1. पानी
बूँदा है, बरखा है,
पर तालाब रीते हैं।
माटी के होंठ तक
कई जगह सूखे हैं।
भूजल की सीढ़ी के
नित नए डण्डे टूटे हैं।
गहरे-गहरे बोर ने
कई कोष लूटे हैं।
शौचालय का शोर भी
कई स्वच्छ जलकोष लूटेगा।
स्वच्छ नदियों का गौरव
बचा नहीं शेष अब,
हिमनद के आब तक
पहुँच गई आग आज,
मौसम की चुनौती
घर खेत खा रही,
स्वस्थ भारत का सपना
जल्द-शीघ्र टूटेगा।
यह न्यू इण्डिया है.......
2. पानी और शासन
भाषणों में अपने वे
पानी को प्राण और
नदियों को प्राणरेखा बताते हैं,
पर सत्ता हाथ आते ही
सबसे पहले बाँध की ऊँचाई बढ़ाते हैं।
नदी मरे या जीये,
उसकी हर बूँद खींचने को
असल विकास ठहराते हैं।
हर प्यासे को नदी जोड़ की
मृगमरीचिका दिखाते हैं।
शुद्ध पानी के नाम पर
पानी का बाजार सजाते हैं।
सूखा हो या बाढ़,
उन्हें सिर्फ राहत के बजट सुहाते हैं।
बीमारी बनी रहे और खर्च बढ़ता रहे,
इस हुनर के वे डॉक्टर निराले हैं।
कारण उनकी इन्द्रियों पर लगे हुए
कारपोरेट ताले हैं।
जनता ने भी जैसे अपने
मुँह सी डाले हैं।
इसी कारण जो मरता था मार्च में,
अब अक्तूबर में मरता है।
यह बांदा का किसान है,
2017 का निशान है।
यह न्यू इण्डिया है...
3. खेती और बाजार
खेती है, व्यंजन हैं,
पर हुए जहरीले है।
मवेशी हैं, माटी है,
पर नसेड़ी रंगीले है।
फर्टिलाइजर खाते हैं,
कीटनाशक पीते हैं।
‘जी एम’ के संग
रंगरेली मनाते है।
मिलावट के बाजार
शेष शुद्धि खा जाते हैं।
लाला अब लाभ ही लाभ देखते हैं,
शुभ भूल जाते हैं।
ग्राहक को पार्टी और
दलाल को भगवान बताते हैं।
स्वदेशी को घटिया और
परदेशी को बढ़िया बताते हैं।
हर्बल और ऑर्गेनिक के नाम पर
जाने-जाने क्या-क्या बेच आते हैं।
क्या खाएँ? क्या पीएँ?
इसीलिये उठा यह सवाल है।
जिसे शुद्ध समझा वही
निकला जी का बवाल है।
यह न्यू इण्डिया है...
4. शहर और जिन्दगी
पहाड़ों पर पानी है,
पर लोगों से दूर है।
गाँवों में जवानी है,
पर शहर जाने को बेताब है।
शहरों में ख्वाब हैं, पैसे हैं,
पर हवा खराब है।
दाना-पानी सब बने
बीमारी के असबाब हैं।
शहरों में घुटन है, गन्दगी हैै,
पैसे के पीछे छिपी दरिन्दगी है।
गर अधूरी रह गई हसरत तो
दड़बेनुमा मकानों में अधूरी जिन्दगी है।
फास्ट लाइफ-फास्ट फूड
भाई को ब्रो और पिता को डूड,
मशीनों से रिश्ता और रिश्तों से दूरियाँ
वे इसे भारतीय संस्कृति के खिलाफ बताते हैं,
फिर भी वे हर गाँव को शहर और
शहरों को स्मार्ट बनाने का सपना दिखाते हैं।
यह न्यू इण्डिया है...
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