यातायात व्यवस्था और कील गड़ाई

अगर तटबन्ध नहीं रहा होता तो यह बोझ इन लोगों पर नहीं पड़ता और इसके लिए जनता में रोष है जिस पर वह कुछ भी कर सकने की स्थिति में नहीं है क्योंकि पिछले लगभग 50 वर्षों से उनकी यह बात किसी ने सुनी ही नहीं। यह खेवाई किसानों को तब भी देनी पड़ती है जब वह अपनी पैदावार अपनी नाव से अपने मजदूरों की मदद से नदी के पार ले जाते हैं। इसकी वजह से पैदावार की लागत बढ़ जाती है। यह खेवाई बड़ी ही सख्ती और बेरहमी से वसूल की जाती है। तटबन्धों के अन्दर रहने वाले लोगों का बाहरी दुनियाँ से सम्पर्क हमेशा से ही परेशान करने वाला मुद्दा रहा है। तटबन्धों के अन्दर सड़कें नहीं हैं। सड़क के नाम पर जो कुछ भी है उस पर या तो ट्रैक्टर चल सकते हैं या फिर ज्यादा से ज्यादा मोटर साइकिल, और यह सवारियां भी हर जगह नहीं जा सकतीं। ऐसी जगहों पर पैदल और नाव के अलावा कोई विकल्प नहीं है। तटबन्धों के अन्दर माल ढुलाई और व्यापार खच्चरों के माध्यम से होता है। बरसात के मौसम में जब नदी का पानी चारों तरफ फैल जाता है तब नावों द्वारा आवागमन में थोड़ी सहूलियत हो जाती है बशर्ते नदी की मुख्य धारा से फासले पर रहा जाय। नदी के प्रति-प्रवाह में जब नावों को ले जाना हो और आसपास में पानी की सतह छिछली हो या सूखी जमीन उपलब्ध हो तब नावों को खेने के बजाय उन्हें रस्सी से बांध कर खींचना ज्यादा आसान होता है। अगर कभी नाव की पेंदी जमीन से टकरा गई तो उसे ठेल कर ही वापस पानी में डाला जा सकता है।

तटबन्धों के अन्दर कोसी का प्रवाह कई धाराओं से होकर निकलता है और एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने के लिए, हो सकता है, कई बार इन धाराओं को नाव द्वारा पार करना पड़े। सूखे मौसम में मुख्य धारा को छोड़ कर बाकी की इन धारों को घुटने या कमर तक भींगने की शर्त पर पैदल भी पार किया जा सकता है। 1950 के दशक में जब कोसी पर तटबन्ध बने थे तब सरकार ने यह वायदा किया था कि कोसी तटबन्धों के बीच फंसे किसानों की उनके खेतों और घरों के बीच आवाजाही की व्यवस्था वह करेगी। तब यह आशा की गई थी कि लोग पुनर्वास में रहेंगे और उन्हें खेतों तक आने-जाने के लिए नाव की जरूरत पड़ेगी और यह व्यवस्था सरकार इन लोगों के लिए मुफ्त करेगी। ऐसा आज तक नहीं हो पाया और तटबन्धों के बीच रहने वाले लोगों को घाट वाले नाविकों को खेवाई देनी पड़ती है। उन्हें यह खेवाई तब भी देनी पड़ती है जब वह अपने खेतों से पैदावार लेकर घरों को जाते हैं।

अगर तटबन्ध नहीं रहा होता तो यह बोझ इन लोगों पर नहीं पड़ता और इसके लिए जनता में रोष है जिस पर वह कुछ भी कर सकने की स्थिति में नहीं है क्योंकि पिछले लगभग 50 वर्षों से उनकी यह बात किसी ने सुनी ही नहीं। यह खेवाई किसानों को तब भी देनी पड़ती है जब वह अपनी पैदावार अपनी नाव से अपने मजदूरों की मदद से नदी के पार ले जाते हैं। इसकी वजह से पैदावार की लागत बढ़ जाती है। यह खेवाई बड़ी ही सख्ती और बेरहमी से वसूल की जाती है। सहरसा के दक्षिणी क्षेत्रों तथा खगड़िया जिले में इस खेवाई की वजह से होने वाले नुकसान और बेइज्जती की वजह से किसानों ने फसल उगाना ही छोड़ दिया है। बात यहीं खत्म नहीं होती। अगर कोई व्यक्ति अपनी खुद की नाव खुद चला कर घाट से गुजर जाय या नाव को किनारे लगाने के बाद घाट पर खूंटा (कील) गाड़ कर उससे बांध कर रख दे तब भी उसे घाट का टैक्स यानी कील गड़ाई देनी पड़ती है।

इस कहानी का एक दूसरा पहलू यह भी है कि किसी भी घाट पर लोगों को नदी पार कराने के लिए जिला परिषद में घाटों की बोली लगती है। 2003-2004 में महिषी प्रखण्ड में बलुआहा घाट की नीलामी 7,00,000 रुपयों (सात लाख रुपयों) की हुई। यह एक अच्छी खासी रकम है और अगर ठेकेदार मुरव्वत बरतने लगे तब वह पैसा क्या अपने घर से देगा? घोड़े और घास का याराना कहां तक टिक पायेगा? नैतिक प्रश्न यह उठता है कि एक तरफ तो सरकार ने नदी पर तटबन्ध बना कर इतने लोगों को घेर लिया, उनकी जि़न्दगी बरबाद कर दी और उस पर से वह जिन्दगी बरबाद करने की कीमत भी उन्हीं लोगों से वसूल कर रही है। एक बार के लिए यह वाजिब हो सकता था कि अगर कोई बाहरी व्यक्ति घाट और नावों का उपयोग करे या कोई व्यापारी खरीद/बिक्री के लिए कोई सामान लाये या ले जाये तो समझ में आता है कि उसे यह कीमत देनी पड़ेगी मगर यहां के बाशिन्दों का इस तरह का शोषण किसी भी तरह से मान्य नहीं हो सकता।

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Post By: tridmin
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