहीं, कई जगहों पर सीवर लाइनें तो बिछा दी गईं लेकिन उन्हें घरों से जोड़ा ही नहीं गया। अवैध कॉलोनियों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों को इस प्लान में नज़रअंदाज़ किया गया। वर्षों पुराने प्रदूषण स्तर के लिहाज से बनाए गए ट्रीटमेंट प्लांट क्षमता के पैमाने पर भी फ्लॉप साबित हुए। अपशिष्ट पदार्थ के स्रोत से इन प्लांटों की दूरी ने भी ख़ासी दिक्कतें पैदा कीं। प्लांट से गुजरकर साफ हुए पानी के दोबारा इस्तेमाल के लिए भी कोई योजना नहीं बनाई गई।
इन्हीं बातों के चलते दिल्ली में यमुना साफ होने के बजाय दिन ब दिन और गंदी हो होती चली गई। लिहाजा अब हमें पुरानी ग़लतियों से सबक लेकर एक रिवाइवल एक्शन प्लान बनाना होगा, जो न सिर्फ लागत वसूली में कारगर हो बल्कि स्थानीयता को भी ध्यान में रखकर बनाया जाए। इस प्लान के तहत अपशिष्ट पदार्थ का ट्रीटमेंट स्रोत के नज़दीक ही करने का खास ख्याल रखा जाए। साथ ही, इसकी तकनीकी और प्रबंधन लागत भी कम रखने की कोशिश हो। इनके अलावा, प्लांट की क्षमता का अधिकतम दोहन, नालों की सफाई, ट्रीटमेंट के बाद पानी के दोबारा उपयोग की बेहतर योजना, निगरानी व्यवस्था और मानकों में सुधार और यमुना में अन्य स्रोतों की मदद से पानी के बहाव को बरकरार रखने जैसे कदमों का इस प्लान में हमें ध्यान रखना होगा।
दिल्ली में पानी की किल्लत से निपटने के नाम पर 2010 तक तकरीबन 10 हजार करोड़ खर्च किए जाने की योजना है। पानी का बढ़ता इस्तेमाल और इसके कारण बढ़ती अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा यमुना ही नहीं समूची राजधानी के लिए चुनौती है। इसका जवाब देने के लिए हमें दुनिया के बेहतरीन और अत्याधुनिक वेस्ट मैनेजमेंट सिस्टम की खोज करनी होगी। ताकि 2010 तक, जब हम आज की तुलना में कहीं ज्यादा पानी इस्तेमाल कर रहे होंगे तो भी, इस्तेमाल किए जाने वाले पानी की एक-एक बूंद को इस सिस्टम की मदद से हम दोबारा इस्तेमाल करने लायक बना सकें और वह भी उस कीमत पर, जिसे हर खासो-आम बेहिचक चुका सके।
समस्या की तह तक जाने और समझने-सीखने के लिए हमें पहले इस बात पर नजर डालनी होगी कि अब तक इसकी सफाई के लिये क्या-क्या किया गया और इसमें कहां हमसे चूक हुई। तभी हम आगे के लिये अचूक योजनाएं बना सकेंगे और उन पर काम कर सकेंगे। पिछले 13 वर्षों में केंद्र और राज्य सरकारों ने इसकी सफाई के लिये बड़े पैमाने पर कवायद की। अब यह एक अलग मुद्दा है कि इस कवायद में से अधिकांश जनहित याचिकाओं पर कार्यवाई करने वाले कोर्ट के कोड़े की फटकार का ही नतीजा थी।
