यह दरारें आखिरी नहीं हैं

पृष्ठभूमि


कोसी ने डलवा से 400 मीटर उत्तर में बनरझूला के पास बने एक स्लुइस पर कटाव करना शुरू कर दिया। यह हमला एकाएक और बहुत तेजी से हुआ। स्लुइस गेट के पास तटबन्ध 20 अगस्त को कट गया मगर वहाँ कन्ट्रीसाइड की जमीन ऊँची थी इसलिये पानी बाहर नहीं गया। 21 अगस्त को पानी भी बाहर आया और इसी दिन रिटायर्ड लाइन भी कट गई। कोसी का पश्चिमी तटबन्ध लगभग 175 मीटर लम्बाई में और रिटायर्ड लाइन 15 मीटर दूरी में समाप्त हो गई।

कोसी योजना (1953) में प्रस्तावित कोसी तटबन्धों का निर्माण वैसे तो 1959 में लगभग पूरा हो गया था मगर बाद में पश्चिमी तटबन्ध का विस्तार भंथी से घोंघेपुर तक 4 किलोमीटर में तथा पूर्वी तटबन्ध का विस्तार महिषी से कोपड़िया के बीच 33 किलोमीटर दूरी तक किया गया (चित्रा 4.1)। यह काम पूरा होते न होते 1964 आ गया। इस तरह से कोसी तटबन्धों को पूरा करने में 8 से 9 साल का समय लग गया। इसके पहले कि तटबन्धों का निर्माण कार्य पूरा हो पाता, कोसी ने तटबन्धों पर अपने हमले शुरू कर दिये और तटबन्धों में टूटन की पहली घटना 1963 में ही घट गई जबकि तटबन्ध का काम पूरा भी नहीं हो पाया था। इस अध्याय में हम अब तक (2006 के बरसात के मौसम तक) की ऐसी सारी दुर्घटनाओं का जायजा लेंगे जो कि कोसी तटबन्धों के साथ हुईं। इसमें हम लोग तटबन्धों के अन्दर रहने वाले तथा साथ में बाढ़ से सुरक्षित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की भी राय जानने का प्रयास करेंगे।

टूटते तटबन्धों का उद्घाटन-डलवा कटाव (1963)


यह वर्ष कोसी परियोजना के इतिहास में बड़ा ही महत्वपूर्ण था क्योंकि इसी साल 31 मार्च की रात 11 बजे कोसी की धारा पर बराज द्वारा नियंत्रण स्थापित कर लिया गया था। 340 घनमेक (करीब 12,000 क्यूसेक) वाले सर्वनिम्न प्रवाह और एक किलोमीटर से अधिक में फैली धारा को मोड़ देने की सफल कोशिश का यह केवल भारत में ही नहीं, सारी दुनियाँ में शायद पहला प्रयास था। बराज निर्माण के क्षेत्र में इससे भारत का सिर ऊँचा हुआ था और इसका सेहरा वहाँ काम करने वाले इंजीनियरों के सिर पर बंधा। बराज और उस पर पुल बन जाने की वजह से कोसी नदी के मामले में यह पहला मौका था जबकि नदी पार करने के लिए नाव के इस्तेमाल की जरूरत नहीं रही और लोगों को जान जाने का खतरा नहीं रहा। इस तरह सरकार और इंजीनियरों के प्रति सभी के मन में एक कृतज्ञता का भाव था।

