कच्चे माल की मांग का बढ़कर सिर चकरा देने वाले 1.6 करोड़ टन प्रति वर्ष पर पहुंच जाने को लेकर पड़ने वाले पर्यावरण के प्रभावों का अभी तक आकलन ही नहीं किया गया है। इतना सारा बाक्साइट कहां से आएगा? इसके लिए कितनी नई खदानों की जरूरत होगी? कितना अतिरिक्त जंगल काटा जाएगा? कितना पानी निगल लिया जाएगा, कितना साफ पानी भयानक गंदा हो जाएगा?पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा उड़ीसा में वेदांत परियोजना पर रोक लगाने के फैसले को समझाना चाहिए। यह एक ताकतवर कंपनी द्वारा कानून तोड़े जाने की कहानी है। परंतु यह कहानी विकास की उस भूल भुलैया की भी है और यह देश की सबसे समृद्ध भूमि पर सबसे गरीब लोगों के रहने की कड़वी कहानी भी है।
एन.सी. सक्सेना समिति ने तीन आधारों पर खनन समूहों द्वारा पर्यावरण कानूनों को तोड़ने की ओर संकेत किया है। पहला कब्जा करके गांव के वनों को बिना किसी अनुमति के घेर लिया गया। दूसरा कंपनी अपने कच्चा माल अर्थात बाक्साइट की आपूर्ति अवैध खनन के माध्यम से कर रही थी। पर्यावरण स्वीकृति के अंतर्गत यह स्पष्ट शर्त थी कि ऐसा कोई भी काम न किया जाए। तीसरा कंपनी ने बिना अनुमति लिए अपने शोधन संयंत्रा, रिफायनरी की क्षमता को 10 लाख टन प्रतिवर्ष से बढ़ाकर दुगना, चैगुना नहीं, एक करोड़ 60 लाख टन तक कर लिया था।
कच्चे माल की मांग का बढ़कर सिर चकरा देने वाले 1.6 करोड़ टन प्रतिवर्ष पर पहुंच जाने को लेकर पड़ने वाले पर्यावरण के प्रभावों का अभी तक आकलन ही नहीं किया गया है। इतना सारा बाक्साइट कहां से आएगा? इसके लिए कितनी नई खदानों की जरूरत होगी? कितना अतिरिक्त जंगल काटा जाएगा? कितना पानी निगल लिया जाएगा, कितना साफ पानी भयानक गंदा हो जाएगा? परंतु वेदांत एल्यूमिनियम लि. इस तरह के अनेक महत्वपूर्ण, संवेदनशील मामलों की तफसील में जाना ही नहीं चाहती थी। वह पर्यावरण आशंकाओं और प्रचलित कानूनों की पूरी तरह अवहेलना करते हुए अपने विस्तार में जुटी रही।
यह निर्णय अधिकारों से संबंधित उन कानूनों को लेकर भी है, जिनका कि राज्य सरकार ने पालन नहीं किया। वन अधिकार अधिनियम बिलकुल स्पष्ट रूप से निर्देशित करता है कि किसी भी परियोजना को स्वीकृति देने से पहले आदिवासियों के अधिकारों की पहचान कर उनका निपटारा किया जाना एकदम अनिवार्य है। कानून कहता है कि वन में निवास करने वाले समुदायों द्वारा ग्रामसभा के माध्यम से स्वीकृति दिए जाने के बाद ही किसी परियोजना को हरी झंडी दिखाई जाए। सक्सेना समिति का कहना है कि इस प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। सबसे घटिया बात यह है कि राज्य सरकार ने भी इस लापरवाही को छुपाने का प्रयत्न किया। वेदांत की लिप्तता तो एक तरफ, परंतु उसे दोषमुक्त करना और भी चैंकाता है।