बहरहाल, 1993 में सरकार ने यमुना एक्शन प्लान की शुरुआत की। आंकड़े बताते हैं कि रिवर एक्शन प्लानों के तहत अब तक खर्च किए गए कुल 2,310 करोड़ रुपयों में से एक तिहाई केवल यमुना पर ही खर्च हुए हैं। इसमें से भी 71 फीसदी हिस्सा दिल्ली, गाज़ियाबाद, आगरा, फ़रीदाबाद, पानीपत और यमुनानगर जैसे छह शहरों के ऊपर ही खर्च हुआ। एक्शन प्लान के तहत सरकार का जोर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाने, सीवरेज सिस्टम के रखरखाव-मरम्मत, कम खर्चीले शौचालय बनाने और विद्युत शवदाह गृह बनाने पर था। यह प्लान कागजी तौर पर तो बेहतरीन तरीके से बनाया गया लेकिन इसे हकीक़त में बदलने के लिये बेवकूफाना और अयोग्यता भरे तौर-तरीकों को अपनाया गया। मसलन सीवेज के अंकगणित को न समझते हुए वॉटर प्लानिंग और वेस्ट प्लानिंग की गई। प्रदूषण स्तर बढ़ने के बावजूद किसी को भी पक्के तौर पर यही नहीं पता कि कितना पानी इस्तेमाल किया जा रहा है और कितना वेस्ट इससे पैदा हो रहा है। इसी तरह यह आंकड़े सही तरीके से नहीं जुटाए गए कि कितना वेस्ट मैटेरियल नालों और नदियों में बहाया जा रहा है। यही नहीं, कई जगहों पर सीवर लाइनें तो बिछा दी गईं लेकिन उन्हें घरों से जोड़ा ही नहीं गया। अवैध कॉलोनियों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों को इस प्लान में नज़रअंदाज़ किया गया। वर्षों पुराने प्रदूषण स्तर के लिहाज से बनाए गए ट्रीटमेंट प्लांट क्षमता के पैमाने पर भी फ्लॉप साबित हुए। अपशिष्ट पदार्थ के स्रोत से इन प्लांटों की दूरी ने भी ख़ासी दिक्कतें पैदा कीं। प्लांट से गुजरकर साफ हुए पानी के दोबारा इस्तेमाल के लिए भी कोई योजना नहीं बनाई गई।
इन्हीं बातों के चलते दिल्ली में यमुना साफ होने के बजाय दिन ब दिन और गंदी हो होती चली गई। लिहाजा अब हमें पुरानी ग़लतियों से सबक लेकर एक रिवाइवल एक्शन प्लान बनाना होगा, जो न सिर्फ लागत वसूली में कारगर हो बल्कि स्थानीयता को भी ध्यान में रखकर बनाया जाए। इस प्लान के तहत अपशिष्ट पदार्थ का ट्रीटमेंट स्रोत के नज़दीक ही करने का खास ख्याल रखा जाए। साथ ही, इसकी तकनीकी और प्रबंधन लागत भी कम रखने की कोशिश हो। इनके अलावा, प्लांट की क्षमता का अधिकतम दोहन, नालों की सफाई, ट्रीटमेंट के बाद पानी के दोबारा उपयोग की बेहतर योजना, निगरानी व्यवस्था और मानकों में सुधार और यमुना में अन्य स्रोतों की मदद से पानी के बहाव को बरकरार रखने जैसे कदमों का इस प्लान में हमें ध्यान रखना होगा।
दिल्ली में पानी की किल्लत से निपटने के नाम पर 2010 तक तकरीबन 10 हजार करोड़ खर्च किए जाने की योजना है। पानी का बढ़ता इस्तेमाल और इसके कारण बढ़ती अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा यमुना ही नहीं समूची राजधानी के लिए चुनौती है। इसका जवाब देने के लिए हमें दुनिया के बेहतरीन और अत्याधुनिक वेस्ट मैनेजमेंट सिस्टम की खोज करनी होगी। ताकि 2010 तक, जब हम आज की तुलना में कहीं ज्यादा पानी इस्तेमाल कर रहे होंगे तो भी, इस्तेमाल किए जाने वाले पानी की एक-एक बूंद को इस सिस्टम की मदद से हम दोबारा इस्तेमाल करने लायक बना सकें और वह भी उस कीमत पर, जिसे हर खासो-आम बेहिचक चुका सके।
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