यह कृतज्ञता भाव लेकिन बहुत टिकाऊ नहीं रहा। जून महीने में नेपाल में डलवा के पास नदी कोसी के पश्चिमी तटबन्ध की ओर खिसकने लगी। डलवा भारत नेपाल सीमा के उस पार कोसी के तटबन्ध से लगा हुआ नेपाल का पहला गाँव है। सीमा के इस पार भारत का आखिरी गाँव कुनौली पड़ता है। समाचार पत्रों में नदी के तटबन्ध के नजदीक आने की खबरें बराज का निर्माण कार्य पूरा होने के समय से आने लगी थीं और सरकार से तुरन्त और प्रभावकारी कदम उठाने की माँग की जा रही थी। यह खतरा किसी भी मायने में साधारण नहीं था। बचाव के लिए पश्चिमी कोसी तटबन्ध से हट कर एक रिटायर्ड लाइन बनाने का प्रस्ताव किया गया और जुलाई के अन्तिम सप्ताह में इसके निर्माण के काम में हाथ लग गया। भारदह से लेकर हनुमान नगर तक का रास्ता काफी खराब होने की वजह से आवाजाही में भी रुकावट पड़ने का अन्देशा था मगर आम जनता को यह भरोसा जरूर था कि इंजीनियर लोगों ने जब कोसी पर फतह पा ली है तो वह नदी के कटाव को रोकने में भी जरूर सफलता प्राप्त कर लेंगे। 29 जुलाई को राज्य के सिंचाई मंत्री दीप नारायण सिंह तथा कोसी परियोजना के चीफ इंजीनियर देबेश मुखर्जी ने क्षेत्र का हवाई सर्वेक्षण किया और बयान दिया कि मरम्मत का काम पूरा कर लिया गया है और अब कोई खतरा नहीं है।

चित्र (4.1 देखने के लिए अटैचमेंट डाउनलोड करें।

2 अगस्त को केन्द्रीय सिंचाई मंत्री डा॰ के॰ एल॰ राव जिन्होंने हाल ही में (18 जुलाई 1963) केन्द्र में सिंचाई मंत्री का पद सम्भाला था, डलवा का हवाई सर्वेक्षण किया और कहा कि कटाव नियंत्रण में है मगर सतर्क रहने की जरूरत है। 5 अगस्त आते-आते कटाव बहुत तेज हो गया और नदी में तार की जाली से बंधे पत्थरों को गिराने का काम युद्ध स्तर पर शुरू कर दिया गया। आर्यावर्त-पटना ने अपने 8 अगस्त के सम्पादकीय में लिखा कि, ‘‘... कोसी में जब से तटबन्ध बने हैं तब से कई बार उन पर खतरा आने पर भी वह कहीं पर टूटने नहीं दिये गये हैं। इसलिये आशा की जाती है कि इस बार भी उसे टूटने नहीं दिया जायगा। कोसी का यह कटाव कोसी योजना में लगे इंजीनियरों के लिये चुनौती है और इसे ध्यान में रख कर उन्हें काम करना चाहिये।’’

9 अगस्त तक तटबन्ध टूटने की आशंकायें व्यक्त की जाने लगीं और यह लगभग तय हो गया कि अगर तटबन्ध टूट जाता है तो 800 से लेकर 1000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र पर पानी फैल जायेगा। फसलें डूब जायेंगी, गाँव-घर तबाह होंगे और और काफी तादाद में लोग मरेंगे। इस बीच डलवा में मंत्रियों, राजनीतिज्ञों, इंजीनियरों और प्रशासकों का आना-जाना जारी रहा। 9 अगस्त को डलवा में नेपाल के तत्कालीन सिंचाई मंत्री डॉ. नागेश्वर सिंह स्थिति का निरीक्षण करने के लिये पहुँचे और उन्होंने नेपाल द्वारा हर संभव सहायता का आश्वासन दिया। इसी दिन दिल्ली में डॉ. के0 एल0 राव ने बयान जारी कर के कहा कि कोसी के तटबन्ध तो तीन चार साल पहले ही बन गये थे मगर इस साल यह पहला मौका था जबकि नदी का पूरा पानी तटबन्धों के बीच होकर बहाया गया है। ऐसे में तटबन्धों को अगर कुछ हो जाता है तो कोसी क्षेत्र के लोगों का उत्साह निराशा में बदल जायेगा।

