वर्ष-2015, भारत के लिये सूखा वर्ष है या बाढ़ वर्ष?
बाढ़ और सुखाड़ के दुष्प्रभावों के बढ़ाने में इंसानी हाथ को लेकर एक पहलू और है। घोषणा चाहे बाढ़ की हो या सुखाड़ की, तद्नुसार अपनी फसलों और किस्मों में बदलाव की सावधानी अभी ज्यादातर भारतीय किसानों की आदत नहीं बनी है। सुखद है कि पंजाब ने धान की एक तरफा रोपाई की जगह विविध फसल बोने का निर्णय लिया है। किन्तु कम वर्षा की घोषणा बावजूद, उत्तर प्रदेश और बिहार के किसानों ने इस वर्ष की धान की रोपाई में कोई कमी नहीं की। इस प्रश्न का कोई एक उत्तर नहीं हो सकता। अब तक हुई बारिश और आई बाढ़ के आधार पर एक भारतीय इसे ‘सूखा वर्ष’ कह रहा है, तो दूसरा ‘बाढ़ वर्ष’? एक जून, 2015 से 10 अगस्त, 2015 तक के आँकड़ों के मुताबिक देश के 355 जिलों में सामान्य से अधिक और 258 में सामान्य से कम बारिश हुई है। इस आधार पर वर्ष 2015 भारत के लिये अधिक वर्षा वर्ष है। एक जून से अगस्त प्रथम सप्ताह तक का राष्ट्रीय औसत देखें, तो वर्षा दीर्घावधि औसत से छह फीसदी कम रही। तय मानकों के मुताबिक, इसे आप सामान्य वर्षा की श्रेणी रख सकते हैं। इस आधार पर यह सामान्य वर्षा वर्ष है।
ग़ौरतलब है कि 1951-2000 का दीर्घावधि औसत 89 सेंटीमीटर है। किसी भी मानसून काल में यदि औसत, दीर्घावधि औसत का 96 से 104 फीसदी हो, तो सामान्य माना जाता है। यदि यह 90 से 96 फीसदी हो, तो सामान्य से कम और 90 फीसदी से कम हो, तो सूखे की स्थिति मानी जाती है और यदि यह 104 से 110 फीसदी हो, तो सामान्य से अधिक वर्षा मानी जाती है। 110 फीसदी से अधिक होने पर इसे अत्यधिक वर्षा की श्रेणी में माना जाता है।
खैर, वर्ष 2015 की वर्षा श्रेणी को लेकर उहापोह कई जगह बरकरार है। यह स्वाभाविक ही है। अब तक वर्षा में दीर्घावधि औसत से 21 प्रतिशत कम वर्षा के कारण दक्षिण भारत के मराठवाड़ा, तेलंगाना, उत्तर कर्नाटक और रायलसीमा वासी इसे सूखा वर्ष कहेंगे ही। यह कमी छोटी नहीं है। आन्ध्र के 38 मण्डलों से हैदराबाद, चेन्नई और दूसरे स्थानों के लिये मज़दूरों का पलायन शुरू हो चुका है।
भारतीय मौसम विभाग द्वारा जारी नक्शे के मुताबिक कच्छ और सौराष्ट्र के हिस्से को छोड़ दें, तो गुजरात के लिये यह सामान्य वर्ष है। हिमाचल के ठंडे मरुस्थली लाहौल-स्पीति जिले के लिये यह सूखा वर्ष है, तो शेष जिलों के लिये सामान्य वर्ष। दीव-दमन, उड़ीसा और मणिपुर के लिये भी वर्षा-2015, न सूखा वर्ष है और न बाढ़ वर्ष।
