यमुना अब नाला हो गई है

यमुना के पानी में अमोनिया की मात्रा इतनी अधिक हो गई है कि इसे साफ करना जलशोधक संयंत्रों के बस की बात भी नहीं रह गई है। यही नहीं अमोनिया के साथ अन्य घातक रसायन भी पानी में जहर घोल रहे हैं। दरअसल पिछले कई दशकों से औद्योगिकीकरण एवं शहरीकरण के कारण प्रमुख नदियों में प्रदूषण का स्तर बढ़ गया है।

नदियों की सफाई की बात आए दिन होती ही रहती है और उनकी सफाई पर करोड़ों रुपये खर्च भी होते हैं। इसके बावजूद आजतक नदियां साफ तो नहीं हो पाईं, लेकिन दिनों-दिन और गंदी जरूर होती जा रही हैं। उनमें प्रदूषण का आलम यह है कि नदियों का पानी पीने की बात तो छोड़िए, नहाने के योग्य भी नहीं रहा। यमुना की बात करें तो यह नदी हरियाणा तक तो अपने प्राकृतिक रूप में दिखाई देती है, लेकिन इसके बाद दिल्ली तक इसका रूप निरंतर विकृत होता चला जाता है। नदियों में प्रदूषण का मामला कई दशक पूर्व से जोर-शोर से उठ रहा है। 15 साल पहले केंद्रीय सरकार ने राष्ट्रीय नदी संरक्षण प्राधिकरण का गठन किया था, लेकिन सालों से इसकी संचालन समिति की कोई बैठक नहीं हुई, जबकि इसकी हर तीन महीने में बैठक होनी चाहिए। पिछले 10 सालों में 20 राज्यों की 38 प्रमुख नदियों के संरक्षण और उन्हें प्रदूषण मुक्त करने के नाम पर 26 अरब रुपये खर्च किए गए, लेकिन स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया। यमुना नदी की गंदगी दूर करने के लिए दिल्ली सरकार अब तक 4000 करोड़ रुपये से भी ज्यादा खर्च कर चुकी है, लेकिन इससे यमुना की गंदगी दूर करने वालों ने अपनी गंदगी भले ही दूर कर ली हो यमुना का प्रदूषण तो घटने के बजाय दिन पर दिन बढ़ा ही है।

सबसे चिंताजनक बात यह है कि यमुना के पानी में अमोनिया की मात्रा इतनी अधिक हो गई है कि इसे साफ करना जलशोधक संयंत्रों के बस की बात भी नहीं रह गई है। यही नहीं अमोनिया के साथ अन्य घातक रसायन भी पानी में जहर घोल रहे हैं। दरअसल पिछले कई दशकों से औद्योगिकीकरण एवं शहरीकरण के कारण प्रमुख नदियों में प्रदूषण का स्तर बढ़ गया है। सिंचाई, पीने के पानी, बिजली तथा अन्य उद्देश्यों के लिए पानी के अंधाधुंध इस्तेमाल से चुनौती काफी बढ़ गई है। नदियां नगर निगमों के शोधित एवं अपशिष्ट एवं औद्योगिक कचरे से प्रदूषित होती हैं। सभी बड़े एवं मझोले उद्योगों ने तरल अपशिष्ट शोधन संयंत्र लगा रखे हैं और वे सामान्यत: जैव रसायन ऑक्सीजन रसायन मांग (बीओडी) के निर्धारित मानकों का पालन करते हैं। हालांकि कई औद्योगिक क्षेत्र देश के कई हिस्सों में प्रदूषण को काफी बढ़ा देते हैं। प्रदूषकों की उपस्थिति के आधार पर प्रमुख रूप से तीन प्रकार का प्रदूषण होता है-वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण।

जल प्रदूषण अपशिष्टों के सीधे जल में मिलने के कारण भी होता है और वायुमंडल में उपस्थित प्रदूषण के कारण वर्षा के द्वारा भी। नगर निगम अपशिष्ट के मामले में ऐसा अनुमान है कि प्रथम श्रेणी के शहर (423) और द्वितीय श्रेणी के शहर (449) प्रतिदिन 3,30,000 लाख लीटर तरल अपशिष्ट उत्सर्जित करते हैं, जबकि देश में प्रतिदिन तरल अपशिष्ट शोधन की क्षमता 70,000 लाख लीटर है। अपशिष्ट पदार्थों के शोधन का काम संबंधित नगर निगमों का होता है। जब तक ये निगम प्रशासन पूर्ण क्षमता तक अपशिष्टों का शोधन नहीं कर लेते तब तक डीओबी की समस्या का समाधान नहीं हो सकता। पिछले दिनों मैगसेसे पुरस्कार विजेता राजेंद्र सिंह ने जल के महत्व पर बोलते हुए चेतावनी दी थी कि यदि हालात न बदले तो अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए ही होगा। इसलिए हमारे राजनीतिज्ञों को पानी बचाने और नदियों को पुनर्जीवित करने पर ध्यान देना चाहिए। गंगा-यमुना बचाओ को सिर्फ सरकारी ढकोसला बताते हुए उन्होंने कहा कि इन नदियों की सेवा मां के भाव से करने की जरूरत है।

यमुना नदी से नाला बन गई हैयमुना नदी से नाला बन गई हैआदिकाल से गंगा-यमुना को हम मां कहकर पुकारते आए हैं, लिहाजा इससे बेटे के तौर पर ही जुड़ना होगा। गंगा और यमुना की सफाई के लिए हमें इसके दर्शन और दृष्टि को समझने की जरूरत है। उन्होंने नीर, नारी और नदी के सम्मान को ही विकास का मूल मंत्र बताया। यमुना में आज दिल्ली के बाद हमें जो पानी दिखाई देता है वह पानी नहीं, बल्कि सीवर की गंदगी है। यमुना से करोड़ों लोगों की आस्था जुड़ी है। यमुना में स्नान या आचमन करना तो दूर कृषि कार्य योग्य पानी भी नहीं बचा है। इसके लिए जरूरी है कि दिल्ली और हरियाणा का औद्योगिक कचरा, सीवर की गंदगी और नालों का यमुना में गिरना बंद हो। संतों, बुद्धिजीवियों, किसानों, महिलाओं व अन्यों द्वारा पूर्ण मनोयोग से विगत माह इलाहाबाद के संगम से शुरू किया गया यमुना बचाओ आंदोलन हमें आशा की किरण दिखाता है। यमुना का प्राकृतिक स्वरूप हमें फिर देखने को मिले, यही आशा है। इन प्रतिष्ठित लोगों ने अपनी पद यात्राओं से लेकर यमुना को स्वच्छ रखने के लिए प्रतिज्ञाएं और आमरण अनशन तक चलाया, यह निश्चय ही सराहनीय कदम है। इसकी जितनी प्रशंसा की जाए उतनी ही कम है। पहली बार देखने में आया है कि संत और किसान किसी समस्या के समाधान के लिए एकजुट होकर सड़कों पर निकले। जल है तो हमारा कल है। जल के बिना सब कुछ शून्य है। भले ही यह देर से उठाया कदम था, लेकिन यह भविष्य के लिए निश्चय ही मील का पत्थर साबित होगा।
 

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