प्रकृति प्रदत्त ‘पानी’ अमूल्य है। इसके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पृथ्वी पर जैविक विकास की वजह भी पानी ही है। परन्तु पानी के अतिदोहन ने भारत ही नहीं विश्व के कई देशों को भयावह जल संकट से रूबरू होने पर मजबूर कर दिया है।
उत्तराखण्ड राज्य भी इससे अछूता नहीं है। हालांकि, यहाँ के लोग पानी का उपयोग जल संस्कृति के अनुरूप करते हैं इसीलिये जल संकट का रूप इतना भयावह नहीं है जितना देश के अन्य हिस्सों में है। पेश है राज्य में प्रचलित जल संस्कृति के कुछ किस्से प्रेम पंचोली की जुबानी।
यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर बर्नीगाड स्थित गंगनाणी नाम की जलधारा (गंगनाणी पन्यारा) पहाड़ से निकलती है। किंवदती है कि यह जलधारा भागीरथी नदी की है। बताया जाता है कि सन 1992-93 में उत्तरकाशी में अखण्ड पुराण हुआ था। यज्ञ के दौरान भागीरथी नदी में प्रवाहित यज्ञ सामग्री इसी धारा से बहकर आई। इस बात की पुष्टि आज भी लोग करते हैं।
इसी धारा से जुड़ी एक और लोक मान्यता है कि पाण्डवों ने अज्ञातवास के दौरान लाखामण्डल में कुछ समय व्यतीत किया था। लाखामण्डल भी गंगनाणी के ठीक सामने यमुना के दूसरे किनारे पर स्थित है। पाण्डवों को पूजा के लिये तत्काल गंगा का पानी चाहिए था। अर्जुन ने इस पहाड़ पर तीर साधा और गंगा की धारा इस स्थान से निकल आई। तब से इसे गंगनाणी धारा कहते हैं। उक्त स्थान को लोग अब पूजनीय मानते हैं और जलस्रोत के पास लोग नंगे पाँव जाते हैं।
यह कहा जाता है कि पिछले वर्ष इस जलधारा के सौन्दर्यीकरण के दौरान जब मजदूर धारा के स्रोत पर पहुँचे तो उनकी आँखे एका-एक बन्द हो गईं। इसके बाद वे बहुत भयभीत हो गए। स्थानीय लोगों को जब इस बात की जानकारी मिली तो उन लोगों ने ठेकेदार को सलाह दिया कि वे निर्माण कार्य में लगे मजदूरों को जलस्रोत के समीप नंगे पाँव भेजे। ठेकेदार ने ऐसा ही किया और उसके बाद निर्माण कार्य में कोई दिक्कत नहीं आई। लेकिन इस निर्माण कार्य से जलधारा की सेहत पर बहुत असर डाल दिया इसमें पानी की मात्रा भी दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है।
बड़कोट के उस पार मोल्डा गाँव लगभग 1800 मीटर की ऊँचाई पर बसा है। गाँव में नक्कासीदार मुखनुमा पत्थर से एक जलधारा निकलती थी। अब यह धारा सूख चुकी है। गाँव में स्थित देवी भद्रकाली के मुख्य पुजारी बुद्धिराम बहुगुणा ने बताया कि जब से इस धारा की सफाई बन्द हुई और लोग यहाँ जूते सहित जाने लगे तब से जलधारा सूखने लगी। उन्होंने बताया कि प्रत्येक संक्रान्ति में इस जलधारा की पूजा व सफाई होती थी जो अब बन्द है।
पुजारी बुद्धिराम बहुगुणा बताते हैं कि बड़कोट नामक स्थान से सहस्त्रबाहु राजा की गाएँ मोल्डा नामक स्थान पर चुगने आती थीं। इस जलधारा के पास उनकी एक गाय रोज अपने थन से दूध छोड़ती थी। सहस्त्रबाहु राजा ने उक्त गाय को वहीं दफनाने का आदेश अपने सैनिकों दिया। ऐसा करने पर वहाँ दूसरे ही दिन ‘नाग’ प्रकट हुए और कुछ ही दिनो में पत्थर की मूर्ति के रूप मे स्वतः ही बदल गए। इसके साथ ही इस नागमुखी पत्थर की मूर्ति से जलधारा फूट पड़ी। तब से यह धारा भूमनेश्वर (भूमि से स्वस्फूर्त निकली जलधारा) के नाम से जानी जाने लगी।
यमुना घाटी में स्थित नागझाला धारा कन्ताड़ी, पौंटी गाँव का पवनेश्वर धारा, डख्याटगाँव का पन्यारा, सरगाँव के सात नावा, कमलेश्वर धारा, कफनौल गाँव का रिंगदूपाणी आदि जलधाराओं (पन्यारा) का सम्बन्ध किसी-न-किसी देवता से है। यही वजह है कि आज यहाँ पर ये प्राकृतिक जलधाराएँ जल संकट के दौर में भी जीवित हैं।
ज्ञात हो कि वर्तमान में पानी के नाम पर बन रही सभी योजनाएँ जल संस्कृति के विपरीत जल दोहन के उद्देश्य पर ही केन्द्रित हैं। कुल मिलाकर पुरातन जल संस्कृति के विज्ञान को बदलते दौर में भी समझने की जरूरत है तथा पहाड़ी उत्तराखण्ड राज्य के नौलों, पन्यारों, धाराओं, बावड़ियों, कुओं आदि को बचाने की आवश्यकता है।