अगले दिन कोसी ने तटबन्ध को अपनी चपेट में ले लिया और इसकी करीब 600 मीटर लम्बाई में तटबन्ध का 1.5 मीटर स्लोप कट गया। यह तटबन्ध आधार पर 32 मीटर और शीर्ष पर 5 मीटर चौड़ा था। कटाव इतना तेज हो गया कि जो भी पत्थर पानी में डाला जाता उसका कहीं अता-पता नहीं लगता था और धीरे-धीरे साइट पर उसकी कमी महसूस होने लगी। रास्ता और मौसम दोनों की खराबी की वजह से गाड़ियों के आने जाने में दिक्कत पेश आ रही थी और बड़ी गाडि़याँ तो निर्माण स्थल तक पहुँच ही नही पाती थीं। अब तक लगभग 2000 मजदूर तथा 300 तकनीकी अफसर दिन-रात काम पर लगे थे। निर्माण स्थल पर बिजली की व्यवस्था कर दी गई और मजदूरों के रहने-खाने का भी इन्तजाम कर दिया गया जिससे उन्हें कोई दिक्कत न हो। नदी का पानी अब तटबन्ध पर सीधे चोट कर रहा था और किसी भी वक्त टूट सकता था। क्योंकि डलवा नेपाल में पड़ता है इसलिए भारत सरकार को सूचना दे दी गई कि वह समुचित कार्यवाही करे और तटबन्ध टूट जाने की शक्ल में जो संकट का सामना करना पड़ता उसकी भी तैयारी शुरू कर दी गई। इस समय असली मुकाबला था कि पहले क्या होता है? नदी तटबन्ध को पहले काट देती है या सरकार पहले रिटायर्ड लाइन बना लेने में सफल हो जाती है। आज के दिन डलवा में सिंचाई मंत्री दीप नारायण सिंह और केन्द्रीय जल एवम् शक्ति आयोग के बाढ़ के चीफ इंजीनियर आर॰ डी॰ धीर ने स्थल का निरीक्षण किया था और आशा व्यक्त की कि 6-7 दिन के अन्दर रिटायर्ड लाइन बन कर तैयार हो जायेगी।

12 अगस्त को तटबन्ध की सुरक्षा इंजीनियरों के हाथ से निकल कर कोसी के हाथ में चली गई। अब अगर कोसी बख्श दे तब तो तटबन्ध बचेगा वरना इसके कटाव को रोक पाना अब इंजीनियरों के बस की बात नहीं थी। इस दिन स्थल निरीक्षण के लिए बिहार के मुख्यमंत्री बिनोदानन्द झा, सिंचाई मंत्री दीप नारायण सिंह, मुख्य सचिव एस0 जे0 मजूमदार और कोसी परियोजना के मुख्य-प्रशासक एस0 एन0 सिंह ने डलवा का दौरा किया। ऐसी आशंका व्यक्त की जा रही थी कि तटबन्ध टूटने की स्थिति में सहरसा/दरभंगा के करीब 25 गाँवों के साथ-साथ नेपाल के सप्तरी जिले के भी बहुत से गाँव डूब जायेंगे (उन दिनों आज का सुपौल जिला सहरसा का हिस्सा हुआ करता था)। इसके अलावा हजारों एकड़ खड़ी फसल के डूबने का भी अन्देशा था। इस मसले पर नेपाल की राष्ट्रीय पंचायत में 11 अगस्त को बहस के लिए आवेदन किया गया। पंचायत के कुछ सदस्यों का विचार था कि कोसी परियोजना के क्रियान्वयन से नेपाल पर कुप्रभाव पड़ा है जिस पर गंभीरता पूर्वक विचार होना चाहिये और अगर जरूरत पड़ती है तो भारत के साथ कोसी विषयक समझौते में संशोधन किया जाय।

