जल संरक्षण एवं संवर्धन के उपाय

जल संरक्षण एवं संवर्धन के उपाय
जल संरक्षण एवं संवर्धन के उपाय

वर्षा जल संग्रहण पर विशेष ध्यान देते हुए प्रथम प्राकृतिक संसाधनों का संपूर्ण गुणवत्तापूर्ण प्रबंधन तथा वर्षा जल को बेकार बहने से बचाना एवं इसके लिए जल प्रबन्धन विधियों को अपनाकर ही जल संरक्षण, जल संवर्धन तथा जल संचयन कार्य किया जा सकता है। वर्षा जल संचयन / मृदा क्षरण को हम निम्न विधियों से कम कर सकते हैं-

1. समोच्च खाई (कन्टूर ट्रेन्च)

जल संग्रहण के लिए पहाड़ी / ढलानयुक्त क्षेत्रों में समान ऊंचाई वाले ट्रेन्च / खंतियां बनाना बरसाती पानी के सतही बहाव को कम करने तथा मिट्टी के कटाव को रोकने का आसान तथा सस्ता उपाय है। यह ट्रेन्च (खाई) समोच्च रेखा पर खोदी जाती है। समोच्च रेखा एक ऐसी काल्पनिक ऊंचाई वाले बिंदुओ को आपस में जोड़ती है। समोच्च खाई दो प्रकार की होती है-

  1. निरन्तर (Continuous)
  2. बिखरी हुई (Staggered)

चूंकि यह खाई उसी रेखा पर खोदी जाती है जो समान ऊंचाई पर हो, इसलिए यह खाई में लम्बे समय तक जल प्रवाह को बनाए रखने की सम्भावना को बढ़ा देती है। यदि खाइयां बनाने में समोच्च रेखा का अनुपालन नहीं किया जाएगा तो वे खाइयां वास्तव में मिट्टी के कटाव की सम्भावना को बढ़ा देंगी क्योंकि भूमि के ढलान में वृद्धि के परिणामस्वरुप जल बहाव का वेग बढ़ जाएगा।

2. समोच्च बांध बनाना 

समोच्च रेखा एक ऐसी काल्पनिक रेखा है जो समान ऊंचाई वाले बिन्दुओं को आपस में जोड़ती है, जिससे समान ऊंचाई वाली रेखा पर बांध बनाने से बांध में दीर्घकाल तक जल प्रवाह को बनाये रखने की संभावनाएं बढ़ जाती है। यह बांध एक ही ऊंचाई वाले स्थानों से होकर बनाये जाते हैं। समोच्च बांध का निर्माण जहां वर्षा कम होती है अथवा
भूमि जल शोषण शक्ति अधिक रहती है वहीं किया जाता है। समोच्च खाइयों की तरह बांध भी पहाड़ी क्षेत्रों में गिरने वाले वर्षा जल को एकत्र करते है। जल के साथ-साथ काटकर लाई गयी उपजाऊ मिट्टी भी बांध में इकट्ठी होती है। इसलिए समोच्च बांधों को उपयुक्त वानस्पतिक कार्यों से जोड़ना जरुरी है। समान गहराई वाली खाइयों (कन्दूर ट्रेन्चेज) का निर्माण गैर कृषि योग्य पहाड़ी (रिज) क्षेत्रों में किया जाता है। भारत सरकार ने इसे अधिकतम भूमि ढलान 3 से 10 प्रतिशत तक बनानें की अनुमन्यता प्रदान की है। उ0प्र0 में इसे खेती योग्य भूमि पर 6 प्रतिशत ढाल तक बनाया जा सकता है।

अतिरिक्त वर्षा जल के सुरक्षित निकास के लिए उपयुक्त स्थान पर पक्के ढलानों का निर्माण समोच्च बांधों के साथ किया जाता है। अतएव पक्के ढलानों का निर्माण समोच्च बांधों के अंग के रुप में होना चाहिए। भारत सरकार नें 0.6 मीटर की ऊंचाई 2.0 मीटर चौड़ाई आधार तथा 0.66 वर्ग मीटर अनुप्रस्थ काट वाले क्षेत्रफल वाले एक समोच्च बांध की इकाई लागत प्रति हेक्टेयर लगभग 14,000 रुपये इन्डीकेटिव लागत बताई है। जल प्रवाह की लम्बाई के मामले में यह लागत प्रति मीटर 42.00 रुपये आती है। अकुशल मजदूरी : सामग्री लागत 85:15 आती है।

समोच्च रेखीय बांध का निर्माण

कम वर्षा वाले (वार्षिक वर्षा 500-1500 मि.मी. से कम) तथा कम ढाल दार (लगभग 6 प्रतिशत से कम ढाल) क्षेत्रों में समोच्च मेड़बन्दी का प्रयोग किया जाता हैं। इसमें ढाल की दिशा के विपरीत समोच्च रेखाओं पर मिट्टी की मेड़ बनाकर अपवाह को रोक कर वर्षा जल को मिट्टी में प्रवेश करने का अवसर दिया जाता है।

कन्टूर मेड़ों की डिजाइन करना :

किसी क्षेत्र में या कन्टूर मेड़ों का नियोजन करने के लिए निम्न बातों की जानकारी आवश्यक है :-

  1.  ढाल की प्रवणता या ग्रेडिएन्ट ।
  2.  अन्तरण ।
  3.  मेड़ की अनुप्रस्थ काट ।
  4.  समोच्च मेड़ों के आवश्यक समायोजन के लिए अन्तरण दो प्रकार से प्रकट किया जाता है:

(क) उर्ध्वाधर या उदग्र अन्तराल ।
(ख) क्षैतिज अन्तराल ।

(क) उर्ध्वाधर अन्तराल :

