इस बार की थीम नर्मदा और उसकी सहायक नदियों पर आधारित है। दो दिनों तक नर्मदा की सहायक नदियाँ, इनके पुनर्जीवन, संरक्षण नीति, नियम और सम्भावनाओं पर सरकार, नर्मदा समग्र और विषय विशेषज्ञ विचार मंथन करेंगे। इसमें नदी किनारे की संस्कृति एवं समाज, नदी से कृषि एवं आजीविका का सम्बन्ध, उसके अस्तित्व और जैवविविधता पर चर्चा होगी। नदी महोत्सव में हिस्सा लेने वाले प्रतिभागियों के लिये नर्मदा नदी के किनारे ही कुटीर बनाई गई है। समूचा आयोजन यहीं होगा। इस बार विषय पर आधारित प्रदर्शनी भी लगाई गई है।हमारे देश में जो कुछ भी सर्वश्रेष्ठ है, वह सब नदियों, वनों, पहाड़ों, पशु-पक्षियों और मिट्टी से आत्मीयता के सान्निध्य से आया है। हम प्रकृति की अपार अनुकम्पाओं के वारिस हैं। इसलिये सदियों तक हमारी गिनती प्राकृतिक संसाधनों से सम्पन्न देशों में होती रही।
लेकिन बीते दो सौ वर्षों की आधी-अधूरी और देशविहीन पढ़ाई पढ़ चुका हम सबका रचा समाज आज प्रकृति के इन उपकारों की पुनः समृद्धि की कारसेवा करना भूल गया है। इस दुखद परिस्थिति का एक मुख्य कारण भयंकर वन विनाश है। लापरवाही का दूसरा बड़ा कारण भूक्षरण भी है। सार्वजनिक जलाशयों का लगातार दुरुपयोग इस समस्या को और अधिक उग्र करता चला गया है। नलकूपों और समर्सिबलों के बढ़ते चलन ने भूजल को भी निजी मिल्कियत बना दिया है।
हमारी देवी स्वरूपा नदियाँ आज शहरी और औद्योगिक कचरा ठिकाने लगाने का साधन मात्र बची हैं। एक समय ऐसा भी था, जब हमारे शहरों, कस्बों और गाँवों में तालाब और पोखर पवित्र सार्वजनिक सम्पदा की तरह सम्भाल कर रखे जाते थे। प्रतिवर्ष इन जलकोषों की साफ-सफाई और गाद निकालने का काम समाज खुद करता था। इन जलस्रोतों से निकलने वाली चिकनी मिट्टी के अनेक उपयोगों के उपरान्त इसे खाद के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता था। लेकिन जल नीतियों के अलम्बरदारों ने पोखर, तालाब, कुओं की उपेक्षा कर इन्हें उपयोगी ही मान लिया।
अब तक किसी सरकार ने ऐसा कोई प्रामाणिक सर्वेक्षण नहीं करवाया कि देश में आखिर ‘पानी’ है कितना? प्रतिवर्ष बिगड़ते हालात के बावजूद हम कभी अपने प्राकृतिक जल संसाधनों की चिन्ता नहीं करते, बल्कि उनका उपभोग इतनी लापरवाही से कर रहे हैं मानो ये स्रोत सभी समाप्त ही नहीं होंगे। देश की उपलब्ध जलराशि के बारे में सही तथ्य, आँकड़े इकट्ठा करने का हमारी सरकारों के पास कोई प्रबन्ध ही नहीं है, कुशल नीति बनाने और संसाधनों का उचित प्रबन्धन तो बहुत दूर की बात है।
अधिकतर नेता नीति निर्माण में सहयोग इसलिये नहीं दे पाते, क्योंकि उन्होंने सार्वजनिक जीवन में कभी कुछ सीखा नहीं, आँख खोलकर अपने आस-पास कभी देखा नहीं। और प्रशासनिक अधिकारी सरकारी सुविधाओं की बेहोशी में इस कदर धँसे रहते हैं कि उनका कोई सार्वजनिक जीवन होता ही नहीं। एक छोटे से उदाहरण से समझते हैं। देश भर में घरेलू उपयोग और सिंचाई के लिये जितना पानी रोज खर्च होता है, उससे कई गुना अधिक पानी तो प्रतिदिन हमारे-आपके वाहनों की धुलाई-सफाई में व्यर्थ हो रहा है, वह भी पीने योग्य मीठा पानी।