हालांकि पाँच अगस्त के बाद से बारिश का रुख उत्तर भारत और उत्तर भारत में खासकर, हिमालय की तराई वाले इलाकों में मुड़ने की सम्भावना जताई गई थी; बावजूद इसके फिलहाल पंजाब, चण्डीगढ़, उत्तराखण्ड, पूर्वी-पश्चिमी उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, पूर्वी मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, विदर्भ, मध्य महाराष्ट्र, तटीय आन्ध्र प्रदेश, दक्षिण कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु तथा पुद्दुचेरी में सामान्य से कम वर्षा हुई। दिल्ली में रोज थोड़ी-बहुत बारिश हो रही है, किन्तु नक्शे के मुताबिक फिलहाल यहाँ भी कुल वर्षा औसत सामान्य से कम ही है।
अब तक हुई अतिवृष्टि के कारण जम्मू-कश्मीर, पूर्वी व पश्चिमी राजस्थान, कच्छ-सौराष्ट्र, पश्चिमी मध्य प्रदेश, झारखण्ड और सबसे अधिक पश्चिम बंगाल के लिये यह बाढ़ वर्ष ही है। अब तक कम वर्षा के बावजूद नौ जून, 2015 को असम प्रदेश के नौ जिलों में बाढ़ के कारण असमवासियों के लिये भी यह बाढ़ वर्ष है।
वर्ष 2015 का ही नहीं, यदि हम पिछले कुछ वर्षों का वर्षा वितरण देखें, तो स्पष्ट है कि ‘यहं सूखा, वहं बाढ़’ का यह नजारा अब हर साल दोहराया जाने वाला है। यह अब कभी भी और कहीं भी होगा। जहाँ कभी बाढ़ नहीं आई, वहाँ बाढ़ आने से इंकार नहीं किया जा सकेगा और जहाँ कभी सूखा नहीं पड़ा, वहाँ सूखा पड़ने से इंकार करना जोखिम भरा होगा।
निस्सन्देह, इसका एक कारण जलवायु परिवर्तन भी है। वर्षों पर एक शोध में कहा गया कि ग्लेशियरों के अत्यधिक पिघलने के कारण दक्षिणी धुव्र में पानी का भार बढ़ रहा है। लिहाजा, पृथ्वी के झुकाव में कोणीय परिवर्तन आया है। इस कारण, सहारा के मरुस्थल में हरियाली लौटेगी। भारत के पूर्वी भागों में वर्षा घटेगी और पश्चिमी भागों में वर्षा बढ़ेगी।
इस बार कहा जा रहा है कि ‘कोमेन’ नामक चक्रवात के कारण पश्चिम बंगाल को अधिक वर्षा और बाढ़; की तबाही झेलनी पड़ी। लद्दाख और मनाली की बाढ़ को बादल फटने का नतीजा बताया गया। यह सत्य हो सकता है, किन्तु इस अनिश्चितता को हम सिर्फ जलवायु परिवर्तन, कोमेन, अलनीनो, लानीनो या फिर पृथ्वी के धुव्रीय झुकाव का असर कहकर हाथ पर हाथ धरे नहीं रह सकते।
सूखे के बावजूद असम में बाढ़ बताती है कि बढ़ी बाढ़ के कारण मानवजनित भी है।
विशेषज्ञों के मुताबिक, अधिक जल भण्डारण क्षमता होने के बावजूद दामोदर बाँध से ऐसे मौके पर एक साथ अधिक पानी छोड़ा गया। बाढ़ के मौके पर इस छोड़े गए पानी ने हालात और खराब किये। पश्चिम बंगाल में अभी तक 13 जिलों के 222 ब्लॉकों के 51 लाख से अधिक आबादी के दुष्प्रभावित होने की खबर है। करीब पाँच लाख हेक्टेयर फसल पूरी तरह नष्ट हो गई है।
इससे उलट जिला खरगोन, म.प्र. के अपर बेदा बाँध में कई दिनों तक पानी भरे रहने से उलटे लौटे पानी के कारण आदिवासियों को घर बाढ़ में डूबने की खबर है। इसी तरह बढ़ी ऊँचाई के कारण, सरदार सरोवर से पलटकर लौटे पानी में 214 किलोमीटर क्षेत्र के 245 गाँवों के बाढ़ ग्रस्त होने की खबर है। दुखद है कि बावजूद इसके सरदार सरोवर बाँध की ऊँचाई बढ़ाने का काम जारी है। जाहिर है कि विरोध होगा ही। यही आशंका गुजरात की तापी नदी स्थित उकाई बाँध की ऊँचाई बढ़ाने को व्यक्त की जा रही है। इसमें जलवायु परिवर्तन का कोई हाथ नहीं।
