दिन-गुरुवार। तारीख-22 दिसंबर, 2011।
स्थान-नजफगढ़ का निराला विहार।
मौका-दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित द्वारा इंटरसेप्टर निर्माण कार्य का शुभारंभ।
इसका प्रतिरोध का आधार सिर्फ कोई आशंका या मनगढ़ंत बात नहीं, बल्कि तार्किक सत्य है। क्योंकि यमुना सिर्फ दिल्ली में गंदी नहीं होती।...क्योंकि दिल्ली की समस्या यह है कि यमुना उतराखण्ड और हरियाणा की गंदगी समेटते हुए दिल्ली में प्रवेश करती है। खासकर यमुना नगर, करनाल, पानीपत व सोनीपत का औद्योगिक व घरेलु कचरा। हम क्यों भूल जाते हैं कि नजफगढ़ नाला मूल रूप से मल ढोने वाला नाला नहीं है। यह तो अलवर से चलकर दिल्ली की यमुना में मिलने वाली साबी नदी है। हमने ही इसे सुखाकर कचरा ढोने वाली मालगाड़ी बनाया। आज यह दिल्ली के साथ-साथ कम से कम हरियाणा का कचरा तो यमुना में पहुंचा ही रही है। अतः उत्तराखण्ड व हरियाणा में यमुना के किनारों को प्रदूषण मुक्त किए बगैर दिल्ली छोड़ने से पहले यमुना की प्रदूषण मुक्ति के दावा करना जरा मुश्किल होगा। यदि इस बात का दावा भी करें कि इंटरसेप्टर बनने के बाद कम से कम दिल्ली से तो कोई प्रदूषण यमुना में नहीं जायेगा। इस दावे की पुष्टि के लिए सिर्फ इंटरसेप्टर निर्माण नाकाफी होगा। बिना भावी भार का आकलन किए बगैर बनाये गये शोधन संयंत्र एक दिन जवाब दे ही जाते हैं।
यह प्रणाली अवैज्ञानिक व अव्यावहारिक है कि पूरी दिल्ली की सारी गंदगी को पहले एक जगह एकत्र किया जाये; फिर उसे शोधित किया जाये। कचरे को ढोकर ले जाना सिद्धांततः अपराध है। वैज्ञानिक सिद्धांत है कि कचरे को उसके स्रोत पर ही शोधित किया जाये। इंटरसेप्टर व शोधन संयंत्र में मिलने से पूर्व ही ज्यादा से ज्यादा ठोस कचरे को अलग कर लिया जाये। कैंसर को उसकी जड़ पर ही रोकना पड़ता है। साइड इफेक्ट न्यूनतम हों इसका भी ध्यान रखना पड़ता है। अतः समग्र सोच व चौतरफा प्रयासों के बगैर किसी भी नदी को पूरी तरह प्रदूषण मुक्त करने का दावा करना बेमानी है। यमुना प्रदूषण मुक्ति हेतु सबसे पहला और आवश्यक कार्य है गाद निकासी। हर स्तर पर और पूरी ईमानदारी के साथ। अतः सुनिश्चित हो कि यमुना के दिल्ली प्रवेश बिंदु पर ही पीछे से आने वाली गाद की निकासी कर दी जाये।
दिल्ली के सभी मुख्य नालों से गाद निकासी का काम नियमित अंतराल के बाद हो ही। मुख्य नालों में मिलने से पहले मोहल्लों के नालों से लेकर छोटी से छोठी नाली तक में आने वाला कचरा पूरी तरह से निकाला ही जाये। इसके लिए किसी निगम पार्षद या विधायक के दौरे का इंतजार न हो। इसे व्यावहारिक बनाने के लिए सुनिश्चित करना होगा कि बड़े नालों से लेकर छोटी से छोटी नाली अतिक्रमण मुक्त हो। नालों पर रेहड़ी व स्थायी दुकानदारों का सामान के कब्जे हैं। नालियों पर बने स्थायी थड़े सफाई कर्मचारी के काम को मुश्किल बनाते हैं। नाली बनते वक्त हर बार इन्हें तोड़ा जाता है। लोग इन्हे पुनः बना लेते है। इस पर रोक लगाकर यदि नालियों को उठाऊ स्लैबस से ढकने की जिम्मेदारी नगर निगम/महानगर पालिका खुद निभायें। तब सफाई कर्मचारी के पास न बहाना होगा और न ही दिक्कत। इस काम को पूरी ईमानदारी से अंजाम देने के लिए जिम्मेदारी नागरिकों...मोहल्ला सुधार समितियों पर भी डाली जाये। निगम/पालिका के साथ मिलकर वे सुनिश्चित करें कि किसी घर का ठोस कचरा गली या नाली में जाने की बजाय सही जगह पर जाये। गाद निकासी नियमित तौर पर हो। घर के आगे थड़े बनाने की जिद किसी की भी पूरी न हो।
