यहाँ ऊर्जा बचा रही पनचक्की


गंगनहर का पानी बुलेट रेल की रफ्तार से भी कई गुणा ज्यादा होती है। गाजियाबाद के इस गाँव में करीब दो सौ साल पुरानी गेहूँ पिसाई करने वाली चक्की आज भी पानी के बहाव से मशीन के पार्ट्स को तेज गति देती हैं। इससे पाट गेहूँ, चना आदि अनाज को आसानी से पीसकर आटे में बदल देते हैं। प्रकाशित रिपोर्ट्स और इलाके के बुजुर्गों की मानें, तो इलाके में पहले गेहूँ पीसने की कोई व्यवस्था नहीं थी। मसूरी/गाजियाबाद। इतिहास बदल गया। जिले की तस्वीर और तकदीर बदल गई, पर नहीं बदली, तो मसूरी क्षेत्र के गाँव नाहल की झाल के किनारे ब्रिटिशकाल में लगी आटा की पनचक्की की कहानी। एक ओर जहाँ आज समूचा प्रदेश और देश बिजली और जल संरक्षण के प्रयास में जी-जान से जुटा है, इस दौर में करीब 200 साल पहले ब्रिटिश हुकूमत में लगी यह पनचक्की आज भी सरकार के इस प्रयास को नया आयाम दे रहा है। इस पनचक्की से न सिर्फ खेतों की सिंचाई हो रही है, बल्कि गेहूँ की पिसाई भी हो रही है।

थाना मसूरी क्षेत्र के गाँव नाहल की झाल के किनारे आटा पीसने वाली यह पनचक्की बिना बिजली के केवल पानी से चलती है। इसका इजाद आज से लगभग 200 वर्ष पहले ब्रिटिश हुकूमत के शासन में हुआ था। गेहूँ पीसने वाली इस चक्की को देखने के लिये देश के दूर-दराज के क्षेत्रों के छात्र और आम नागरिक यहाँ आते हैं।

दरअसल, मसूरी डासना क्षेत्र स्थित गाँव नाहल की झाल है। इसी गाँव से सटकर गंगनहर निकलती है। इस गंगनहर का पानी बुलेट रेल की रफ्तार से भी कई गुणा ज्यादा होती है। गाजियाबाद के इस गाँव में करीब दो सौ साल पुरानी गेहूँ पिसाई करने वाली चक्की आज भी पानी के बहाव से मशीन के पार्ट्स को तेज गति देती हैं। इससे पाट गेहूँ, चना आदि अनाज को आसानी से पीसकर आटे में बदल देते हैं।

प्रकाशित रिपोर्ट्स और इलाके के बुजुर्गों की मानें, तो इलाके में पहले गेहूँ पीसने की कोई व्यवस्था नहीं थी। ग्रामीण पैदल चलकर कोसों दूर जाते थे। जब यह मामला ब्रिटिश हुकूमत के संज्ञान में आया, तो ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने इस पनचक्की का खाका तैयार किया। इससे ग्रामीणों की समस्याओं का समाधान हो गया। इससे प्रभावित होकर अंग्रेजों ने एक के बाद एक कर आधा दर्जन पनचक्की लगाई।

मौके पर पहुँचे ‘दैनिक भास्कर’ संवाददाता ने इस चक्की का जायजा लिया। यहाँ तीन लोग दोस मोहम्मद, आस मोहम्मद और अब्दुल वहाब काम करते हैं। इनका काम है मशीन में कोई भी तकनीकी खामी पर तुरन्त दुरुस्त करना है।

आस मोहम्मद ने बताया कि करीब दो सौ साल पूर्व इस चक्की को अंग्रेजों ने बनवाया था। इससे रोजाना करीब 15 से 20 क्विंटल अनाज की पिसाई होती है। अगर ग्राहक खुद अपना गेहूँ पीसता है, तो पाँच रुपये के हिसाब से चार्ज लेते हैं। अगर हम पीसकर देंगे, तो छह रुपए लिये जाते हैं। चक्की देश की धरोहर है।

अपना गेहूँ पीस रहे मसूरी गाँव निवासी हाजी नसीम ने बताया कि इस चक्की के पिसे आटे की गुणवत्ता ठीक होती है। बारीक पिसाई से चोकर कम निकलता है। वजन में भी आटा कम नहीं होता। बिजली से पिसाई में जहाँ काफी आटा चक्की के घर्षण से जल जाता है, वहीं इसके विपरीत पानी की चक्की से पीसने वाला आटा ठंडा रहता है। वहीं मसूरी निवासी नूर मोहम्मद ने कहा कि अपना अनाज वे खुद पीस लेते हैं। आटा भी ठंडा होने से मीठा लगता है।

सिंचाई विभाग हर साल देता है ठेका


बिना विद्युत ऊर्जा से संचालित इस पनचक्की का ठेका सिंचाई विभाग सार्वजनिक सूचना से हर साल देता है। वर्तमान में गाँव नाहल के हकीकत पुत्र अब्दुल वहाब के पास इसका ठेका है। उन्होंने इसे 2009 में 2.3 लाख रुपए में लिया था। ठेका हर साल दिया जाता है, जिसे नाहल के हकीकत ही करीब छह साल से लेते आ रहे हैं।

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Post By: RuralWater
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