बाढ़ और सुखाड़ के दुष्प्रभावों के बढ़ाने में इंसानी हाथ को लेकर एक पहलू और है। घोषणा चाहे बाढ़ की हो या सुखाड़ की, तद्नुसार अपनी फसलों और किस्मों में बदलाव की सावधानी अभी ज्यादातर भारतीय किसानों की आदत नहीं बनी है। सुखद है कि पंजाब ने धान की एक तरफा रोपाई की जगह विविध फसल बोने का निर्णय लिया है। किन्तु कम वर्षा की घोषणा बावजूद, उत्तर प्रदेश और बिहार के किसानों ने इस वर्ष की धान की रोपाई में कोई कमी नहीं की।
कर्नाटक और महाराष्ट्र के गन्ना किसानों ने गन्ना बोआई का रकबा कम करने की सीख को अनसुना किया। अब ऐसे में धान बेपानी सूख जाये या फिर गन्ना सिंचाई के अतिरिक्त खर्च के कारण मुनाफा कम हो, तो दोष किसे दें?
स्वयं भारतीय मौसम विज्ञान की क्षमता को भी सुधार की जरूरत है। भारत के लिये अतिवृष्टि वर्ष होगा या अनावृष्टि वर्ष? आपको यह जानकर निराशा होगी कि इस प्रश्न के उत्तर हेतु किये गए ताजा भारतीय वैज्ञानिक आकलनों में ही भिन्नता है। गौर कीजिए कि पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने मौसम विभाग ने 22 अप्रैल, 2015 को अपनी पहली भविष्यवाणी की। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने स्वयं प्रेसवार्ता कर मीडिया को इसकी जानकारी दी। तद्नुसार इस वर्षा काल में भारत का राष्ट्रीय वर्षा औसत, दीर्घावधि वर्षा औसत का 93 फीसदी रहने का अनुमान पेश किया गया।
कहा गया कि इसमें आँकड़ा पाँच फीसदी ऊपर-नीचे हो सकता है। जून, 2015 में अन्य एजेंसियों का आकलन आया, तो वैज्ञानिक आकलन में भिन्नता और मुखर हुई। सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज, पुणे ने वर्षा औसत के दीर्घावधि औसत का 84 फीसदी रहने की घोषणा कर होश उड़ा दिये।
पाँच प्रतिशत ऊपर-नीचे होने की सम्भावना के साथ बंगलुरु स्थित सेंटर फॉर डिजास्टर मिटिगेशन, जैन यूनिवर्सिटी ने 113 फीसदी, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मैट्रोलॉजी, पुणे ने 91 फीसदी और अहमदाबाद स्थित स्पेश एप्लीकेशन सेंटर ने 100 फीसदी वर्षा औसत की भाविष्यवाणी पेश की।
निजी क्षेत्र के सबसे बड़े तंत्र वाले मौसम आकलनकर्ता स्काईमेट ने औसत के 102 फीसदी रहने की घोषणा के साथ कहा कि अधिक वर्षा की सम्भावना 10 प्रतिशत है, तो सूखे की सम्भावना अत्यन्त कम है। कहा कि अरब सागर का तापमान सामान्य है। अतः भारतीय नीनो सकारात्मक दिखाई दे रहा है। यह अलनीनो के दुष्प्रभाव को कम करने में सहायक होगा।
