यादों-स्वादों में ही रह गया देसरिया धान और उसका चिउरा

कैप्शन मुशहरी प्रखंड के नजदीक पानी की कमी से मणिका मन का सूखा हिस्सा
कैप्शन मुशहरी प्रखंड के नजदीक पानी की कमी से मणिका मन का सूखा हिस्सा
उत्तर बिहार के मुजफ्फरपुर शहर से करीब 8 किलोमीटर पूरब की ओर पूसा रोड पर जाएं तो मुशहरी ब्लॉक से आगे एक झील दिखाई देगी। मुशहरी से शुरू होकर यह झील अर्ध चंद्राकार होते हुए बूढ़ी गंडक के बगल में रजवाड़ा पंचायत तक करीब पांच किलोमीटर लंबाई में फैली है। इसी तरह इसकी चौड़ाई मणिका से मुशहरी पंचायत के बीच करीब आधा किलोमीटर है, जो गर्मी में सिकुड़ जाती है। इसे स्थानीय बोली में मणिका मन भी कहा जाता है। क्योंकि इसका अधिकांश हिस्सा मणिका के दो पंचायतों में पड़ता है।

इस मन की वर्तमान स्थिति देखने पर पता चलता है कि इसके किनारों पर फैली पट्टी यूं ही पड़ी रहती है या बरसात के समय इनमें पानी भरता होगा। लेकिन हमेशा ऐसा नहीं रहा है। इन दिनों इस मन के बड़े हिस्से में पानी सूख गया है और इसके उत्तरी हिस्से में गेहूं की खेती भी हो जाती है। किनारे पर भी कभी होती है, कभी नहीं। लेकिन आज से दो दशक पहले तक इस मन के बड़े हिस्से में, जहां गहराई कम है, देसरिया धान की खेती होती थी। देसरिया मोटे धान में गिना जाता है और इसका उपयोग खासकर चिउरा बनाने में होता था। इसके पौधे बहुत लंबे होते थे इतने की पानी बढ़े तो डंठल भी बढ़ता जाता था। लेकिन इस धान का कोई नामलेवा नहीं बचा। शायद बीज भी किसी के पास न हो। देसरिया जैसी किस्में बरसात शुरू होने से पहले बो दी जाती थी। इसके पौधे वर्षा के साथ बढ़ते रहते थे और पक जाने पर नाव से इसके ऊपरी धान वाले हिस्से को काट लिया जाता था। उसे झाड़ कर चूड़ा कूटा जाता है। आस-पास के इलाकों में देसरिया जाना ही जाता था चिउरा के लिए।

यह हुआ इसलिए कि अब इस मन में वर्षा का पानी समय से भरता ही नहीं है। वर्षा पिछले कई सालों से कम हुई है। होती भी है तो अनियत। इलाके में धान की फसल प्रभावित तो हुई ही, इस मन के देसरिया धान को तो पूरी तरह से चौपट ही कर गई है। जानकारों का कहना है कि यह जलवायु में हो रहे परिवर्तन के लक्षण हैं। अनियत वर्षा या वर्षा का समय खिसकने के कारण फसलों पर गंभीर प्रभाव हो रहे हैं। धान के साथ कई अनाज प्रभावित हुए हैं।

मणिका मन सालों भर पानी भरा रहनेवाला बड़ा तालाब है। कभी इसका संपर्क बूढ़ी गंडक से रहा है। लेकिन बूढ़ी गंडक पर बांध बनने के बाद इसका संपर्क नदी से रोक दिया गया है। लेकिन इसमें वर्षा का पानी कई सालों से पूरी तरह नहीं भर पाया है। इसलिए इसका कम गहराई वाला हिस्सा तीन-चार महीनों को छोड़ मैदान जैसा हो जाता है। इससे यहां अधिक पानी में होनेवाला धान नहीं हो पाता। चूंकि इसमें कई महीने पानी रहता है, सो ठीक से गेहूं आदि फसल भी नहीं हो सकती।

धान की जो नई किस्में आई हैं, उसको बहुत सावधानी से और रासायनिक उपचारोें के साथ लगाना पड़ता है जो किसानों के लिए काफी खर्चीला है। अगर इसमें जरा सी चूक हुई तो पूरी फसल चौपट। इसके तने भी काफी छोटे होते हैं जिससे जानवरों के लिए चारा नहीं मिल पाता है। हां, इन फसलों की उपज बढ़़ जरूर गई है, लेकिन न तो देसरिया का स्वाद है और न ही उसके जैसा धान।

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