दरअसल 1962 में ही पूर्वी कोसी तटबन्ध पर गोपालपुर और सिमरी (निर्मली प्रखण्ड) गाँवों में इसी तरह की घटना हुई थी मगर खतरा टल गया था। तभी नदी का कुछ हमला तटबन्ध पर डलवा में होता दिखाई पड़ा और यहाँ एक रिटायर्ड लाइन का प्रस्ताव वहाँ के एक्जीक्यूटिव इंजीनियर एम॰ एम॰ बख़्शी द्वारा किया गया था। यह स्थल नेपाल में होने के कारण बिना उनकी अनुमति के बिहार सरकार कुछ कर नहीं सकती थी और उस समय नेपाल सरकार ने कोई निर्णय नहीं लिया। यह निर्णय लिया गया 1963 में और तभी डलवा रिटायर्ड लाइन का काम शुरू हो पाया। 13 अगस्त को बिनोदानन्द झा एक बार फिर डलवा आये और यहाँ का काम देखा। इस दिन नदी की धारा एकाएक मुड़ कर तटबन्ध से 3 मीटर दूर चली गई और सभी ने राहत की सांस ली मगर सरकार ने कोताही नहीं बरती और किसी अनहोनी घटना से निबटने की पूरी तैयारी कर ली। लौकही थाने में 20 गाँवों को खाली करने के लिए चेतावनी दे दी गई। 21 अफसर और 50 नावों की व्यवस्था हुई। निर्मली से 8 किलोमीटर दूर बनगामा में राहत केन्द्र खोला गया जहाँ वायरलेस की व्यवस्था की गई। 16 अगस्त को डॉ. के. एल. राव फिर एक बार डलवा आये और उन्होंने रिटायर्ड लाइन के काम की प्रगति पर संतोष जाहिर किया और कहा कि जिस रफ्तार से काम हो रहा है उस हिसाब से 3-4 दिन के अन्दर रिटायर्ड लाइन बन कर तैयार हो जायेगी। उन्होंने यह सुझाव जरूर दिया कि रिटायर्ड लाइन को और मजबूत बनाया जाय। मगर उसी दिन कोसी ने डलवा से 400 मीटर उत्तर में बनरझूला के पास बने एक स्लुइस पर कटाव करना शुरू कर दिया। यह हमला एकाएक और बहुत तेजी से हुआ।

राम लगन सिंहराम लगन सिंहस्लुइस गेट के पास तटबन्ध 20 अगस्त को कट गया मगर वहाँ कन्ट्रीसाइड की जमीन ऊँची थी इसलिये पानी बाहर नहीं गया। 21 अगस्त को पानी भी बाहर आया और इसी दिन रिटायर्ड लाइन भी कट गई। कोसी का पश्चिमी तटबन्ध लगभग 175 मीटर लम्बाई में और रिटायर्ड लाइन 15 मीटर दूरी में समाप्त हो गई। तटबन्ध से बाहर निकलते हुये पानी की गहराई मुख्य तटबन्ध पर 45 सेन्टीमीटर थी जबकि रिटायर्ड लाइन पर यह मात्रा 15 सेन्टीमीटर थी। रिटायर्ड लाइन से निकला पानी सकरदेही नदी में गिरा जो कि तिलयुगा से मिल जाती थी। तिलयुगा कोसी की सहायक धारा है और इस तरह यह पानी वापस कोसी में पहुँच गया। नदी का पानी डलवा गाँव में फैल गया। रिंग बांध (रिटायर्ड लाइन और पश्चिमी कोसी तटबन्ध के बीच) से होकर 15 सेन्टीमीटर से लेकर 45 सेन्टीमीटर तक की गहराई में पानी बाहर निकल रहा था। बिहार के सरकारी सूत्रों के अनुसार यहाँ (रिंग बांध) का कुल क्षेत्रफल लगभग 52 हेक्टेयर था जिसमें से 40 हेक्टेयर पर कमर भर पानी था। डलवा में 47 परिवार थे जिनकी कुल आबादी 241 थी जिसमें से 22 परिवारों के 92 व्यक्तियों को हटना पड़ा। इन्हें तटबन्ध पर ही त्रिपाल से बने घरों में रखा गया।