दावा किया कि यह 98 फीसदी से कम तो किसी हालत में नहीं होगा। दूसरी ओर उसने मानसून के वर्ष 2013 जैसा होने का दावा किया। गौर कीजिए कि वर्ष 2013 में भारत में वर्षा औसत 106 फीसदी था; जिसे काफी अच्छी वर्षा कहा जा सकता है।
दिलचस्प है कि वर्ष 2015 मानसून को लेकर अभी तक नक्षत्र गणना आधारित पंचागों का आकलन, 140 वर्ष पुराने भारतीय मौसम विभाग तथा अन्य वैज्ञानिक संस्थानों की तुलना में ज्यादा सटीक साबित हुआ है। अद्रा, अनुराधा नक्षत्र की तथा राहु, केतु, सूर्य, चन्द्र, मंगल, वृश्चिक, शनि आदि स्थिति व गति के आधार पर गणना करने वाले पंचांग उठाकर देखें। स्पष्ट लिखा है कि वर्षा सामान्य होगी, किन्तु वितरण सामान्य नहीं होगा। अतः भारत के कुछ भागों में बाढ़, तो कुछ में सूखे के हालात बनेंगे।
इन भिन्न आकलनों और परिदृश्यों से स्पष्ट है कि मौसम की भविष्यवाणी को सटीक बनाने के क्षेत्र में अभी भारत मौसम वैज्ञानिकों को काफी सुधार करना है; कई गुना बेहतर क्षमता हासिल करनी है। भारत सरकार ने अमेरिका के साझे से इस पर काम करना शुरू कर दिया है। नेशनल मानसून मिशन भी बनाया है। किन्तु अभी कुशलतम का लक्ष्य हासिल करना बाकी है।
बाँध प्रबन्धकों को समझना बाकी है कि कब, कितना और किन एहतियात के साथ पानी छोड़ा जाये; कहाँ और कैसा बाँध हो; बाँध हो या न हो। किसानों को समझना बाकी है कि मौसम आने-जाने की अवधि, न्यूनता, अधिकता बदल रही है, तो हम फसल चक्र और चुनाव में बदलाव की सीख को स्वीकार करें। दुआ कीजिए कि भारतीय किसान, वैज्ञानिक, इंजीनियर और प्रबन्धन जगत में यह समझ, सर्तकता, संवेदना और जवाबदेही यथाशीघ्र विकसित हो।
बाढ़ और सुखाड़ के दुष्प्रभावों के बढ़ाने में इंसानी हाथ को लेकर एक पहलू और है। घोषणा चाहे बाढ़ की हो या सुखाड़ की, तद्नुसार अपनी फसलों और किस्मों में बदलाव की सावधानी अभी ज्यादातर भारतीय किसानों की आदत नहीं बनी है। सुखद है कि पंजाब ने धान की एक तरफा रोपाई की जगह विविध फसल बोने का निर्णय लिया है। किन्तु कम वर्षा की घोषणा बावजूद, उत्तर प्रदेश और बिहार के किसानों ने इस वर्ष की धान की रोपाई में कोई कमी नहीं की। इस प्रश्न का कोई एक उत्तर नहीं हो सकता। अब तक हुई बारिश और आई बाढ़ के आधार पर एक भारतीय इसे ‘सूखा वर्ष’ कह रहा है, तो दूसरा ‘बाढ़ वर्ष’? एक जून, 2015 से 10 अगस्त, 2015 तक के आँकड़ों के मुताबिक देश के 355 जिलों में सामान्य से अधिक और 258 में सामान्य से कम बारिश हुई है। इस आधार पर वर्ष 2015 भारत के लिये अधिक वर्षा वर्ष है। एक जून से अगस्त प्रथम सप्ताह तक का राष्ट्रीय औसत देखें, तो वर्षा दीर्घावधि औसत से छह फीसदी कम रही। तय मानकों के मुताबिक, इसे आप सामान्य वर्षा की श्रेणी रख सकते हैं। इस आधार पर यह सामान्य वर्षा वर्ष है।