दो क्रमिक मेड़ों के तलों की ऊँचाइयों के आपेक्षिक अन्तर को उर्ध्वाधर अन्तराल नाम दिया गया है इसको निम्नलिखित सूत्रों की सहायता से निर्धारित किया जा सकता है।

विचलन की सीमा :

हालांकि समोच्च या कन्टूर बन्ध समान ऊँचाई की समोच्च रेखाओं पर बनाए जाते हैं। लेकिन विशेष परिस्थितियों जैसे ऊबड़-खाबड़ क्षेत्र, किसान की जोत सीमाएं आदि में उन्हें ऊँचाई की ओर 10 से.मी. तक अथवा गढ्ढे आदि आने पर 20 से.मी. तक विचलित किया जा सकता है।

(ख) मेड़ का आकारः

मेड़ का अनुप्रस्थ काट उसकी ऊँचाई, आधार व शीर्ष की चौड़ाई से दिखलाया जाता है। मेड़ का आकार समलम्बाकार रखा जाता है तथा आकार निम्न प्रकार संगणित किया जाता है।

(ग) मेड़ की ऊँचाई :

मेड़ की ऊँचाई बन्ध द्वारा अवरोधित अपवाह जल (रोके गये पानी) की ऊँचाई पर निर्भर करती है जो यह दो क्रमिक मेड़ों की क्षैतिज दूरी और वर्षा की मात्रा पर निर्भर करती है। बांधो की ऊँचाई इतनी होनी चाहिए जो उस क्षेत्र में अभिकल्प या डिजाइन आवर्तन काल (10 वर्ष या अधिक) के लिए 24 घण्टे में होने वाले प्रत्याशित अपवाह जल को सुरक्षापूर्वक नियंत्रित कर सकें।

(घ) समोच्च मेड़बन्धी में अतिरिक्त जल निकासी प्रबन्ध :

कन्टूर या समोच्च मेड़ों को हानि से बचाने के लिए और अतिरिक्त जल की निकासी के लिए निकासी संरचनाओं को बनाया जाता है। अधिक पारगम्य भूमियों एवं 300 मि.मी. से कम औसत वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों को छोड़कर अन्य सभी क्षेत्रों में निकासी संरचनाओं की जरूरत पड़ती है। इसके लिए विभिन्न प्रकार की निकासी संरचनायें प्रयोग में लायी जाती हैं, जैसे खुला परिपाती उत्प्लव या वेस्ट वीयर, नाली वीयर, पाइप निर्गम मार्ग, पनकट नाली तथा रपट। उत्प्लव वीयर  या रैम्प कम वेस्ट वियर जिसे चित्र में दिखलाया गया है।

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खेत बंधियां

फील्ड बंडिंग : कम ढालू भूमि में ये बंधियां बड़ी उपयोगी सिद्ध हुई है। यह पानी को रोक कर इकट्ठा करती है और भूमि कोकटने व बहने से बचाती है। समतल खेत की मेढ़ मजबूत बनाकर रखनी चाहिए, जिससे खेत का पानी बाहर न निकल सकें। ये बांध खेत के चारों ओर सीमा पर बनाये जाते हैं। समतल खेतों में इनका क्रॉस-सेक्शन बहुत कम होता है, किन्तु असमतल खेतों में इनका आकार पानी रोकने की दृष्टि से बड़ा बनाया जाता है। इन बांधों से घेर बाड़ का भी कार्य लिया जाता है तथा सीमा पर इन पर कटीली झाड़ियां भी लगा दी जाती है। भूमि संरक्षण परियोजना के अन्तर्गत शुष्क कृषि कार्यक्रम चलाने हेतु फील्ड बंडिग भी नितान्त आवश्यक है, क्योंकि इससे नमी संरक्षण में सुविधा होती है। इन बांधों को किसान अपनी सुविधानुसार बनाते हैं, किन्तु उ०प्र० की सामान्य स्थिति में 0.438 वर्ग मीटर क्रॉस-सेक्शन का बांध बनाना अधिक उपयोगी होगा। भारत सरकार नें 06 मीटर ऊंचाई 1'7 मीटर चौड़ा आधार तथा 0'57 वर्ग मीटर अनुप्रस्थ काट क्षेत्रफल वाले मानक स्तर के खेत बांध की इकाई लागत प्रति हेक्टेयर 8000 रुपये इन्डीकेटिव लागत बताई है। अकुशल श्रम सामग्री लागत का अनुपात 85:15 है। यह कार्य केवल उन पात्र परिवारों के लिए है जो माहात्मा गांधी नरेगा के तहत निजी जमीन पर कार्य के लिए पात्र हैं।

खेत बांध का निर्माण कृषि भूमि पर किया जाता है। जिसका उद्देश्य मिट्टी के कटाव को रोकना तथा मिट्टी की नमी के स्तर को बढ़ाना है। आदर्शतः खेतों पर बाँध समोच्च रेखा पर बनाए जाने चाहिए। किसान इसे आसानी से स्वीकार नहीं करते हैं क्योंकि इससे किसानों को कई दिक्कतें होती है। समोच्च बांध खेत को असमान हिस्सों में बांट देते हैं। ऐसी स्थिति में हल चलाने वाले को हल चलाने के काम जैसे जोतना और बुआई करने में असुविधा होती है। इन दिक्कतों के कारण आमतौर पर खेत बांध बनाने के नाम पर खेत की मेड़ के साथ बांध बना दिया जाता है। खेत को कई खण्डों में बांटने से बांध ऐसे प्रत्येक खण्में जल प्रवाह की मात्रा और वेग को नियंत्रित करता है। खेत मे जाने वाला पानी और उस पानी के साथ जाने वाली मिट्टी हर बांध में जमा हो जाती है। इस तरह, जल को स्वतंत्र रुप से बहने के लिए पर्याप्त स्थान नहीं मिल पाता है और बांध जल की गति को रोक देते है। बांध बनाने से मिट्टी की नमी का स्तर बढ़ता है, और वह स्थायी होता है।