मूंगा लाल यादव (63) डलवा गाँव के रहने वाले हैं और उस समय कोसी योजना में वर्क-चार्ज में काम करते थे। बताते हैं कि, ‘‘एकाएक नदी इस स्लुइस के बहुत पास आ गई। एक मद्रासी एक्जीक्यूटिव इंजीनियर थे, (एच. के. एन अय्यंगार-ले॰) पगड़ी बांधते थे, उसूलों के बड़े पक्के थे और कभी किसी दूसरे का दिया या बनाया हुआ कुछ भी नहीं खाते थे। उन्होंने बनरझूला वाले स्लुइस के कटाव को देखा और कहा कि यहीं तटबन्ध टूटेगा और चार दिन बाद उसी जगह टूट भी गया। रिटायर्ड लाइन पर ज़ोर शोर से काम चल रहा था। तटबन्ध भी कट गया और रिटायर्ड लाइन भी कट गई। रमपुरा, मल्लियाँ, बिशुनपुर, कुनौली, कमलपुर और लाला पट्टी तक पानी गया। डगमारा के पास तिलजुगा के लोहा पुल से पानी निकल गया था। उसके बाद तो न जाने कितने स्पर और कितनी रिटायर्ड लाइनें बनीं। लोग कहते थे कि रुपये का बांध बना दीजिये मगर बांध टूटने न पाये। बांध तो सचमुच रुपये का ही बना था।’’ पानी की गहराई कम होने से कोई व्यक्ति यहाँ हताहत नहीं हुआ था।

चेतू राम (विधायक) के एक सवाल के जवाब में बिहार विधान सभा में सरकार की तरफ से महेश प्रसाद सिंह ने बताया कि डलवा में कुल बीस हेक्टेयर जमीन पानी में डूबी और केवल 12 हेक्टेयर पर लगी फसल को नुकसान पहुँचा और जान-माल की कोई हानि नहीं हुई। कुछ इसी तरह का बयान लोक सभा में डॉ. के॰ एल॰ राव ने (22 अगस्त 1963) दिया। ‘ टूटे हुये रिंग बांध को जोड़ने की कोशिशें जारी हैं। यह अगर सफल हो जाती हैं तो आगे कोई नुकसान नहीं होगा। अब हम यह चाहते हैं कि तटबन्ध का जो मूल अलाइनमेन्ट था उसी के हिसाब से नया तटबन्ध बना दिया जाय और इसके लिये हमें नेपाल सरकार से आग्रह करना पड़ेगा कि वह हमें मूल डिजाइन के मुताबिक तटबन्ध के निर्माण के लिए जमीन उपलब्ध करवा दे। इस नए और मूल तटबन्ध का निर्माण सितम्बर में शुरू होगा और एक बार यदि यह निर्माण पूरा हो जाता है तो कोसी का पश्चिमी तटबन्ध सुरक्षित हो जायेगा।’’

डलवा में जान-माल की कोई क्षति नहीं हुई क्योंकि नदी का प्रवाह कम हो गया। अगर यही प्रवाह अधिक, 10 हजार क्यूमेक के आस-पास भी रहता तो नदी किसी के रोके नहीं रुकती। डलवा में तटबन्ध के टूटने की घटना अपने पीछे कई सवाल छोड़ गई। एक तो साल भर पहले दी गई चेतावनी का किसी पर कोई असर नहीं हुआ। इस वजह से 1963 में सारा काम आपा-धापी में करना पड़ा। दूसरे यह कि कोसी योजना के अधिकारियों द्वारा मजदूरों की कमी का रोना रोया गया जब कि बैद्यनाथ मेहता, संसदीय सचिव, बिहार सरकार, ख़ुद उस इलाके में घूम-घूम कर मजदूरों की व्यवस्था में लगे रहे। जिन इलाकों को डलवा में तटबन्ध टूटने का खतरा था वह उनके चुनाव क्षेत्र में पड़ता था और उनकी चिन्ता स्वाभाविक थी। बहुत से ग्रामीण कार्यकर्ता भी उनका साथ देने के लिए उनके साथ उत्साह से जुट गये। ‘इसकी प्रतिक्रिया अफसरों में बहुत बुरी हुई। वे क्रोध और आवेश में आ गये। मुझे निश्चित जानकारी है कि संसदीय सचिव को एक अधिकारी ने अपमानित भी किया। मुझे यह भी जानकारी है कि इसकी शिकायत उस विभाग के मंत्री महोदय के पास हुई। अधिकारियों के अनापेक्षित व्यवहार के कारण संसदीय सचिव श्री मेहता पटना लौट आये। फिर इंजीनियरों द्वारा साजिश के फलस्वरूप अवांछनीय स्थिति पैदा की गई, मजदूरों को पैसे देने में हतोत्साहित किया गया, ट्रक की सुविधा उठा ली गई। मजदूरों को कहा गया कि ठेकेदार के माध्यम से या मस्टर रोल पर काम करो नहीं तो चले जाओ ...।’