उत्तराखण्ड राज्य भी इससे अछूता नहीं है। हालांकि, यहाँ के लोग पानी का उपयोग जल संस्कृति के अनुरूप करते हैं इसीलिये जल संकट का रूप इतना भयावह नहीं है जितना देश के अन्य हिस्सों में है। पेश है राज्य में प्रचलित जल संस्कृति के कुछ किस्से प्रेम पंचोली की जुबानी।
यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर बर्नीगाड स्थित गंगनाणी नाम की जलधारा (गंगनाणी पन्यारा) पहाड़ से निकलती है। किंवदती है कि यह जलधारा भागीरथी नदी की है। बताया जाता है कि सन 1992-93 में उत्तरकाशी में अखण्ड पुराण हुआ था। यज्ञ के दौरान भागीरथी नदी में प्रवाहित यज्ञ सामग्री इसी धारा से बहकर आई। इस बात की पुष्टि आज भी लोग करते हैं।
इसी धारा से जुड़ी एक और लोक मान्यता है कि पाण्डवों ने अज्ञातवास के दौरान लाखामण्डल में कुछ समय व्यतीत किया था। लाखामण्डल भी गंगनाणी के ठीक सामने यमुना के दूसरे किनारे पर स्थित है। पाण्डवों को पूजा के लिये तत्काल गंगा का पानी चाहिए था। अर्जुन ने इस पहाड़ पर तीर साधा और गंगा की धारा इस स्थान से निकल आई। तब से इसे गंगनाणी धारा कहते हैं। उक्त स्थान को लोग अब पूजनीय मानते हैं और जलस्रोत के पास लोग नंगे पाँव जाते हैं।
यह कहा जाता है कि पिछले वर्ष इस जलधारा के सौन्दर्यीकरण के दौरान जब मजदूर धारा के स्रोत पर पहुँचे तो उनकी आँखे एका-एक बन्द हो गईं। इसके बाद वे बहुत भयभीत हो गए। स्थानीय लोगों को जब इस बात की जानकारी मिली तो उन लोगों ने ठेकेदार को सलाह दिया कि वे निर्माण कार्य में लगे मजदूरों को जलस्रोत के समीप नंगे पाँव भेजे। ठेकेदार ने ऐसा ही किया और उसके बाद निर्माण कार्य में कोई दिक्कत नहीं आई। लेकिन इस निर्माण कार्य से जलधारा की सेहत पर बहुत असर डाल दिया इसमें पानी की मात्रा भी दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है।
बड़कोट के उस पार मोल्डा गाँव लगभग 1800 मीटर की ऊँचाई पर बसा है। गाँव में नक्कासीदार मुखनुमा पत्थर से एक जलधारा निकलती थी। अब यह धारा सूख चुकी है। गाँव में स्थित देवी भद्रकाली के मुख्य पुजारी बुद्धिराम बहुगुणा ने बताया कि जब से इस धारा की सफाई बन्द हुई और लोग यहाँ जूते सहित जाने लगे तब से जलधारा सूखने लगी। उन्होंने बताया कि प्रत्येक संक्रान्ति में इस जलधारा की पूजा व सफाई होती थी जो अब बन्द है।
पुजारी बुद्धिराम बहुगुणा बताते हैं कि बड़कोट नामक स्थान से सहस्त्रबाहु राजा की गाएँ मोल्डा नामक स्थान पर चुगने आती थीं। इस जलधारा के पास उनकी एक गाय रोज अपने थन से दूध छोड़ती थी। सहस्त्रबाहु राजा ने उक्त गाय को वहीं दफनाने का आदेश अपने सैनिकों दिया। ऐसा करने पर वहाँ दूसरे ही दिन ‘नाग’ प्रकट हुए और कुछ ही दिनो में पत्थर की मूर्ति के रूप मे स्वतः ही बदल गए। इसके साथ ही इस नागमुखी पत्थर की मूर्ति से जलधारा फूट पड़ी। तब से यह धारा भूमनेश्वर (भूमि से स्वस्फूर्त निकली जलधारा) के नाम से जानी जाने लगी।
यमुना घाटी में स्थित नागझाला धारा कन्ताड़ी, पौंटी गाँव का पवनेश्वर धारा, डख्याटगाँव का पन्यारा, सरगाँव के सात नावा, कमलेश्वर धारा, कफनौल गाँव का रिंगदूपाणी आदि जलधाराओं (पन्यारा) का सम्बन्ध किसी-न-किसी देवता से है। यही वजह है कि आज यहाँ पर ये प्राकृतिक जलधाराएँ जल संकट के दौर में भी जीवित हैं।
ज्ञात हो कि वर्तमान में पानी के नाम पर बन रही सभी योजनाएँ जल संस्कृति के विपरीत जल दोहन के उद्देश्य पर ही केन्द्रित हैं। कुल मिलाकर पुरातन जल संस्कृति के विज्ञान को बदलते दौर में भी समझने की जरूरत है तथा पहाड़ी उत्तराखण्ड राज्य के नौलों, पन्यारों, धाराओं, बावड़ियों, कुओं आदि को बचाने की आवश्यकता है।
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