ग़ौरतलब है कि 1951-2000 का दीर्घावधि औसत 89 सेंटीमीटर है। किसी भी मानसून काल में यदि औसत, दीर्घावधि औसत का 96 से 104 फीसदी हो, तो सामान्य माना जाता है। यदि यह 90 से 96 फीसदी हो, तो सामान्य से कम और 90 फीसदी से कम हो, तो सूखे की स्थिति मानी जाती है और यदि यह 104 से 110 फीसदी हो, तो सामान्य से अधिक वर्षा मानी जाती है। 110 फीसदी से अधिक होने पर इसे अत्यधिक वर्षा की श्रेणी में माना जाता है।
उहापोह स्वाभाविक
खैर, वर्ष 2015 की वर्षा श्रेणी को लेकर उहापोह कई जगह बरकरार है। यह स्वाभाविक ही है। अब तक वर्षा में दीर्घावधि औसत से 21 प्रतिशत कम वर्षा के कारण दक्षिण भारत के मराठवाड़ा, तेलंगाना, उत्तर कर्नाटक और रायलसीमा वासी इसे सूखा वर्ष कहेंगे ही। यह कमी छोटी नहीं है। आन्ध्र के 38 मण्डलों से हैदराबाद, चेन्नई और दूसरे स्थानों के लिये मज़दूरों का पलायन शुरू हो चुका है।
भारतीय मौसम विभाग द्वारा जारी नक्शे के मुताबिक कच्छ और सौराष्ट्र के हिस्से को छोड़ दें, तो गुजरात के लिये यह सामान्य वर्ष है। हिमाचल के ठंडे मरुस्थली लाहौल-स्पीति जिले के लिये यह सूखा वर्ष है, तो शेष जिलों के लिये सामान्य वर्ष। दीव-दमन, उड़ीसा और मणिपुर के लिये भी वर्षा-2015, न सूखा वर्ष है और न बाढ़ वर्ष।
हालांकि पाँच अगस्त के बाद से बारिश का रुख उत्तर भारत और उत्तर भारत में खासकर, हिमालय की तराई वाले इलाकों में मुड़ने की सम्भावना जताई गई थी; बावजूद इसके फिलहाल पंजाब, चण्डीगढ़, उत्तराखण्ड, पूर्वी-पश्चिमी उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, पूर्वी मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, विदर्भ, मध्य महाराष्ट्र, तटीय आन्ध्र प्रदेश, दक्षिण कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु तथा पुद्दुचेरी में सामान्य से कम वर्षा हुई। दिल्ली में रोज थोड़ी-बहुत बारिश हो रही है, किन्तु नक्शे के मुताबिक फिलहाल यहाँ भी कुल वर्षा औसत सामान्य से कम ही है।
अब तक हुई अतिवृष्टि के कारण जम्मू-कश्मीर, पूर्वी व पश्चिमी राजस्थान, कच्छ-सौराष्ट्र, पश्चिमी मध्य प्रदेश, झारखण्ड और सबसे अधिक पश्चिम बंगाल के लिये यह बाढ़ वर्ष ही है। अब तक कम वर्षा के बावजूद नौ जून, 2015 को असम प्रदेश के नौ जिलों में बाढ़ के कारण असमवासियों के लिये भी यह बाढ़ वर्ष है।
अनिश्चितता की आदत डालें
वर्ष 2015 का ही नहीं, यदि हम पिछले कुछ वर्षों का वर्षा वितरण देखें, तो स्पष्ट है कि ‘यहं सूखा, वहं बाढ़’ का यह नजारा अब हर साल दोहराया जाने वाला है। यह अब कभी भी और कहीं भी होगा। जहाँ कभी बाढ़ नहीं आई, वहाँ बाढ़ आने से इंकार नहीं किया जा सकेगा और जहाँ कभी सूखा नहीं पड़ा, वहाँ सूखा पड़ने से इंकार करना जोखिम भरा होगा।