1. ग्रेडेड बांध : भूमि पर ढाल देते हुए बनाया जाता है।
2. साइड बांध : समोच्च बांध के दोनों छोरों पर बनाया जाता है।
3.लेटरल बांध : लम्बे समोच्च बांध को विभाजित करने के लिए बनाया जाता है।
4. वाटर हारवेस्टिंग बांध : वर्षा जल को संरक्षित करने और सस्य उपयोग के लिए बनाया जाता है।
5. मार्जिनल या सीमान्त बंधी: किसी नदी, नाले के समानान्तर बनाया जाने वाला बांध ।
6. जल निकास द्वार : मिट्टी का कटाव रोकने के लिये यह आवश्यक है कि खेत से फालतू पानी को इस प्रकार निकाला जाये कि मिट्टी बहने से बच जाये। इसके लिये विभिन्न प्रकार के जल निकास द्वार बनाया जाना चाहिये।ब- गैर कृषि भूमि पर निम्नांकित संरचनाएं निर्मित की जानी चाहिए।

अवरोधक बांध-

1. नालों के आर-पार बांध बनाकर इन्हें शीघ्र ही भरा जा सकता है। इन बांधों के कारण भूमि का कटाव रूक जाता है और बांध के ऊपर की भूमि शीघ्र भर जाती है बांध की नीचे की भूमि का भी कटाव रूक जाता है।
2. विपथन नालियों ।
3. समोच्च तथा सान्तर खंतियों (ट्रेन्चेज)।
4. बीहड़ों में स्थाई ड्राप संरचनाएं।
5. नाले का उपचार ।
6. खड़े ढालों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए धारक / पुश्ता दीवार ।
7. वेदिकायन या सीढ़ीदार खेत बनाना ।
8.पहाड़ी ढालों पर सीढ़ीनुमा छोटे-छोटे समतल खेत बनाये जाते हैं। इस विधि को बेन्च टेरेसिंग कहते हैं। इस प्रकार के खेती में जुताई-बुआई करने से भूमि का कटाव रूकता है। वेदिकाओं को पहाड़ों के अतिरिक्त नाले अथवा नदी के बीहड़ क्षेत्रों में भी निर्मित किया जाना चाहिए ।

गैर कृषि भूमि में अभियांत्रिकी संरचनाएं :

कृषि रहित भूमियां वे भूमियां हैं जो एक या अधिक कारणों से कृषि फसलों के कृषक के लिए अनुपयुक्त होती हैं, जिनमें कुछ कारण इस प्रकार हो सकते हैं-भूमि का अधिक ढाल, पथरीलापन, उथली, मृदा अपरदन, बाढ़ अथवा मौसमी कारण आदि। इन्हें परती अथवा बंजर भूमियां भी कहा जाता है। इन भूमियों में बीहड़ों का निर्माण व विस्तार, भूस्खलन, जल स्रोतों का सूखना, अत्यधिक गाद (सिल्ट), जलाशयों में गाद भराव, बाढ़ आदि ।

इन भूमियों में मृदा संरक्षण के अन्य उपायों जैसे वनीकरण आदि के साथ अभियांत्रिकी उपायों का प्रयोग भी जरूरी हो जाता है। अत्यधिक समस्याग्रस्त क्षेत्रों जैसे भूस्खलन व खनन क्षेत्रों में उपजाऊ मृदा आवरण तथा नमी के अभाव में वनस्पति का उगना अपने आप में समस्या है। यदि इन क्षेत्रों से अपवहन तीव्र गति से होता हो तो केवल वानस्पति तरीके उसको रोकने के लिए काफी नहीं हो सकते हैं। अभियांत्रिकी संरचनाएं नाले के ढाल को कम कर अपवहन जल के वेग को कम करने में सहायता करती हैं और उसे मृदा अवशोषित करने का अवसर देती हैं। इस प्रकार अभियांत्रिकी संरचनाएं सुरक्षा की प्रथम पंक्ति हैं जो वानस्पतिक उपायों के साथ समायोजित होने पर पूरा लाभ दे सकती हैं। गैर कृषि भूमियों में निम्नलिखित अभियांत्रिकी उपाय आमतौर पर काम में लाए जाते हैं।

  • बीहड़ भूमियों का सुधार ।
  • विपथन नालियाँ (डाइवर्जन ड्रेन) ।
  • समोच्च तथा सान्तर खंतिया,(ज्तमदबीमे) ।
  • अवरोधक बांध ।
  • बीहड़ों में स्थायी ड्राप संरचनाएं ।
  • खड़ी ढालों के स्थायीपन के लिए पुश्ता / धारक दीवार ।

बीहड़ भूमियों का सुधार :

बीहड़ भूमियों के सुधार हेतु सर्वप्रथम बीहड़ भूमियों के प्रकार तथा उनकी विशेषताओं की जानकारी प्राप्त करके ही उनके सुधार के बारे में सोंचा जा सकता है।

अवनलिका तथा बीहड़ भूमियों का वर्गीकरण :-

अवनलिका तथा भूमियों के माध्यम से यांत्रिक प्रविधियों को अपनाते हुए राज्य एवं केन्द्र सरकार अग्रसर है। इंडियन फोटो इंटर प्रेटेशन इन्स्टीट्यूट देहरादून के वर्गीकरण निम्नवत् है :

पटल भूमि - सामान्य ढाल ।
पेरीफेरल भूमि - पटल भूमि एवं उथले बीहड़ के बीच स्थित भूमि जो सामान्यतया ढाबर होती है।
उथला बीहड़ - गहराई 2.50 मीटर ।
मध्यम बीहड़ - 2.5 से 5.0 मीटर गहराई।
गहरा बीहड़ - गहराई 5.0 मीटर से अधिक ।
चौड़े वैली वाटम - 16 मीटर से अधिक चौड़े ।
ढालू वैली वाटम - 16 मीटर से अधिक चौड़ ।

