यजुर्वेद संहिता के दूसरे अध्याय के मन्त्र 34 – ‘आपो देवता’ के ऋषि प्रजापति और छन्दः भुरिक् उष्णिक् है।
मन्त्रः
(65) ऊर्जं वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिस्त्रुतम्।
स्वधा स्थ तर्पयत मे पितृन।।34।।
हे जल समूह! अन्न, घृत, दूध तथा फूलों-फलों में आप ‘रस रूप’ में विद्यमान हैं। अतः अमृत के समान सेवनीय तथा धारक शक्ति बढ़ाने वाले हैं। इसलिए हमारे पितृगणों को तृप्त करें।।34।।
यजुर्वेद संहिता के चौथे अध्याय के मन्त्र-12 के ऋषिः अंगरिस् तथा छन्दः – भुरिक् ब्राह्मी अनुष्टुप् है।(140) श्वात्राः पीता भवत यूयमापो अस्माकमन्तरुदरे सुशेवाः।
ता S अस्मभ्यमयक्ष्मा S अनमीवा S अनागसः स्वदन्तु देवीरमृता S ऋतावृधः।।12।।
हे जल! दुग्ध रूप में हमारे द्वारा सेवन किये गये आप, शीघ्र ही पच जायें। पिये जाने के बाद हमारे पेट में आप सुखकारी हों। ये जल राजरोग से रहित, सामान्य बाधाओं को दूर करने वाले, अपराधों को दूर करने वाले, यज्ञों में सहायक, अमृत स्वरूप, दिव्य गुण से युक्त, हमारे लिए स्वादिष्ट हों।
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