रिटायर्ड लाइन पर काम करने के लिए मुफ्त सेवा के लिए बहुत से श्रमदानी तैयार थे। घोघरडीहा के प्रखण्ड विकास अधिकारी ने 1,000 श्रमदानियों का एक जत्था भेजने की पेशकश कोसी परियोजना से की थी मगर वहाँ के जन-सम्पर्क अधिकारी ने उन्हें यह कह कर लौटा दिया कि उन्हें श्रमदानियों की नहीं प्रशिक्षित मजदूरों की जरूरत है। अब मिट्टी काटने के काम में किस प्रशिक्षण की जरूरत पड़ती है यह तो अधिकारी ही जानें।

पी. एन. त्रिवेदीपी. एन. त्रिवेदीइन घटनाओं पर रोशनी डालते हैं ग्राम अंजनी, पो. मकेर, जिला-सारण के राम लगन सिंह (74) जो उस समय कोसी परियोजना में रेल विभाग का काम देखते थे और नेपाल से कोसी परियोजना के विभिन्न क्षेत्रों में पत्थर ढुलाई करके साइट तक पहुँचाना उनका काम था। उनका कहना है कि, ‘जहाँ तक रेल जा सकती थी वहाँ तक तो पत्थर पहुँचाने में कोई दिक्कत नहीं थी पर उसके आगे रास्ता खराब होने के कारण पत्थर ढुलाई में बहुत बाधा पड़ी। रही श्रमदानियों को वापस भेजने की बात तो अय्यंगार साहब, जो वहाँ एक्जीक्यूटिव इंजीनियर थे ,बहुत ही सिद्धान्त के पक्के और काम से मतलब रखने वाले आदमी थे। श्रमदानी आते तो नेता-मंत्री आते, गाड़ी-घोड़ा आता, भाषण बाजी होती और बिना बात मेला लगता जिससे काम में बाधा पड़ती। उनको यह पसन्द नहीं था और उन्होंने बैद्यनाथ मेहता को साफ शब्दों में कह दिया था कि तटबन्ध को संभालने की जिम्मेवारी उनकी है जिसे वह बहुत अच्छी तरह समझते हैं। इसलिए मजदूरों को, जोकि मजदूर कम और राजनैतिक कार्यकर्ता ज्यादा थे, वापस कर दिया गया था। इस समय तटबन्ध का निर्माण नहीं करना था मगर उसे टूटने से बचाना था, इसलिये एमरजेन्सी थी। तब समय दूसरा था। एक्जीक्यूटिव इंजीनियर का पद एक रुतबे वाला पद था और सभी इस बात से डरते थे कि कहीं यह आदमी छोड़ कर चला गया तो क्या होगा? यही वजह थी अय्यंगार पर बैद्यनाथ मेहता से झंझट के बावजूद कोई कार्यवाही नहीं हुई। आज की हालत होती तो कोई भी गाँव स्तर का नेता एक्जीक्यूटिव इंजीनियर के साथ मार-पीट कर लेता। देबेश मुखर्जी, चीफ इंजीनियर, को बिहार सरकार पैर पकड़ कर डी0 वी0 सी0 से लाई थी, वह नौकरी मांगने नहीं आये थे। यह सभी लोग जिम्मेवार व्यक्ति थे। फिर नदी के किनारे तोड़ कर बहने से कोई नुकसान तो हुआ नहीं।