पटल भूमि :

पटल भूमि जो कि कुल क्षेत्र का 36.5 प्रतिशत है एवं सामान्यतः इसका ढाल 1.3 प्रतिशत तक देखा गया हैं। इस प्रकार के क्षेत्रा में जब वर्षा की बूदें गिरती है तो मिट्टी  के कण, वानस्पतिक आच्छादन न होने के कारण इधर-उधर बिखर जाते हैं और भूमि की एक पतली सी सतह निचले स्थानों की ओर अग्रसर हो जाती है। दिन-प्रतिदिन होने वाली इस प्रतिकिया को अपने से ऊंचे स्थानों को प्रभावित करती रही है। ढाल में वृद्धि हो जाने के कारण भूमि में जल रसाव नहीं हो पाता है।

अधिकांशतः इस प्रकार के क्षेत्र ग्राम वासियों के निजी क्षेत्र होते हैं। इन क्षेत्रों को बिना समतलीकरण किये यदि कुछ घासों का सहायता से पूरे प्रक्षेत्रों को शतरंज के बोर्ड के अनुसार विकसित किया जाये और उसके बीचों-बीच ऑवला, अमरूद, बेर, कटहल, नींबू एवं किन्नों प्रजाति के पौधों का विकास किया जाय तो निश्चित रूप से इस प्रक्षेत्रा को आर्थिक दृष्टिकोण से लाभकारी बनाया जा सकता है और इस प्रकार समस्या का समाधान किया जा सकता है। इस भूमि को विकसित करने के लिए सिंचाई समस्या प्रमुख है। जिसका कि समाधान नवीन सिंचाई पद्धति (ड्रिप सिंचाई) से किया जाना लाभकारी सिद्ध होगा। प्रक्षेत्रा द्वारा न केवल आर्थिक लाभ होगा बल्कि क्षेत्र में होने वाली मिट्टी के कटाव में भी सुधार होगा और मिट्टी के कटाव के सुधार के साथ-साथ मिट्टी के प्रकार एवं गुणों में लाभकारी वृद्धि होगी। पटल भूमि से जुड़ी अगली-निचली भूमि (पेरीफेरल) को भी सुधारने में सहायता मिलेगी।

पेरीफेरल भूमि :

यह भूमि का वह भाग हे जो पटल भूमि एंव उथले खारों को जोड़ता है, इस क्षेत्र में जल का आर्थिक बहाव होता है तथा भूमि की उपजाऊ शक्ति अधिक क्षीण एवं भूमि कंकरीली होती है। बीहड़ क्षेत्र का यह क्षेत्र पूरे प्रक्षेत्रा का 11 प्रतिशत होता है। इन क्षेत्रों में समोच्च रूप में घास एवं जंगली बेर उगाकर एक वर्षीय बेर विकसित हो जाने के उपरान्त बेर के पौधों पर उत्कृष्ट गुणवत्ता बाले बेरों को बडिंग विधि द्वारा विकसित किया जा सकता है।

उथले बीहड़ :

उथले बीहड़ पूरे प्रक्षेत्रा का लगभग 14 प्रतिशत भू-भाग में विकसित है। इन प्रक्षेत्रों की विशेषता यह होती है कि ऊपरी सतह से बहकर आने वाली उपजाऊ मिट्टी का कुछ भाग इन प्रक्षेत्रों में एकत्र होता रहता है। यह उथले बीहड़ जिनमें 1.5 मीटर तक टीले पाये जाते हैं, इनमें भी नीबू, अमरूद, ऑवला, बेर आदि फलों की खेती इण्टर क्रापिंग के रूप में की जा सकती है।

मध्यम बीहड़ :

मध्यम प्रकार के बीहड़ 3-5 मीटर के टीले के रूप में होते हैं। इन प्रक्षेत्रों में औद्यानिक विकास हेतु उपरोक्त सभी फसलों को विकसित किया जा सकता है, परन्तु सिंचाई हेतु इन बीहड़ों में वर्षाकालीन जल को रोककर जलाशयों को विकसित किया जाये जो इस प्रक्षेत्रा का आर्थिक उपयोग किया जाना सम्भावित होगा।

बताये गये क्षेत्रों में अब तक किये गये शोध प्रयोगों के आधार पर औद्यानिक विकास की अत्यन्त सम्भावनायें हैं। चूंकि इन प्रक्षेत्रों में बहने वाली मिट्टी में उर्वरा शक्ति अधिक होती है और जिसका लाभ औद्यानिक फसलें अपने विकास के लिए उपयोग कर सकती हैं। फलस्वरूप घास एवं पौधों के आच्छादन से भू-गर्भ जल-स्तर में वृद्धि, आर्थिक स्थिति में सुधार एवं निरन्तर होने वाले भूमि कटाव का निदान प्रभावी रूप से लाभकारी सिद्ध हो सकता है।

बीहड़ भूमियों के उपरोक्त वर्गीकरण के अतिरिक्त तेजवानी एवं ध्रुवनारायण (1960) ने इन्हें निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया है-

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बीहड़ क्षेत्र के लिए निम्नलिखित कार्य प्रस्तावित है:

  • बीहड़ प्रोटेक्शन - पटल भूमि में बांध निर्माण\
  • बीहड़ कन्ट्रोल - पेरीफेरन भूमि में सीमान्तक बांधों का निर्माण एवं समतलीकरण ।
  • बीहड़ सुधार (रिक्लेमेशन) - उथले बीहड़ में बेंच टेरेसिंग एवं कृषि भूमि में छोटे-छोटे चेकडैम
  • बीहड़ स्थिरीकरण (स्टैबिलाइजेशन) मध्यम एवं गहरे बीहड़ में चेक डैम का निर्माण एवं वनीकरण ।