निस्सन्देह, इसका एक कारण जलवायु परिवर्तन भी है। वर्षों पर एक शोध में कहा गया कि ग्लेशियरों के अत्यधिक पिघलने के कारण दक्षिणी धुव्र में पानी का भार बढ़ रहा है। लिहाजा, पृथ्वी के झुकाव में कोणीय परिवर्तन आया है। इस कारण, सहारा के मरुस्थल में हरियाली लौटेगी। भारत के पूर्वी भागों में वर्षा घटेगी और पश्चिमी भागों में वर्षा बढ़ेगी।
इस बार कहा जा रहा है कि ‘कोमेन’ नामक चक्रवात के कारण पश्चिम बंगाल को अधिक वर्षा और बाढ़; की तबाही झेलनी पड़ी। लद्दाख और मनाली की बाढ़ को बादल फटने का नतीजा बताया गया। यह सत्य हो सकता है, किन्तु इस अनिश्चितता को हम सिर्फ जलवायु परिवर्तन, कोमेन, अलनीनो, लानीनो या फिर पृथ्वी के धुव्रीय झुकाव का असर कहकर हाथ पर हाथ धरे नहीं रह सकते।
दोषी हम भी
सूखे के बावजूद असम में बाढ़ बताती है कि बढ़ी बाढ़ के कारण मानवजनित भी है।
बाँध प्रबन्धन
विशेषज्ञों के मुताबिक, अधिक जल भण्डारण क्षमता होने के बावजूद दामोदर बाँध से ऐसे मौके पर एक साथ अधिक पानी छोड़ा गया। बाढ़ के मौके पर इस छोड़े गए पानी ने हालात और खराब किये। पश्चिम बंगाल में अभी तक 13 जिलों के 222 ब्लॉकों के 51 लाख से अधिक आबादी के दुष्प्रभावित होने की खबर है। करीब पाँच लाख हेक्टेयर फसल पूरी तरह नष्ट हो गई है।
इससे उलट जिला खरगोन, म.प्र. के अपर बेदा बाँध में कई दिनों तक पानी भरे रहने से उलटे लौटे पानी के कारण आदिवासियों को घर बाढ़ में डूबने की खबर है। इसी तरह बढ़ी ऊँचाई के कारण, सरदार सरोवर से पलटकर लौटे पानी में 214 किलोमीटर क्षेत्र के 245 गाँवों के बाढ़ ग्रस्त होने की खबर है। दुखद है कि बावजूद इसके सरदार सरोवर बाँध की ऊँचाई बढ़ाने का काम जारी है। जाहिर है कि विरोध होगा ही। यही आशंका गुजरात की तापी नदी स्थित उकाई बाँध की ऊँचाई बढ़ाने को व्यक्त की जा रही है। इसमें जलवायु परिवर्तन का कोई हाथ नहीं।
किसान
बाढ़ और सुखाड़ के दुष्प्रभावों के बढ़ाने में इंसानी हाथ को लेकर एक पहलू और है। घोषणा चाहे बाढ़ की हो या सुखाड़ की, तद्नुसार अपनी फसलों और किस्मों में बदलाव की सावधानी अभी ज्यादातर भारतीय किसानों की आदत नहीं बनी है। सुखद है कि पंजाब ने धान की एक तरफा रोपाई की जगह विविध फसल बोने का निर्णय लिया है। किन्तु कम वर्षा की घोषणा बावजूद, उत्तर प्रदेश और बिहार के किसानों ने इस वर्ष की धान की रोपाई में कोई कमी नहीं की।
कर्नाटक और महाराष्ट्र के गन्ना किसानों ने गन्ना बोआई का रकबा कम करने की सीख को अनसुना किया। अब ऐसे में धान बेपानी सूख जाये या फिर गन्ना सिंचाई के अतिरिक्त खर्च के कारण मुनाफा कम हो, तो दोष किसे दें?