इस निर्णय का खनिज समृद्ध क्षेत्रों के भविष्य के विकास पर क्या प्रभाव पड़ेगा? आइए हम आधुनिक भारत के मानचित्र को समझने की कोशिश करें। एक नक्शा लीजिए। इसमें उन जिलों पर निशान लगाइए जो कि वन संपदा के लिए जाने जाते हैं और जहां समृद्ध और घने जंगल हैं। अब इसके ऊपर देश की जल संपदा वाला एक नक्शा रख दीजिए, जिसमें हमारी प्यास बुझाने वाली नदियों व धाराओं आदि के स्रोत अंकित हों। अब तीसरे दौर में इसके ऊपर देश की खनिज संपदाएं जैसे लौह अयस्क, कोयला, बाक्साइट और ऐसी सभी वस्तुओं के मानचित्रा रख दीजिए, जो हमें आर्थिक रूप से समृद्ध करती हों। आप देखेंगे कि ये तीनों प्रकार की संपदाएं देश के नक्शे में साथ-साथ ही अस्तित्व में रहती हैं।
अभी रुकें नहीं। अब इस नक्शे में उन जिलों पर निशान लगाइए, जहां देश के सबसे गरीब बनाए गए लोग रह रहे हों। ये भी इस देश के इन्हीं भागों में ही हैं। आप देखेंगे कि यह नक्शा भी हूबहू उन्हीं स्थानों पर चिन्हित है। सबसे समृद्ध जमीन वहीं है, जहां सबसे गरीब लोग रहते हैं। अब इन जिलों पर लाल रंग छिड़क दीजिए। ये वही जिले हैं, जहां नक्सलवादी घूमते हैं और सरकार भी यह स्वीकार करती है कि वह वहां अपने ही लोगों से लड़ रही है। यह बदतर विकास का एक पाठ है, जिससे हमें सीख लेना चाहिए।
खनिज जैसी कीमती चीजें खनन से निकाली जाती हैं। पर इस प्रक्रिया में वहां भूमि, जंगल और पानी की गुणवत्ता में भी गिरावट आती है जिस पर वहां का समाज अब तक टिका हुआ था। सबसे बुरा यह है कि आधुनिक खनन और औद्योगिक क्षेत्रा उस जीविका की भरपाई जरा भी नहीं कर पाते जो उन्होंने वहां के लोगों से छीन ली है। इससे हालत और भी जटिल हो जाती है। आधुनिक उद्योग वहां के लोगों को कोई रोजगार दे नहीं पाते। वेदांत के 10 लाख टन के शोधन संयंत्रा को केवल 500 स्थायी और इसके अलावा 1000 अस्थाई कर्मचारियों की आवश्यकता जरूर थी पर इस काम में भी थोड़ा लिखा-पढ़ा चाहिए। चूंकि स्थानीय व्यक्ति इस तरह के कामों के लिए प्रशिक्षित ही नहीं होते, इसलिए वे अपनी जमीन और जीविका दोनों से ही हाथ धो बैठते हैं।
सबसे समृद्ध जमीन वहीं है, जहां सबसे गरीब लोग रहते हैं। अब इन जिलों पर लाल रंग छिड़क दीजिए। ये वही जिले हैं, जहां नक्सलवादी घूमते हैं और सरकार भी यह स्वीकार करती है कि वह वहां अपने ही लोगों से लड़ रही है। यह बदतर विकास का एक पाठ है, जिससे हमें सीख लेना चाहिए।इसलिए वेदांत और अन्य हजारों ऐसे पर्यावरण के संघर्षों से हमारा देश इस समय रंगा हुआ है। ये सामान्य व्यक्तियों के संघर्ष हैं। इन्हें नक्सलवादी विद्रोह कहना ठीक नहीं होगा। इस बात को समझने के लिए बहुत अधिक विद्वता की जरूरत भी नहीं है। ये सभी पहले से गरीब बनाए गए हैं और आधुनिक विकास ने इन्हें और भी गरीब बनाया है।
यह है लोगों का पर्यावरणवाद। वे देश को नए सिरे से प्राकृतिक संपदा का मूल्य सिखा रहे हैं। वे जानते हैं कि अपनी सम्मानजनक जीविका के लिए वे अपने जल, जंगल व जमीन पर निर्भर हैं। वे यह भी जानते हैं कि यदि एक बार ये उनके हाथ से चले गए या इनकी गुणवत्ता नष्ट हो गई तो आगे कोई रास्ता नहीं है। उनके लिए पर्यावरण एक विलासिता नहीं, बल्कि जीवित रहने का साधन है।