डलवा के सारे विवाद के पीछे दो मुख्य कारण थे। एक तो यह कि यह स्थल नेपाल में पड़ता था जिसकी वजह से इसे ज्यादा पब्लिसिटी मिल गई। दूसरे यहाँ अहम का टकराव था। बैद्यनाथ मेहता एक बहुत ही कर्मठ और ईमानदार नेता थे और खगड़िया के एक कॉलेज में गणित के अध्यापक रह चुके थे। नेतागिरी उनकी मजबूरी नहीं थी। डलवा में एक ही तरह के आन-बान वाले अय्यंगार और मेहता आमने सामने आ गये।’

बैद्यनाथ मेहता ने भी योजना अधिकारियों पर कम छींटाकशी नहीं की। उनका कहना था कि, ‘ कोसी तटबन्ध टूट रहा है लेकिन इनके चीफ इंजीनियर को इसके लिये कोई परवाह नहीं है। ...घटना घट रही थी लेकिन इनके चीफ इंजीनियर आराम से सोये हुये थे। जहाँ पर इनके चीफ इंजीनियर थे वहाँ से डलवा सिर्फ 26 किलोमीटर की दूरी पर था लेकिन वे नहीं गये। उनको तो चाहिये था कि वहाँ पर कैम्प देकर रहते तो उसको टूटने से रोकते या उससे कुछ ही दूरी पर कोसी का इन्सपेक्शन बैंग्लो था उसी में रह कर इस काम को करते लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। ... इस बांध के टूटने का नतीजा यह हुआ कि 15 लाख रुपया उसको बचाने में खर्च हुआ और रिपेयर करने में भी एक करोड़ पन्द्रह लाख रुपया खर्च हो गया। ...उस रुपये से एक दूसरा प्रोजेक्ट बन सकता था।’ इस तरह योजना कार्यों में लापरवाही और निहित स्वार्थों की भूमिका आम जनता के बीच अब सार्वजनिक होने लगी थी।इसका जवाब देते हैं बिहार सरकार के भूतपूर्व चीफ इंजीनियर पी0 एन0 त्रिवेदी(82)। उनका कहना है, ‘...डलवा में तटबन्ध में घुमाव था और घुमाव इसलिए था क्योंकि जनता की मांग पर तटबन्ध का अलाइनमेन्ट बदल दिया गया था। इस तटबन्ध का तो डिजाइन से कोई वास्ता ही नहीं बचा था। जिसने जैसा चाहा मोड़ दिया, जहाँ जनता का दबाव नहीं था वहां राजनीतिज्ञों का दबाव था। घुमावदार होने के कारण तटबन्ध की ओर नदी को बढ़ने में मदद मिली। पूना के रिसर्च स्टेशन में मॉडल टेस्ट के आधार पर सब फैसले होते थे। वहाँ का डाइरेक्टर बताता था कि उस पर दोनों तटबन्धों के बीच की दूरी घटाने के लिए जबर्दस्त राजनैतिक दबाव था। हालत यह थी कि जनता और नेताओं के दबाव में अगर कोसी प्रोजेक्ट द्वारा सारे उल्टे -सीधे सुझाव मान लिये जाते तो पूर्वी और पश्चिमी तटबन्ध मिल कर एक हो जाते और नदी कहाँ और कैसे बहती, पता नहीं। आप सिर्फ मॉडल टेस्ट करके नदी की स्वच्छन्दता को नहीं रोक सकते। उसके लिए और भी बहुत कुछ करना पड़ता है। कोई भी कटाव रोकने के लिए साइट पर आवश्यक सामान चाहिये जिसे पहुँचाने के लिये सड़क या रेल लाइन चाहिये। सड़क आप के पास थी ही नहीं। ...यह सब बकवास है। आप 6 करोड़ रुपया दीजिये, हम सड़क बना देंगे। अब आपके पास पैसा ही नहीं है तो हम क्या करेंगे?’’