स्थायी संरचनाओं के प्रकार :

अवनालिका नियन्त्रण में प्रयुक्त संरचनाओं के मुख्यतः निम्नलिखित संरचनाएं होती हैं-

  1.  अवरोधन बाँध ।
  2. ड्राप स्ट्रक्चर ।
  3.  नलिका उत्प्लव मार्ग ।
  4. ड्राप इनलेट पाइप स्पिलवे ।
  5.  अवनालिका शीर्ष पर प्रयुक्त बाँध ।

इन स्थायी संरचनाओं के माध्यम से नाले को नियंत्रित किया जा सकता है। जल प्रपात की ऊंचाई के अनुसार प्रयुक्त संरचनाओं में परिवर्तन करना पड़ता है।

अभिकल्प विशेषताएँ :

किसी भी जलीय संरचना में प्रवेश द्वार, बाहर के नली और निर्गम मुख्य भाग होते हैं। इन तीनों भागों की निर्माण विधि के अनुसार ही संरचनाएं वर्गीकृत की जाती है। कुछ विशेष भागों की बनावट में भी अन्तर होता है। जलीय विशेषताओं के अतिरिक्त इन संरचनाओं के साथ उपयुक्त विंग दीवाल, पार्श्व दीवाल विस्तार और किनारे की दीवाल इत्यादि निर्माण भाग भी सुचारू रूप से प्रयुक्त होने चाहिए। एक साधारण संरचना के विभिन्न भागों को चित्र में दर्शाया गया है। मुख्य रूप से ये भाग सभी प्रकार की संरचनाओं में होते हैं केवल बनावट में थोड़ा अंतर आ जाता है। स्थायी संरचनाओं के लिए मजबूत संस्थापना आधार होना चाहिए अन्यथा रिसाव द्वारा संरचना के टूटने की संभावना रहती है। इस दृष्टि से पृष्ठ की मिट्टी एवं जैव पदार्थों को हटाकर तथा कुछ गहराई तक गुड़ाई करने के बाद संरचना का निर्माण करना चाहिए। इससे आधार एवं संरचना के बीच संबंध स्थापित हो जाता है।

  1.  किनारों की दीवाल ।
  2. विंग दीवाल ।
  3. शीर्ष दीवाल विस्तार ।
  4.  समतल भाग ।
  5.  पार्श्व दीवाल ।
  6.  शीर्ष दीवाल ।
  7. अवरोधक दीवाल ।

बाँध वाली जगह का चयन करना :

1. बाँध के लिए उपयुक्त नींव उपलब्ध होनी चाहिए।
2. बाँध की लम्बाई कम रखने के लिए नदी का अनुप्रस्थ काट कम चौड़ा होना चाहिए।
3. बाँध वाली जगह के पीछे नदी चौड़ी होनी चाहिए ताकि बाँध के कारण बने जलाशय में अधिक पानी एकत्रित हो सके ।
4. यदि नदी किसी जगह बहुत गहरी है और इसके आगे नदी का तल फिर ऊँचा आ जाता है तो इस ऊँचे तल पर बाँध बनाना चाहिए।
5. स्पिलवे स्थापित करने के लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ उपलब्ध होनी चाहिए। यदि स्पिलवे, मुख्य बाँध के ही पार्श्व में स्थापित करने हैं तो म मुख्य बाँध तथा स्पिलवे दोनों के लिए नदी की उचित चौड़ाई उपलब्ध होनी चाहिए।
6. बाँध के निर्माण में काम आने वाले पदार्थ स्थानीय रूप से उपलब्ध होने चाहिए।

अवरोधक बॉध :

बहाव जल में निलंबित ठोस पदार्थ अवनालिका के अनुप्रवाह क्षेत्र में जलापूर्ति से संकट पैदा कर सकते हैं। यदि इन ठोस पदार्थों को अवनालिका के विभिन्न स्थानों पर उपयुक्त संरचनाओं द्वारा अवरूद्ध कर लिया जाता है तो वनस्पतियों को स्थापना में सहायता मिलती है। स्थायी रूप से निर्मित इन संरचनाओं को अवरोधक बांध से जाना जाता है। ये संरचनाएं उन्हीं सिद्धान्तों पर कार्य करती हैं। जिन पर कि रोक बॉध प्रयुक्त होते हैं।

गेबियन संरचनाएं :

भूमि एवं जल संरक्षण के लिए विभिन्न संरचनाओं जैसे उतार उत्प्लव मार्ग,क्रॉस  बेरियर, रोकबन्ध, स्पर व शूट स्पिलवे आदि के निर्माण में गेबियन संरचनाओं का प्रयोग बहुतायत से किया जाता है। "गेबियन" तार की जालियों में पत्थर भर कर बनाए गये बक्से हैं। गेबियन के लिए 10-12 गेज का गेलबनाइज्ड लोहे का तार प्रयोग किया जाना चाहिए। जाल बुनते समय जाल के खानों का आकार 7.5 से.मी. से 15 से.मी. आयतानुसार रखा जाना चाहिए। गेबियन से बनी संरचनायें कंक्रीट व सीमेंट से बनी संरचनाओं की अपेक्षा सस्ती व अधिक कार्यकुशल पाई जाती हैं। इनकी कुछ विशेषताएं इस प्रकार हैं-
(1) अपेक्षाकृत कम खर्च (2) स्थानीय साधनों व कारीगरों द्वारा बनायी जा सकती हैं (3) आवश्यकता पड़ने पर अपना आकार बदल सकते हैं जिससे इनके टूटने का खतरा कम रहता है, और (4) इनसे होकर पानी रिस सकता है, अतः संरचना पर पानी का दबाव कम हो जाता है।