इसी वजह से वेदांत के विरुद्ध लिया गया निर्णय भविष्य की एक कठोर मांग भी है। यह आज की अपेक्षा है कि सरकारें और उद्योग व्यक्तियों और उनके पर्यावरण के साथ जिस तरह से बर्ताव, व्यापार करते आए हैं उसमें अब बदलाव लाएं। सर्वप्रथम यह सुनिश्चित करना होगा कि व्यक्तियों की विकास में भागीदारी हो। इस जमीन पर बसने वाले समुदायों को बिना लाभ पहुंचाए वहां से संसाधन नहीं निकालें। इसलिए खनन और खनिज विकास नियमन अधिनियम के मसौदे में लाभ में हिस्सेदारी की व्यवस्था का समर्थन किया जाना चाहिए। भले ही इस मांग का उद्योग कितना भी विरोध क्यों न करें।
हमें अपनी जरुरतें कम करनी होंगी तथा अपनी निपुणता बढ़ाकर अधिग्रहित की गई भूमि के एक-एक इंच का, खोदे गए खनिज के प्रत्येक अंश का और पानी की प्रत्येक बूंद का इस्तेमाल करना सीखना होगा।हमें अपने ढांचे के प्रति भी गंभीर होना पड़ेगा। वन अधिकार अधिनियम ‘वीटो’ का भी अधिकार देता है। यदि वहां के लोग ‘नहीं’ कह दें तो परियोजना लागू नहीं हो सकती। इस व्यवस्था को कागज से जमीन पर उतारना होगा। यहां हमें इस संबंध में कम से कम दो आशयों को स्वीकार करना ही होगा। पहला, परियोजना प्रवर्तकों को समुदायों को अपने बोर्ड में शामिल करने के लिए अपनी छवि सुधारने की दिशा में गंभीर प्रयत्न करने होंगे। दूसरा हमें कम में ज्यादा, अर्थात गागर से सागर भरना होगा। आज सरकार और उद्योग सभी खनिजों का खनन या हर तरफ जमीन का अधिग्रहण या हर जगह पानी खींचकर उन सभी उद्योगों का निर्माण नहीं कर सकते, जिनकी योजना बनाई है या बनाना चाहते हैं। हमें अपनी जरुरतें कम करनी होंगी तथा अपनी निपुणता बढ़ाकर अधिग्रहीत की गई भूमि के एक-एक इंच का, खोदे गए खनिज के प्रत्येक अंश का और पानी की प्रत्येक बूंद का इस्तेमाल करना सीखना होगा।
यह वास्तव में एक सख्त पाठ है जो कि कईयों के लिए भविष्य में और भी कठोर हो सकता है। उम्मीद है वेदांत कंपनी से शुरु हुआ यह पाठ बाकी उद्योगों, सरकारों तक भी जल्दी पहुंचेगा।
लेखिका सेंटर फॉर साईंस एंड एनवायर्नमेंट नामक प्रसिद्ध संस्था की निदेशक हैं।
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एन.सी. सक्सेना समिति ने तीन आधारों पर खनन समूहों द्वारा पर्यावरण कानूनों को तोड़ने की ओर संकेत किया है। पहला कब्जा करके गांव के वनों को बिना किसी अनुमति के घेर लिया गया। दूसरा कंपनी अपने कच्चा माल अर्थात बाक्साइट की आपूर्ति अवैध खनन के माध्यम से कर रही थी। पर्यावरण स्वीकृति के अंतर्गत यह स्पष्ट शर्त थी कि ऐसा कोई भी काम न किया जाए। तीसरा कंपनी ने बिना अनुमति लिए अपने शोधन संयंत्रा, रिफायनरी की क्षमता को 10 लाख टन प्रतिवर्ष से बढ़ाकर दुगना, चैगुना नहीं, एक करोड़ 60 लाख टन तक कर लिया था।
कच्चे माल की मांग का बढ़कर सिर चकरा देने वाले 1.6 करोड़ टन प्रतिवर्ष पर पहुंच जाने को लेकर पड़ने वाले पर्यावरण के प्रभावों का अभी तक आकलन ही नहीं किया गया है। इतना सारा बाक्साइट कहां से आएगा? इसके लिए कितनी नई खदानों की जरूरत होगी? कितना अतिरिक्त जंगल काटा जाएगा? कितना पानी निगल लिया जाएगा, कितना साफ पानी भयानक गंदा हो जाएगा? परंतु वेदांत एल्यूमिनियम लि. इस तरह के अनेक महत्वपूर्ण, संवेदनशील मामलों की तफसील में जाना ही नहीं चाहती थी। वह पर्यावरण आशंकाओं और प्रचलित कानूनों की पूरी तरह अवहेलना करते हुए अपने विस्तार में जुटी रही।