कुछ इसी तरह के विचार जी0 पी0 साही, भूतपूर्व, अभियंता प्रमुख, जल-संसाधान विभाग, बिहार सरकार ने भी लेखक से व्यक्तिगत संवाद के समय व्यक्त किये। वह 1963 में डलवा में सहायक इंजीनियर नियुक्त थे और उनका कहना था कि पत्थर से भरे ट्रक खड़े के खड़े रह गये थे क्योंकि साइट तक पहुँचने का रास्ता ही नहीं था।

तटबन्ध के अलाइनमेन्ट को लेकर तो सचमुच नाटक ही हुआ था जिसके बारे में हम अध्याय-3 में पढ़ आये हैं। इस सम्बन्ध में आर्यावर्त पटना का 26 अगस्त 1963 का सम्पादकीय बड़ा महत्वपूर्ण है। पत्र लिखता है कि, ‘...पहले कोसी के दोनों किनारों के बांधों के बीच नदी के बहाव और पानी के फैलाव के लिए 16 किलोमीटर की चौड़ाई रखने का विचार था किन्तु काफी बड़ा क्षेत्र दोनों बांधों में पड़ने से जमीन के मालिकों को ज्यादा नुकसान उठाना पड़ता। इसलिए उसका विरोध हुआ और बाद में बांधों के बीच का पफ़ासला कम रखने को बाध्य होना पड़ा, फलतः कहीं-कहीं तो यह चौड़ाई सोलह किलोमीटर के बदले मुश्किल से पाँच से सात किलोमीटर रखी जा सकी। डलवा के पास कटाव का अनुभव होने के बाद लोगों ने अब यह तो महसूस किया ही होगा कि अगर दोनों बांधों के बीच नदी के पानी के बहाव और फैलाव के लिए ज्यादा चौड़ा क्षेत्र होता तो पश्चिमीय पुश्ते पर कटाव का ऐसा खतरा न पैदा होता।

इसी क्रम में 22 अगस्त को कोसी परियोजना के बीरपुर मुख्यालय में बिहार के सिंचाई मंत्री दीप नारायण सिंह, नेपाल के पंचायत मंत्री खड़ग बहादुर सिंह और सिंचाई मंत्री नागेश्वर प्रसाद सिंह की बैठक हुई जिसमें नेपाल की तरफ से कोसी के विरुद्ध दीर्घकालिक कार्यवाही में सहयोग की पेशकश की गई। नेपाली प्रतिनिधियों ने इतना जरूर कहा कि अगर जरूरत पड़े तो पुनर्वास का दायित्व भारत सरकार ले। यहाँ यह भी जानना जरूरी है कि डलवा में नेपाली जनता की ओर से कोई खास छेंका-छांकी नहीं हुई थी जबकि तटबन्ध टूटने का पहला दुष्प्रभाव उन्हीं पर पड़ने वाला था। ठेकेदारी की पारस्परिक स्पर्धा के कारण थोड़ा बहुत तनाव जरूर था।

इस घटना पर एक टिप्पणी तत्कालीन स्थानीय सांसद यमुना प्रसाद मण्डल ने की थी, ‘डलवा के निकट जो खतरनाक स्थिति उत्पन्न हो गई थी, उस ओर हम ने अधिकारियों का ध्यान आकृष्ट किया लेकिन मैं यह कहते हुए लज्जित हूँ कि उस दुरावस्था की ओर उस समय कदम नहीं उठाया गया।‘ उस समय तक नेताओं को शर्म आती थी मगर हम आगे आने वाली घटनाओं में देखेंगे कि शर्मिन्दा होने का रिवाज किस तरह से धीरे-धीरे खत्म हो गया।

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