दिल्ली की यमुना के लिए दूसरी बडी चुनौती है-औद्योगिक कचरा। इन्हें हटाकर भले ही बवाना, ट्रोनिका या गुड़गांव में पलायित कर दिया गया हो। ज्यादातर उद्योगों का तरल कचरा म्युनिसपलिटी के नालों से होकर ही अभी भी यमुना में पहुंचता ही है। मात्रा में भले ही कम हो, किंतु जहर बूंद भर ही काफी होता है। अतः दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पास कोई विकल्प नहीं है कि वे उद्योगों को कहें कि वे कचरा मुक्ति करें या काम बंद करें। यमुना के लिए तीसरी चुनौती उस ठोस कचरे की है, जिसे न मल शोधन संयंत्र रोक सकता है और ना ही कोई गाद निकासी। अस्पताल, फैक्टरी, दुकानों व घरों का वह कचरा...जिसे ट्रकों में लादकर यमुना की जमीन पर डंप कर दिया जाता है; जिस पर आज दिल्ली परिवहन निगम का बस अड्डा बना दिया गया है; जो बारिश में बहकर तथा धरती की नसों में घुसकर पहले भूजल, फिर यमुना और अंततः हमारा ही नाश कर रहे हैं। इन्हे पूरी तरह रोकना होगा। किसी भी हालत में यह सुनिश्चित करना होगा कि यमुना की जमीन अब आगे डंप एरिया न बनने पाये।
यह नहीं चलेगा कि सरकारी अस्पताल इंसीनरेटर लगाकर औपचारिकता निभाते रहें और निजी इंसीनरेटर है। का कागज पूरा कर नियम को धता बताते रहें। खराब हो चुकी दवायें, इंजेक्शन, आपरेशन से अलग हुए बीमार सड़े-गले अंग, खून, पीप यमुना में जा ही रहे हैं। संक्रामक होने के कारण अस्पतालों को उनके ठोस कचरे को कहीं बाहर ले जाकर निपटाने की इजाजत भी नहीं दी जा सकती। सुनिश्चित हो कि वे अपना कचरा निपटान के लिए सक्षम तकनीक लगायें भी और उसकी पूरी क्षमता का उपयोग भी करें। हां! उद्योग, व्यवसाय व घरेलु ठोस कचरे के निपटान के लिए की अलग से लीकप्रुफ व विकेन्द्रित व्यवस्था करनी ही होगी। स्थान की कमी व लागत की अधिकता के मद्देनजर इन्हें एक व अनेक की उपयोगितानुसार अवश्य बनाना होगा।
यमुना की चौथी व एक अतिमहत्वपूर्ण चुनौती है कि दिल्ली यमुना के बहीखाते में डेबिट से ज्यादा पानी का क्रेडिट करें। ज्यादा नहीं, तो कम से कम दोनो में संतुलन तो हो। गंगा नहर से मिल रहे उधार के गंगाजल को शौच के कमोड में व्यर्थ न बहायें। यमुना का सीना चाक कर निकाले रैनीवैलों के पानी को पाइप लाईनों की टूट-फूट में तो बर्बाद न करें। नजफगढ़ नाले को वापस नदी बनायें। दिल्ली देहात में अभी भी मौजूद मुर्दा तालाबों -झीलों को जिंदा करें। पार्कों, उद्योग क्षेत्रों, सरकारी कार्यालय परिसरों आदि में वर्षाजल संचयन के सामुदायिक ढांचे बनें। निगम पार्षदों का बजट अच्छी-खासी सड़कों व नालियों पर परत-दर-परत कंक्रीट बिछाने की बेवकूफी करने की बजाय वर्षाजल संचयन के सामुदायिक ढांचों पर खर्च हों। सिर्फ ग्रिल व बेंच बदलने से कोई ग्राउंड समृद्ध नहीं होता, धरती को उसका पानी व हरियाली लौटाने से ही उसकी समृद्धि वापस आती है।