यह निर्णय अधिकारों से संबंधित उन कानूनों को लेकर भी है, जिनका कि राज्य सरकार ने पालन नहीं किया। वन अधिकार अधिनियम बिलकुल स्पष्ट रूप से निर्देशित करता है कि किसी भी परियोजना को स्वीकृति देने से पहले आदिवासियों के अधिकारों की पहचान कर उनका निपटारा किया जाना एकदम अनिवार्य है। कानून कहता है कि वन में निवास करने वाले समुदायों द्वारा ग्रामसभा के माध्यम से स्वीकृति दिए जाने के बाद ही किसी परियोजना को हरी झंडी दिखाई जाए। सक्सेना समिति का कहना है कि इस प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। सबसे घटिया बात यह है कि राज्य सरकार ने भी इस लापरवाही को छुपाने का प्रयत्न किया। वेदांत की लिप्तता तो एक तरफ, परंतु उसे दोषमुक्त करना और भी चैंकाता है।
इस निर्णय का खनिज समृद्ध क्षेत्रों के भविष्य के विकास पर क्या प्रभाव पड़ेगा? आइए हम आधुनिक भारत के मानचित्र को समझने की कोशिश करें। एक नक्शा लीजिए। इसमें उन जिलों पर निशान लगाइए जो कि वन संपदा के लिए जाने जाते हैं और जहां समृद्ध और घने जंगल हैं। अब इसके ऊपर देश की जल संपदा वाला एक नक्शा रख दीजिए, जिसमें हमारी प्यास बुझाने वाली नदियों व धाराओं आदि के स्रोत अंकित हों। अब तीसरे दौर में इसके ऊपर देश की खनिज संपदाएं जैसे लौह अयस्क, कोयला, बाक्साइट और ऐसी सभी वस्तुओं के मानचित्रा रख दीजिए, जो हमें आर्थिक रूप से समृद्ध करती हों। आप देखेंगे कि ये तीनों प्रकार की संपदाएं देश के नक्शे में साथ-साथ ही अस्तित्व में रहती हैं।
अभी रुकें नहीं। अब इस नक्शे में उन जिलों पर निशान लगाइए, जहां देश के सबसे गरीब बनाए गए लोग रह रहे हों। ये भी इस देश के इन्हीं भागों में ही हैं। आप देखेंगे कि यह नक्शा भी हूबहू उन्हीं स्थानों पर चिन्हित है। सबसे समृद्ध जमीन वहीं है, जहां सबसे गरीब लोग रहते हैं। अब इन जिलों पर लाल रंग छिड़क दीजिए। ये वही जिले हैं, जहां नक्सलवादी घूमते हैं और सरकार भी यह स्वीकार करती है कि वह वहां अपने ही लोगों से लड़ रही है। यह बदतर विकास का एक पाठ है, जिससे हमें सीख लेना चाहिए।
खनिज जैसी कीमती चीजें खनन से निकाली जाती हैं। पर इस प्रक्रिया में वहां भूमि, जंगल और पानी की गुणवत्ता में भी गिरावट आती है जिस पर वहां का समाज अब तक टिका हुआ था। सबसे बुरा यह है कि आधुनिक खनन और औद्योगिक क्षेत्रा उस जीविका की भरपाई जरा भी नहीं कर पाते जो उन्होंने वहां के लोगों से छीन ली है। इससे हालत और भी जटिल हो जाती है। आधुनिक उद्योग वहां के लोगों को कोई रोजगार दे नहीं पाते। वेदांत के 10 लाख टन के शोधन संयंत्रा को केवल 500 स्थायी और इसके अलावा 1000 अस्थाई कर्मचारियों की आवश्यकता जरूर थी पर इस काम में भी थोड़ा लिखा-पढ़ा चाहिए। चूंकि स्थानीय व्यक्ति इस तरह के कामों के लिए प्रशिक्षित ही नहीं होते, इसलिए वे अपनी जमीन और जीविका दोनों से ही हाथ धो बैठते हैं।