अगर हम सिर्फ हरियाणा, पंजाब और राजधानी दिल्ली की जल नीति समझें, तो रोना आता है। जिन हरियाणा-पंजाब में जंगल नाममात्र के बचे हैं, वहाँ की धरती आज लगभग तीस लाख समर्सिबल की शर शय्या पर टिकी है। इनमें से अकेले पंजाब में 17.5 लाख समर्सिबल दिन रात भूजल उलीच रहे हैं। इन दोनों राज्यों के लगभग 70 प्रतिशत भूजल डार्क जोन में हैं। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के अपने क्षेत्र करनाल के सभी भूजल डार्क जोन में हैं।
राजधानी दिल्ली की हालत और भी दयनीय है। इसका कोई भी प्राकृतिक संसाधन अपना नहीं। दिल्ली के शौचालयों के नित्यकर्म मेरठ से खींचकर लाई गंगा मैया निपटाती हैं। बीते फरवरी-मार्च में दिल्ली में पानी की खूब किल्लत रही। दिल्ली के अनेक क्षेत्रों में तीन दिन लगातार सरकार के खिलाफ खूब घड़े फूटे, लेकिन मुख्यमंत्री विज्ञापनबाजी के अलावा अनेक शिक्षण संस्थानों में स्विमिंग पूलों के उद्घाटन करने के लिये उतावले दिखे।
आज देश में उपलब्ध पानी का लगभग 70 प्रतिशत प्रदूषित हो चुका है। इस प्रदूषित पानी से पैदा होने वाली बीमारियों के कारण असंख्य कार्यदिवस नष्ट हो रहे हैं। हमें इसका बोध ही नहीं कि ये प्राकृतिक संसाधन कितने कीमती हैं, क्योंकि हमें तो नल की टोंटी घुमाने से ही ताजा पानी मिल जाता है।
हमने तथाकथित विकास के नाम पर कुछ ऐसा ढाँचा रच लिया है, जो हमें अपने आस-पास के पर्यावरण से जोड़ने के बजाय तोड़ता अधिक है। विज्ञान और तकनीक में बढ़ती योग्यता ने भले हमें तकनीकी रूप से साक्षर बनाया हो, पर प्रकृति से तालमेल बिठाने के मामले में हम लगातार निरक्षर होते चले गए हैं। विज्ञान और तकनीक भी तभी सार्थक और लाभकारी होते हैं, जब उन्हें स्थापित आदर्शों और मूल्यों के अनुरूप अपनाया जाये।
विकास का मतलब मात्र प्लास्टिक, लोहा या निरर्थक चीजों से घर भरना नहीं, बल्कि विकास का व्यापक और विराट अर्थ प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों को समृद्ध करना भी है। विकास वह सतत बहने वाली प्रक्रिया है, जो समाज के हर स्तर को पहले से अधिक स्वावलम्बी, सहज, सरल और तनाव रहित बनाए और यह समृद्धि राज और समाज में दूरी बढ़ाने से नहीं, बल्कि नजदीकी से सम्भव होगी, जनभागीदारी से सम्भव होगी, संसाधनों के निःस्वार्थ सदुपयोग से सम्भव होगी, उपभोग के ढाँचे के प्रति बेहद सावधानी बरतने से सम्भव होगी, अपनी देशज परम्पराओं पर श्रद्धा की पुनर्स्थापना से सम्भव होगी, मछुआरों, कुम्हारों आदिवासियों, पशुपालकों, किसानों और मिट्टी पर नंगे पाँव चलने वालों की बात सुनने से सम्भव होगी। वरना देशज भाषाओं को तजकर, परम्पराओं को पाखंडों से जोड़कर और देशज मूल्यों को गाली-गलौज देकर जो शुष्क बीहड़ हमने अपने आस-पास रच लिये हैं, उसमें निरर्थक बौद्धिकता और सामाजिक खुश्की के कैक्टस तो उगाए जा सकते हैं, खिलखिलाते पलाश नहीं।
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