इंटरसेप्टर उक्त चारों चुनौतियों का समाधान नहीं करता। कहना न होगा कि मात्र इंटरसेप्टर बनाने, ग्रिल लगाने या झाड़ू लगाकर फोटो खिंचाने से नहीं, अपितु उक्त चार चुनौतियों के समाधान से ही मिलेगी दिल्ली की यमुना में नहाने की गारंटी। शर्त यह है कि यह सब सिर्फ सरकार को गाली देने से नहीं हो सकता। सोई हुई संवेदना वाले समाज को खुद जागना होगा। पानी को बिल के हिसाब से नहीं, न्यूनतम आवश्यकतानुसार अनुशासित उपयोग को अपनी आदत बनाना होगा। हर नई बसावट को कहना होगा कि हमें सीवेज पाइप लाइनें नहीं चाहिए। हम अपने घरेलु सेप्टिक टैंक बनाकर यमुना पहुँचने वाले कचरे की मात्रा में कमी लायेंगे। इससे हम सीवेज रखरखाव शुल्क के नाम पर वसूली जाने वाली बड़ी धनराशि तो बचायेंगे ही, खाद बेचकर पैसा भी कमायेंगे। आखिरकार पांच- दस वर्षों की प्राकृतिक प्रक्रिया के बाद मानव मल निर्मित होने वाली खाद अर्थ व उर्वरता बढ़ाने का बेशकीमती संसाधन जो है और नहीं तो कम से कम हमें यह तो याद रखना ही होगा कि यमुना हमारी मां है, कोई कूड़ादान नहीं।
स्थान-नजफगढ़ का निराला विहार।
मौका-दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित द्वारा इंटरसेप्टर निर्माण कार्य का शुभारंभ।
हर नई बसावट को कहना होगा कि हमें सीवेज पाइप लाइनें नहीं चाहिए। हम अपने घरेलु सेप्टिक टैंक बनाकर यमुना पहुँचने वाले कचरे की मात्रा में कमी लायेंगे। इससे हम सीवेज रखरखाव शुल्क के नाम पर वसूली जाने वाली बड़ी धनराशि तो बचायेंगे ही, खाद बेचकर पैसा भी कमायेंगे। आखिरकार पांच- दस वर्षों की प्राकृतिक प्रक्रिया के बाद मानव मल निर्मित होने वाली खाद अर्थ व उर्वरता बढ़ाने का बेशकीमती संसाधन जो है और नहीं तो कम से कम हमें यह तो याद रखना ही होगा कि यमुना हमारी मां है, कोई कूड़ादान नहीं।
‘इंटरसेप्टर’ यानी नदी के किनारे-किनारे नहरनुमा पक्की बनावट। नदी में सीधे जाने की बजाय अब नालों का पानी पहले इसी नहरनुमा बनावट से होकर गुजरेगा। मतलब इस बात की गारंटी होगी कि मल शोधन संयंत्र से गुजरे बिना कोई भी तरल कचरा अब सीधे यमुना नदी में नहीं जा सकेगा। अभी मल शोधन संयंत्र होने के बावजूद कई कच्चे-पक्के नाले/नालियां सीधे यमुना में जा रहे हैं। इस इंटरसेप्टर पर दो प्रमुख नालों के गंदे पानी का भार होगा शाहदरा व नजफगढ़। इस परियोजना पर 1978 करोड़ रुपये खर्च किए जाने का प्रस्ताव है। परियोजना के बहुत विवरण मैं नहीं जानता, बावजूद इसके मौलिक रूप से इस बहुप्रतीक्षित परियोजना का शुभारंभ स्वागत योग्य है किंतु सरकार का यह दावा कि इसके पूरा होने के बाद कम से कम दिल्ली की यमुना तो पूरी तरह प्रदूषण मुक्त हो जायेगी। यमुना का पानी दिल्लीवासियों के पीने लायक न सही, तो नहाने लायक तो हो ही जायेगा। इस झूठ का स्वागत नहीं किया जा सकता।इसका प्रतिरोध का आधार सिर्फ कोई आशंका या मनगढ़ंत बात नहीं, बल्कि तार्किक सत्य है। क्योंकि यमुना सिर्फ दिल्ली में गंदी नहीं होती।...क्योंकि दिल्ली की समस्या यह है कि यमुना उतराखण्ड और हरियाणा की गंदगी समेटते हुए दिल्ली में प्रवेश करती है। खासकर यमुना नगर, करनाल, पानीपत व सोनीपत का औद्योगिक व घरेलु कचरा। हम क्यों भूल जाते हैं कि नजफगढ़ नाला मूल रूप से मल ढोने वाला नाला नहीं है। यह तो अलवर से चलकर दिल्ली की यमुना में मिलने वाली साबी नदी है। हमने ही इसे सुखाकर कचरा ढोने वाली मालगाड़ी बनाया। आज यह दिल्ली के साथ-साथ कम से कम हरियाणा का कचरा तो यमुना में पहुंचा ही रही है। अतः उत्तराखण्ड व हरियाणा में यमुना के किनारों को प्रदूषण मुक्त किए बगैर दिल्ली छोड़ने से पहले यमुना की प्रदूषण मुक्ति के दावा करना जरा मुश्किल होगा। यदि इस बात का दावा भी करें कि इंटरसेप्टर बनने के बाद कम से कम दिल्ली से तो कोई प्रदूषण यमुना में नहीं जायेगा। इस दावे की पुष्टि के लिए सिर्फ इंटरसेप्टर निर्माण नाकाफी होगा। बिना भावी भार का आकलन किए बगैर बनाये गये शोधन संयंत्र एक दिन जवाब दे ही जाते हैं।