जाल बुनने के लिए निर्धारित लम्बाई में तार के टुकड़े काट कर एक लकड़ी की बल्ली में दो-दो के जोड़े में निश्चित दूरी पर कील की सहायता से ठोक दिए जाते हैं। इस प्रकार तार की सम्पूर्ण लम्बाई को जाल की शक्ल में बुन लिया जाता है। प्रत्येक 10 मीटर निर्मित जाल की लम्बाई के लिए लगभग 13 मीटर लम्बे तार की जरूरत होती है।

घासदार जल मार्ग :

घासदार जलमार्ग व निर्गम मार्ग प्राकृतिक या निर्मित हो सकते हैं जिनका प्रयोग वेदिकाय विपथन, नालियों, जलाशयों के संकटकालीन उत्प्लव मार्ग आदि द्वारा अपवाह जल को सुरक्षा पूर्वव जगह निकालने के लिए किया जाता है।

पत्थर के रोक बांध (बोल्डर चैक)

पत्थर से बनाये गए रोक बांध चट्टान के टुकड़ों छोटे नालों अथवा मौसमी जल धाराओं, जिनका 50 हेक्टेयर से भी कम का बहुत ही छोटा कैचमेंट एरिया होता है, पर बनाये गये बांध हैं। पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़ों से रोक बांध (वोल्डार चैक) बनाने का प्रमुख उद्देश्य नालों मे बह रहे पानी के वेग को कम करना है। जल प्रवाह के वेग को कम करके पत्थर के रोकबांध मिट्टी के कटाव, गाद रोकने की प्रक्रिया को कम करने, जिससे वाटरशेड के निचले क्षेत्रों में वर्षा जल संग्रहण संरचनाओं में गाद जमा होने की गति में कमी आती है, उसी स्थान पर हाइड्रोलिक हेड बनाने, जो भूजल प्रणाली में सतही जल प्रवाह के अंतःस्पन्दन को बढ़ाता है तथा नालों में जल प्रवाह की अवधि बढ़ाने में मदद करते हैं। इसलिए नालों की निचली सतहों पर बनाई गयी जल संग्रहण संरचनाओं की क्षमता का और अधिक उपयोग हो पाता है क्योंकि इससे उनका और अधिक पुर्नभरण होता है।

7 मीटर लम्बाई, 1 मीटर की अधिकतम ऊंचाई, ऊपरी धारा तथा निचली धारा पर 1:1 तथा 3:1 की ढलान और 0.5 मीटर ऊपरी चौड़ाई वाले पत्थर के रोक बांध की इकाई लागत 4000 रुपये आती है। पत्थर के रोकबांधों के 200 मीटर के दायरे में उपलब्ध होने के मामले में अकुशल मजदूरी लागत कुल लागत के बराबर होती है।

तालाब :

वर्षा जल संचयन हेतु निम्नलिखित प्रकार के जलाशय या तालाब बनाये जाते हैं:-
1. खुदाई द्वारा बनाए गए तालाब ।
2. बॉधयुक्त तालाब
3 रिसन या परकोलेशन तालाब।

उपयोग एवं सीमाएं:

पोखर अधिकतर मवेशियों को पीने के पानी की जरूरत के लिए अधिक उपयोगी रहते हैं क्योंकि ये आमतौर पर छोटे होते हैं। इनकी क्षमता मवेशियों की पानी की आवश्यकता तथा वाष्पन द्वारा होने वाली हानियों पर निर्भर करती है।

खुदे हुए तालाब -

खुदा हुआ तालाब या पोखर अपेक्षाकृत समतल जमीन पर मिट्टी खोदकर बनाए जाते हैं। इनमें पानी की आपूर्ति जल विभाजक क्षेत्र अथवा प्रस्राव जल से होती है। इसको लगभग समतल भूमि में मिट्टी खोदकर बनाया जाता है। इस प्रकार के तालाब का निर्माण अपेक्षाकृत खर्चीला है और उन्हीं स्थितियों में ठीक है जहाँ अपेक्षाकृत कम जल संवर्धन की आवश्यकता हो। इसके अतिरिक्त बाँध युक्त व खुदे हुए तालाब का मिश्रित प्रकार पर भी कुछ परिस्थितियों में ठीक रहता है।

निर्माण स्थल का चुनाव: तालाब ऐसी जगह बनाना चाहिए, जहाँ पर उससे अधिकतम लाभ हो व निर्माण कार्य भी सुविधाजनक रहे। निर्माण स्थल चयन में निम्नांकित बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए। अतः इस कार्य हेतु स्थल मार्ग-दर्शक बिन्दु निम्न हैं :-