मौसम वैज्ञानिक
स्वयं भारतीय मौसम विज्ञान की क्षमता को भी सुधार की जरूरत है। भारत के लिये अतिवृष्टि वर्ष होगा या अनावृष्टि वर्ष? आपको यह जानकर निराशा होगी कि इस प्रश्न के उत्तर हेतु किये गए ताजा भारतीय वैज्ञानिक आकलनों में ही भिन्नता है। गौर कीजिए कि पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने मौसम विभाग ने 22 अप्रैल, 2015 को अपनी पहली भविष्यवाणी की। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने स्वयं प्रेसवार्ता कर मीडिया को इसकी जानकारी दी। तद्नुसार इस वर्षा काल में भारत का राष्ट्रीय वर्षा औसत, दीर्घावधि वर्षा औसत का 93 फीसदी रहने का अनुमान पेश किया गया।
कहा गया कि इसमें आँकड़ा पाँच फीसदी ऊपर-नीचे हो सकता है। जून, 2015 में अन्य एजेंसियों का आकलन आया, तो वैज्ञानिक आकलन में भिन्नता और मुखर हुई। सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज, पुणे ने वर्षा औसत के दीर्घावधि औसत का 84 फीसदी रहने की घोषणा कर होश उड़ा दिये।
पाँच प्रतिशत ऊपर-नीचे होने की सम्भावना के साथ बंगलुरु स्थित सेंटर फॉर डिजास्टर मिटिगेशन, जैन यूनिवर्सिटी ने 113 फीसदी, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मैट्रोलॉजी, पुणे ने 91 फीसदी और अहमदाबाद स्थित स्पेश एप्लीकेशन सेंटर ने 100 फीसदी वर्षा औसत की भाविष्यवाणी पेश की।
निजी क्षेत्र के सबसे बड़े तंत्र वाले मौसम आकलनकर्ता स्काईमेट ने औसत के 102 फीसदी रहने की घोषणा के साथ कहा कि अधिक वर्षा की सम्भावना 10 प्रतिशत है, तो सूखे की सम्भावना अत्यन्त कम है। कहा कि अरब सागर का तापमान सामान्य है। अतः भारतीय नीनो सकारात्मक दिखाई दे रहा है। यह अलनीनो के दुष्प्रभाव को कम करने में सहायक होगा।
दावा किया कि यह 98 फीसदी से कम तो किसी हालत में नहीं होगा। दूसरी ओर उसने मानसून के वर्ष 2013 जैसा होने का दावा किया। गौर कीजिए कि वर्ष 2013 में भारत में वर्षा औसत 106 फीसदी था; जिसे काफी अच्छी वर्षा कहा जा सकता है।
दिलचस्प है कि वर्ष 2015 मानसून को लेकर अभी तक नक्षत्र गणना आधारित पंचागों का आकलन, 140 वर्ष पुराने भारतीय मौसम विभाग तथा अन्य वैज्ञानिक संस्थानों की तुलना में ज्यादा सटीक साबित हुआ है। अद्रा, अनुराधा नक्षत्र की तथा राहु, केतु, सूर्य, चन्द्र, मंगल, वृश्चिक, शनि आदि स्थिति व गति के आधार पर गणना करने वाले पंचांग उठाकर देखें। स्पष्ट लिखा है कि वर्षा सामान्य होगी, किन्तु वितरण सामान्य नहीं होगा। अतः भारत के कुछ भागों में बाढ़, तो कुछ में सूखे के हालात बनेंगे।
आइए, कुशलतम बनें
इन भिन्न आकलनों और परिदृश्यों से स्पष्ट है कि मौसम की भविष्यवाणी को सटीक बनाने के क्षेत्र में अभी भारत मौसम वैज्ञानिकों को काफी सुधार करना है; कई गुना बेहतर क्षमता हासिल करनी है। भारत सरकार ने अमेरिका के साझे से इस पर काम करना शुरू कर दिया है। नेशनल मानसून मिशन भी बनाया है। किन्तु अभी कुशलतम का लक्ष्य हासिल करना बाकी है।
बाँध प्रबन्धकों को समझना बाकी है कि कब, कितना और किन एहतियात के साथ पानी छोड़ा जाये; कहाँ और कैसा बाँध हो; बाँध हो या न हो। किसानों को समझना बाकी है कि मौसम आने-जाने की अवधि, न्यूनता, अधिकता बदल रही है, तो हम फसल चक्र और चुनाव में बदलाव की सीख को स्वीकार करें। दुआ कीजिए कि भारतीय किसान, वैज्ञानिक, इंजीनियर और प्रबन्धन जगत में यह समझ, सर्तकता, संवेदना और जवाबदेही यथाशीघ्र विकसित हो।
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