सबसे समृद्ध जमीन वहीं है, जहां सबसे गरीब लोग रहते हैं। अब इन जिलों पर लाल रंग छिड़क दीजिए। ये वही जिले हैं, जहां नक्सलवादी घूमते हैं और सरकार भी यह स्वीकार करती है कि वह वहां अपने ही लोगों से लड़ रही है। यह बदतर विकास का एक पाठ है, जिससे हमें सीख लेना चाहिए।इसलिए वेदांत और अन्य हजारों ऐसे पर्यावरण के संघर्षों से हमारा देश इस समय रंगा हुआ है। ये सामान्य व्यक्तियों के संघर्ष हैं। इन्हें नक्सलवादी विद्रोह कहना ठीक नहीं होगा। इस बात को समझने के लिए बहुत अधिक विद्वता की जरूरत भी नहीं है। ये सभी पहले से गरीब बनाए गए हैं और आधुनिक विकास ने इन्हें और भी गरीब बनाया है।
यह है लोगों का पर्यावरणवाद। वे देश को नए सिरे से प्राकृतिक संपदा का मूल्य सिखा रहे हैं। वे जानते हैं कि अपनी सम्मानजनक जीविका के लिए वे अपने जल, जंगल व जमीन पर निर्भर हैं। वे यह भी जानते हैं कि यदि एक बार ये उनके हाथ से चले गए या इनकी गुणवत्ता नष्ट हो गई तो आगे कोई रास्ता नहीं है। उनके लिए पर्यावरण एक विलासिता नहीं, बल्कि जीवित रहने का साधन है।
इसी वजह से वेदांत के विरुद्ध लिया गया निर्णय भविष्य की एक कठोर मांग भी है। यह आज की अपेक्षा है कि सरकारें और उद्योग व्यक्तियों और उनके पर्यावरण के साथ जिस तरह से बर्ताव, व्यापार करते आए हैं उसमें अब बदलाव लाएं। सर्वप्रथम यह सुनिश्चित करना होगा कि व्यक्तियों की विकास में भागीदारी हो। इस जमीन पर बसने वाले समुदायों को बिना लाभ पहुंचाए वहां से संसाधन नहीं निकालें। इसलिए खनन और खनिज विकास नियमन अधिनियम के मसौदे में लाभ में हिस्सेदारी की व्यवस्था का समर्थन किया जाना चाहिए। भले ही इस मांग का उद्योग कितना भी विरोध क्यों न करें।
हमें अपनी जरुरतें कम करनी होंगी तथा अपनी निपुणता बढ़ाकर अधिग्रहित की गई भूमि के एक-एक इंच का, खोदे गए खनिज के प्रत्येक अंश का और पानी की प्रत्येक बूंद का इस्तेमाल करना सीखना होगा।हमें अपने ढांचे के प्रति भी गंभीर होना पड़ेगा। वन अधिकार अधिनियम ‘वीटो’ का भी अधिकार देता है। यदि वहां के लोग ‘नहीं’ कह दें तो परियोजना लागू नहीं हो सकती। इस व्यवस्था को कागज से जमीन पर उतारना होगा। यहां हमें इस संबंध में कम से कम दो आशयों को स्वीकार करना ही होगा। पहला, परियोजना प्रवर्तकों को समुदायों को अपने बोर्ड में शामिल करने के लिए अपनी छवि सुधारने की दिशा में गंभीर प्रयत्न करने होंगे। दूसरा हमें कम में ज्यादा, अर्थात गागर से सागर भरना होगा। आज सरकार और उद्योग सभी खनिजों का खनन या हर तरफ जमीन का अधिग्रहण या हर जगह पानी खींचकर उन सभी उद्योगों का निर्माण नहीं कर सकते, जिनकी योजना बनाई है या बनाना चाहते हैं। हमें अपनी जरुरतें कम करनी होंगी तथा अपनी निपुणता बढ़ाकर अधिग्रहीत की गई भूमि के एक-एक इंच का, खोदे गए खनिज के प्रत्येक अंश का और पानी की प्रत्येक बूंद का इस्तेमाल करना सीखना होगा।
यह वास्तव में एक सख्त पाठ है जो कि कईयों के लिए भविष्य में और भी कठोर हो सकता है। उम्मीद है वेदांत कंपनी से शुरु हुआ यह पाठ बाकी उद्योगों, सरकारों तक भी जल्दी पहुंचेगा।
लेखिका सेंटर फॉर साईंस एंड एनवायर्नमेंट नामक प्रसिद्ध संस्था की निदेशक हैं।
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