यमुना: देव वाणी की चेतावनी सुनो

Yamuna
Yamuna

सूर्य यमुना के पिता हैं; यमराज भाई, ब्रह्म रचयिता और कृष्ण.. यमुना के पिया। यमुना की दुर्दशा देखा आहत् इन देव शक्तियों की वाणी चीख-चीख कर कुछ कह रही हैं। सुन सको, तो सुनो।

सूर्य: मानव! मूर्ख मानव !!

नहीं, नहीं तुम मानव तो हो नहीं सकते। तुम तो दानव हो; विनाश के ज्वालामुखी पर बैठे, क्रूर और अभिमान के मद में चूर दानव!

तुमने कभी सोचा, यमुना को मारकर...मिटाकर क्या तुम बच पाओगे? आज टीबी, कैंसर, दमे का संत्रास झेलते हो, क्या कल जन्मते ही मर नहीं जाओगे? क्या लालकिले की दीवारें तुम्हें चीख-चीखकर तबाह नहीं कर देंगी?

जरा सोचो, बार-बार सोचो! क्या कल को हरियाणा की समृद्धि बंजर नहीं हो जाएगी? दिन के उजाले में स्याह होती दिल्ली कल को क्या रेत के टीबों में बदल नहीं जाएगी?

मनाओ, कहां मनाओगे आजादी का जश्न? किसे कहोगे संगम? कहां लगेंगी स्नान की कतारें? भैया दूज पर किस बहन को पूजोगे तुम?

यमराज : सुनो, ध्यान से सुनो! यदि इंसानियत अभी जिंदा हो, तो सुनो!!

यमुना यदि मर गई, मिट गई तो तुम यमुना की हत्या नहीं करोगे; तुम सूर्य पुत्री की हत्या करोगे; भगवान कृष्ण के आधे अंग की स्वामिनी कृष्णा की हत्या करोगे। तुम मेरी बहन यमुना के हत्यारे कहलाओगे। यमराज की बहन के हत्यारे!!

याद रखो, तुम पर यमराज को प्राणों से प्रिय बहन यमी की हत्या का कलंक लगेगा और तुम उसे मिटा भी न सकोगे। यमराज के शिकंजे तुम्हें बहुत पहले ही अपने बाहुपाश में कस चुके होंगे। तुम बच न सकोगे।

सुनो, सुनो! यमराज का अट्टाहस सुनो। क्या तुम मुझे नहीं सुन रहे? सुनो। आज नहीं तो कल सुनना होगा। हाहाहा............. सुनो!

ब्रह्म : अब समय नहीं, पर सुनते जाओ।

मैं हूं शुभेच्छु तुम सबका।
वर्तमान तुम्हें ललकार रहा
जो बैठे मंडप तले यहां।
जिनमें पौरुष अभी बाकी हो,
उनका पौरुष जाने ये जहां।
बांधों नालो को खेतों तक,
बांधो उर्वरकों को फसलों तक।
बांधो, जो बांध सको तो आबादी,
रोको, जो रोक सको तो पलायन।
वरना तुम बच न पाओगे,
रोज पियोगे जहर का प्याला,
मर जाएंगे गर्भ के शिशु,
बच जाएंगे हो विकलांग,
फैली होगी मैली चादर
स्याह बनेंगे शहर श्मशान।

याद रखो, एक-एक तिनका जोड़कर बनाई रचना कहीं टूट न जाए। कहीं छूट न जाए मेहनत की रोटी। जरा सोचो, यदि स्वस्थ शरीर ही बीमार हो गया, तो बाकी कमाई क्या काम आएगी।

कृष्ण : मैं कृष्ण हूं; गीता का कृष्ण, महाभारत का कृष्ण! गोपिन का कृष्ण, मथुरा-वृंदावन का कृष्ण! अर्धांगिनी कृष्णा का कृष्ण!!

मैं सब देख रहा हूं; जीवन भी, मृत्यु भी; अर्थ भी, अनर्थ भी; न्याय भी, अन्याय भी। अर्धागिनी कृष्णा के.. यमुना के कष्ट भी, उपकार भी; मानव का स्वार्थ भी, स्वांग भी और संस्कार भी।

मैं देख रहा हूं कि तुम भूल चुके कि यमुना तुमको जल देती है, जीवन देती है। तुम भूल चुके, यमुना तुम को सेती है।

तुम यह भी भूल गए कि तुम्हारे प्रिय कृष्ण की अंर्धागिनी है, कृष्णा।

मैं सब देख रहा हूं। मैं कुछ नहीं भूला।

तुम मेरी कृष्णा के प्रवाह को खा गये। तुमने मेरी कृष्णा का श्रृंगार नष्ट कर दिया। चूस लिया तुमने कृष्णा का यौवन।

कृष्ण मित्र नहीं तुम। व्याभिचार के दोषी हो तुम। मेरी अर्धांगिनी का रोज चीर हरण करते हो तुम।

भूल गये, जब चीर लुटा द्रौपदी का? भूल गए तुम अंत क्रूर दु:शासन का।

अब और नहीं। अंतिम क्षण है यह। अब भी चेतो। वरना, कालचक्र जब घूमेगा, काल बचेगा, मृत्यु बचेगी और न कोई होगा। एक अकेला चक्र सुदर्शन काट रहा होगा मृत्यु की फसलें। यमराज अकेला पीता होगा खून। कृष्णा हित में अब तो प्रणलो, वरना हो जाओगे मौन।
 

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