  1.  मवेशियों को पीने के पानी की सुविधा एवं मनुष्यों की दैनिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए तालाबों का जीर्णोद्धार सभी क्षेत्रों में किया जाना उचित होगा, परन्तु नये तालाबों का निर्माण उन क्षेत्रों में किये जाने की आवश्यकता नहीं है, जहाँ पर कि भू-जल स्तर की गहराई जमीन से पाँच मीटर या कम है।
  2.  तालाबों का निर्माण उन्हीं क्षेत्रों में किया जाना उचित होगा जहाँ पर भू-जल स्तर 8 मीटर या उससे अधिक हो गया हो। जिन क्षेत्रों में 5 मीटर से 8 मीटर तक भू-जल स्तर है वहाँ पर तालाबों का निर्माण / जीर्णोद्धार किया जा सकता है परन्तु इन क्षेत्रों में रिचार्ज शाफ्ट लगाया जाना उचित नहीं होगा।
  3. जिन क्षेत्रों में भू-जल स्तर 8 मीटर या उससे अधिक हो वहाँ पर तालाबों के निर्माण / जीर्णोद्धार के साथ-साथ रिचार्ज शाफ्ट भी बनाया जाना आवश्यक है परन्तु पठारी क्षेत्रों में जहाँ जल स्रोतों का अभाव है वहाँ पर रिचार्ज शाफ्ट बनाया जाना उचित नहीं है, क्योंकि इन क्षेत्रों में पूरे वर्ष तालाबों में पानी उपलब्ध रहना अधिक आवश्यक है। रिचार्ज शाफ्ट बनाने से पानी भूमि के अन्दर चला जाता है। अतः पठारी क्षेत्रों में रिचार्ज शाफ्ट बनाये जाने की आवश्यकता नहीं है।
  4.  रिचार्ज शाफ्ट की गहराई इस प्रकार होनी चाहिए कि उसका अन्तिम बिन्दु भू-जल स्तर से कम से कम 2 मीटर ऊपर हो, जिससे कि भू-जल के प्रदूषण की सम्भावना न हो।
  5.  भारी मृदाएं जिनमें पानी का रिसाव कम होता है, अच्छी मानी जाती हैं। इसके लिए यदि मिट्टी पारगम्य प्रकृति की या रेतीली हो, तो विभिन्न उपायों से इसे सील करने की आवश्यकता होती है।
  6.  तालाब के जलागम क्षेत्र के कम से कम तीन चौथाई भाग में जंगल अथवा वनस्पति का होना जरूरी है, जंगल सिल्टेशन को रोक सके व अधिक मिट्टी भरने से तालाब की क्षमता कम न होने पाये । जहाँ यह सम्भव न हो, वहाँ जलागम क्षेत्रों में भू-संरक्षण साधनों द्वारा भूक्षरण या मिट्टी का कटाव रोकना जरूरी होता है।
  7. तालाब की जल सतह के क्षेत्रफल की तुलना में बहुत बड़े जलागम क्षेत्रों का चुनाव नहीं करना चाहिए। वर्ना तालाब में बहुत अधिक मिट्टी बहकर आने की सम्भावना होगी और अपवहन द्वारा आने वाली पानी की अधिक मात्रा तालाब को नुकसान भी पहुँचा सकती है।
  8. तालाब का निर्माण प्रदूषण स्रोतों जैसे मल, जल की टंकी इत्यादि के समीप नहीं करना चाहिए।
  9. निर्माण स्थल ऐसे स्थानों पर होना चाहिए जहाँ तालाब में पानी पर्याप्त गहराई तक इकट्ठा हो सके, ताकि वाष्पन और रिसाव द्वारा होने वाली जल हानियों के बाद भी तालाब में पानी उथला न रहे।
  10. पानी का प्रयोग करने के लिए पम्प का प्रयोग कम से कम करना पड़े ऐसे स्थान का चयन करना चाहिए।
  11. मिट्टी के नीचे चूने का पत्थर अथवा दरारों वाले स्थल को इसके लिए नहीं चुनना चाहिए।

तालाब की क्षमता का निर्धारण : 

तालाब की क्षमता का निर्धारण पानी की मात्रा, जिसे इकट्ठा करने की आवश्यकता है और प्रक्षेत्र / जलागम क्षेत्र की भौतिक सीमाओं पर निर्भर करता है। किसी जलागम क्षेत्र से वर्ष भर होने वाले अपवहन की मात्रा कई कारकों पर निर्भर हैं जैसे वर्षा, जलागम क्षेत्र का क्षेत्रफल, भूमि का ढाल, मिट्टी की जल प्रवेश दर, वनस्पति का प्रकार व गहनता, सतही जल भण्डारण, इत्यादि । वर्षा की मात्रा, तीव्रता व समय भी अपवहन की मात्रा को निर्धारित करते हैं।

नियोजन :

तालाब का आकार आवश्यक क्षमता पर निर्भर करता है। यह जल संग्रहण (विभाजक) क्षेत्र के क्षेत्रफल, मिट्टी के प्रकार, वर्षा, अपवाह की मात्रा व उपलब्ध धनराशि आदि पर निर्भर करता है। खुदे हुए तालाब किसी भी आकार में हो सकते हैं लेकिन आयताकार आकार सुविधाजनक रहता है। तालाब का पार्श्व ढाल मिट्टी के अभिशयन कोण से अधिक नहीं रखा जाना चाहिए। सामान्यतः यह 1: 1 से अधिक रखा जाता है। तालाब में पशुओं के गुजरने के स्थल पर यह ढाल 4:1 तक रखा जाना चाहिए ।

तालाब के लिए आयतन का आँकलन खुदाई के लिए मिट्टी के आयतन का आकलन निम्न "प्रिजमोइडल सूत्र" द्वारा काफी सूक्ष्मता तक किया जा सकता है:

V =  A+4B+C /6 x D 
             
जहाँ    V = खुदाई हेतु मिट्टी का आयतन घन मी.
         A = भूमि की सतह पर खुदाई का क्षेत्राफल वर्ग मी.
         B = मध्य गहराई पर (1/2D) खुदाई का क्षेत्रफल वर्ग मी 
        C = धरातल पर खुदाई का क्षेत्रफल वर्ग मी.
        D = तालाब की औसत गहराई (मी.)

उदाहरण : एक खुदाई से बने तालाब के लिए मिट्टी के आयतन की गणना कीजिए। तालाब की औसत गहराई (D) 5 मी. है। तली की चौड़ाई (W) 25 मी. तथा तली की लम्बाई (L) 40 मी. है। पार्श्व ढाल को 2:1 लीजिए ।

 

 