यह प्रणाली अवैज्ञानिक व अव्यावहारिक है कि पूरी दिल्ली की सारी गंदगी को पहले एक जगह एकत्र किया जाये; फिर उसे शोधित किया जाये। कचरे को ढोकर ले जाना सिद्धांततः अपराध है। वैज्ञानिक सिद्धांत है कि कचरे को उसके स्रोत पर ही शोधित किया जाये। इंटरसेप्टर व शोधन संयंत्र में मिलने से पूर्व ही ज्यादा से ज्यादा ठोस कचरे को अलग कर लिया जाये। कैंसर को उसकी जड़ पर ही रोकना पड़ता है। साइड इफेक्ट न्यूनतम हों इसका भी ध्यान रखना पड़ता है। अतः समग्र सोच व चौतरफा प्रयासों के बगैर किसी भी नदी को पूरी तरह प्रदूषण मुक्त करने का दावा करना बेमानी है। यमुना प्रदूषण मुक्ति हेतु सबसे पहला और आवश्यक कार्य है गाद निकासी। हर स्तर पर और पूरी ईमानदारी के साथ। अतः सुनिश्चित हो कि यमुना के दिल्ली प्रवेश बिंदु पर ही पीछे से आने वाली गाद की निकासी कर दी जाये।
दिल्ली के सभी मुख्य नालों से गाद निकासी का काम नियमित अंतराल के बाद हो ही। मुख्य नालों में मिलने से पहले मोहल्लों के नालों से लेकर छोटी से छोठी नाली तक में आने वाला कचरा पूरी तरह से निकाला ही जाये। इसके लिए किसी निगम पार्षद या विधायक के दौरे का इंतजार न हो। इसे व्यावहारिक बनाने के लिए सुनिश्चित करना होगा कि बड़े नालों से लेकर छोटी से छोटी नाली अतिक्रमण मुक्त हो। नालों पर रेहड़ी व स्थायी दुकानदारों का सामान के कब्जे हैं। नालियों पर बने स्थायी थड़े सफाई कर्मचारी के काम को मुश्किल बनाते हैं। नाली बनते वक्त हर बार इन्हें तोड़ा जाता है। लोग इन्हे पुनः बना लेते है। इस पर रोक लगाकर यदि नालियों को उठाऊ स्लैबस से ढकने की जिम्मेदारी नगर निगम/महानगर पालिका खुद निभायें। तब सफाई कर्मचारी के पास न बहाना होगा और न ही दिक्कत। इस काम को पूरी ईमानदारी से अंजाम देने के लिए जिम्मेदारी नागरिकों...मोहल्ला सुधार समितियों पर भी डाली जाये। निगम/पालिका के साथ मिलकर वे सुनिश्चित करें कि किसी घर का ठोस कचरा गली या नाली में जाने की बजाय सही जगह पर जाये। गाद निकासी नियमित तौर पर हो। घर के आगे थड़े बनाने की जिद किसी की भी पूरी न हो।
दिल्ली की यमुना के लिए दूसरी बडी चुनौती है-औद्योगिक कचरा। इन्हें हटाकर भले ही बवाना, ट्रोनिका या गुड़गांव में पलायित कर दिया गया हो। ज्यादातर उद्योगों का तरल कचरा म्युनिसपलिटी के नालों से होकर ही अभी भी यमुना में पहुंचता ही है। मात्रा में भले ही कम हो, किंतु जहर बूंद भर ही काफी होता है। अतः दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पास कोई विकल्प नहीं है कि वे उद्योगों को कहें कि वे कचरा मुक्ति करें या काम बंद करें। यमुना के लिए तीसरी चुनौती उस ठोस कचरे की है, जिसे न मल शोधन संयंत्र रोक सकता है और ना ही कोई गाद निकासी। अस्पताल, फैक्टरी, दुकानों व घरों का वह कचरा...जिसे ट्रकों में लादकर यमुना की जमीन पर डंप कर दिया जाता है; जिस पर आज दिल्ली परिवहन निगम का बस अड्डा बना दिया गया है; जो बारिश में बहकर तथा धरती की नसों में घुसकर पहले भूजल, फिर यमुना और अंततः हमारा ही नाश कर रहे हैं। इन्हे पूरी तरह रोकना होगा। किसी भी हालत में यह सुनिश्चित करना होगा कि यमुना की जमीन अब आगे डंप एरिया न बनने पाये।
यह नहीं चलेगा कि सरकारी अस्पताल इंसीनरेटर लगाकर औपचारिकता निभाते रहें और निजी इंसीनरेटर है। का कागज पूरा कर नियम को धता बताते रहें। खराब हो चुकी दवायें, इंजेक्शन, आपरेशन से अलग हुए बीमार सड़े-गले अंग, खून, पीप यमुना में जा ही रहे हैं। संक्रामक होने के कारण अस्पतालों को उनके ठोस कचरे को कहीं बाहर ले जाकर निपटाने की इजाजत भी नहीं दी जा सकती। सुनिश्चित हो कि वे अपना कचरा निपटान के लिए सक्षम तकनीक लगायें भी और उसकी पूरी क्षमता का उपयोग भी करें। हां! उद्योग, व्यवसाय व घरेलु ठोस कचरे के निपटान के लिए की अलग से लीकप्रुफ व विकेन्द्रित व्यवस्था करनी ही होगी। स्थान की कमी व लागत की अधिकता के मद्देनजर इन्हें एक व अनेक की उपयोगितानुसार अवश्य बनाना होगा।
यमुना की चौथी व एक अतिमहत्वपूर्ण चुनौती है कि दिल्ली यमुना के बहीखाते में डेबिट से ज्यादा पानी का क्रेडिट करें। ज्यादा नहीं, तो कम से कम दोनो में संतुलन तो हो। गंगा नहर से मिल रहे उधार के गंगाजल को शौच के कमोड में व्यर्थ न बहायें। यमुना का सीना चाक कर निकाले रैनीवैलों के पानी को पाइप लाईनों की टूट-फूट में तो बर्बाद न करें। नजफगढ़ नाले को वापस नदी बनायें। दिल्ली देहात में अभी भी मौजूद मुर्दा तालाबों -झीलों को जिंदा करें। पार्कों, उद्योग क्षेत्रों, सरकारी कार्यालय परिसरों आदि में वर्षाजल संचयन के सामुदायिक ढांचे बनें। निगम पार्षदों का बजट अच्छी-खासी सड़कों व नालियों पर परत-दर-परत कंक्रीट बिछाने की बेवकूफी करने की बजाय वर्षाजल संचयन के सामुदायिक ढांचों पर खर्च हों। सिर्फ ग्रिल व बेंच बदलने से कोई ग्राउंड समृद्ध नहीं होता, धरती को उसका पानी व हरियाली लौटाने से ही उसकी समृद्धि वापस आती है।
इंटरसेप्टर उक्त चारों चुनौतियों का समाधान नहीं करता। कहना न होगा कि मात्र इंटरसेप्टर बनाने, ग्रिल लगाने या झाड़ू लगाकर फोटो खिंचाने से नहीं, अपितु उक्त चार चुनौतियों के समाधान से ही मिलेगी दिल्ली की यमुना में नहाने की गारंटी। शर्त यह है कि यह सब सिर्फ सरकार को गाली देने से नहीं हो सकता। सोई हुई संवेदना वाले समाज को खुद जागना होगा। पानी को बिल के हिसाब से नहीं, न्यूनतम आवश्यकतानुसार अनुशासित उपयोग को अपनी आदत बनाना होगा। हर नई बसावट को कहना होगा कि हमें सीवेज पाइप लाइनें नहीं चाहिए। हम अपने घरेलु सेप्टिक टैंक बनाकर यमुना पहुँचने वाले कचरे की मात्रा में कमी लायेंगे। इससे हम सीवेज रखरखाव शुल्क के नाम पर वसूली जाने वाली बड़ी धनराशि तो बचायेंगे ही, खाद बेचकर पैसा भी कमायेंगे। आखिरकार पांच- दस वर्षों की प्राकृतिक प्रक्रिया के बाद मानव मल निर्मित होने वाली खाद अर्थ व उर्वरता बढ़ाने का बेशकीमती संसाधन जो है और नहीं तो कम से कम हमें यह तो याद रखना ही होगा कि यमुना हमारी मां है, कोई कूड़ादान नहीं।
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