रिसाव नियंत्रण उपाय 

तालाबों में अपवहन से प्राप्त किए गए जल का एक बड़ा भाग रिसाव द्वारा नष्ट हो सकता है। तालाबों में रिसाव द्वारा जल हानि को नियंत्रित करने के लिए विभिन्न पदार्थों का प्रयोग किया गया है, जैसे पॉलीएथिलीन शीट, सीमेन्ट व ईंट की चिनाई, विट्यूमन, मिट्टी व सीमेन्ट का मिश्रण आदि । इनमें पॉलीएथिलीन  की शीट व सीमेन्ट ईंट की चिनाई रिसाव नियंत्रण हेतु अधिक प्रभावशाली पाई गई है।

solution

खेतों में बनाये गये तालाबों का निर्माण निजी जमीन पर किया जाता है ताकि बहुत छोटे स्थानीय कैंचमेन्ट्स से आने वाले जल प्रवाह को इकट्ठा किया जा सके। भूमिगत खेत तालाब बनाने का प्रमुख कारण वर्षा जल को एकत्र करना है जिससे कि वह खेत से बाहर न बह पाए। वर्षा के मौसम में शुरुआत में अनेक ऐसे दिन होते हैं जब वर्षा नहीं होती है। सूखा के ये दीर्घकालिक दौर वास्तव में खरीफ फसल को नष्ट कर देते हैं। खेत में बनाये गये तालाब ऐसी फसल को नष्ट होने से बचाते हैं। मिट्टी बांधों के विपरीत खेत में बनाये गये तालाब अपेक्षाकृत भौगोलिक अड़चनों से मुक्त होते हैं। गाँव में समतल जमीन में धाराएं न तो बहुत गहरी होती हैं और न उनका ऊँचा तटबन्ध होता है। ऐसी समतल जमीनों में खेत में बनाए गये तालाब जल संग्रहण के सर्वाधिक प्रभावी उपाय होते हैं। ऐसी संरचनाएं बनाने का प्रमुख उद्देश्य खरीफ फसल के लिए सुरक्षात्मक सिंचाई की व्यवस्था करना है।

खुदाई कार्य : 

तालाबों की गहराई भूसतह से लगभग 3 मीटर तक की जाती है। 3 मीटर की गहराई तीन स्टेप्स में की जायेगी। उदाहरणतः अगर 1.0 हेक्टेयर (100 मीटर ग 100 मीटर) क्षेत्रफल का तालाब है तो तालाब के चारों ओर मिट्टी डालने के अनुमानित स्थान को छोड़ते हुए (लगभग 15 मी0 और 5 मी0 की पट्टी कुल 20 मी०) प्रथम स्टेप में 60 मी0 x 60 मी0 क्षेत्र में 1 मीटर गहरा किया जायेगा। इसके बाद 5 मी0 की पट्टी चारों ओर छोड़कर 50 मी0 x 50 मी0 क्षेत्रफल में (द्वितीय स्टेप में) एक मीटर गहरा किया जायेगा। इसके बाद 5 मीटर की पट्टी चारों ओर छोड़कर 40 मी0 x 40 मी0 क्षेत्रफल में (तृतीय स्टेप में) एक मीटर गहरा किया जायेगा। इस प्रकार तालाब के मध्य में तीन मीटर गहराई होगी।

प्रत्येक तालाब के क्षेत्र में चारों ओर 10 से 15 मीटर का स्थान तालाब से उपलब्ध होने वाली मिट्टी को डालने हेतु एवं  बांध  बनाने हेतु छोड़ना आवश्यक है, जिसकी ऊपर सतह की चौड़ाई लगभग 3 मीटर रखी जाये तथा आन्तरिक स्लोप 3:1 का रखा जाये। उसके उपरान्त चारों ओर 3 से 5 मीटर का बर्म चारों ओर रखा जाये जिससे कि बांध की मिट्टी तालाब में न जा सके तथा मवेशी या बच्चों के बन्धे से गिरने पर वह बर्म पर आकर ही रूक जाये तथा तालाब में डूबने से बच सके। इसके उपरान्त 3 स्टेप में खुदाई की जानी है। उदाहरणतः आधा एकड़ (0.2 हेक्टेयर) के डूब, क्षेत्र के तालाब के लिए 50 मीटर ग 40 मीटर का पहला स्टेप होगा। उसके उपरान्त 40 मीटर ग 30 मीटर का दूसरा स्टेप तथा 30 मीटर ग 20 मीटर का तीसरा स्टेप होगा।

उपरोक्त प्रकार से छोटे आकार (लगभग 0.2 हेक्टेयर डूब क्षेत्र) के नवनिर्मित किये जाने वाले हैं। बड़े साइज के निर्मित किये जाने वाले तालाबों अथवा जीर्णोद्धार किये जाने वाले तालाबों के सम्बन्ध में उपलब्ध तालाब के आकार को ध्यान में रखकर कार्य किया जाना चाहिए। बुन्देलखण्ड व पठारी क्षेत्रों में जहाँ जमीन का ढाल अधिक है तथा पानी का बहाव एक ही ओर को है वहां पर प्रस्तावित मिट्टी के बांध को तीन ही साइडों में रखा जायेगा तथा इसका आकार तालाब के आकार के अनुसार अर्द्धचन्द्राकार, या अन्य कोई आकार भी हो सकता है।

बुन्देलखण्ड व पठारी क्षेत्रों में जहाँ बड़े-बड़े तालाब उपलब्ध हैं या बनाये जाने की सम्भावना है वहाँ पर तालाब की गहराई स्थानीय परिस्थिति के अनुसार बढ़ाई जा सकती है। इसी प्रकार स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार स्टेप्स की ऊँचाई, चौड़ाई परिवर्तित की जा सकती है।

तालाब में रिचार्ज शाफ्ट प्रथम स्टेप के उपरान्त बनायी जायेगी जिससे कि कम से कम 1 मीटर जल तालाब में अवश्य रहे इसके साथ ही तालाब में पानी जिस ओर से आता हो उस तरफ पक्का इनलेट तथा अतिरिक्त पानी की निकासी हेतु प्राकृतिक रूप से जहाँ स्थान उपलब्ध हो वहाँ आउटलेट, पक्का घाट तथा मवेशियों को पानी पीने हेतु 1: 10 के ढाल का रैम्प बनाया जाना भी आवश्यक है।

यदि किसी तालाब की स्थिति इस प्रकार की है कि जिस इनलेट से तालाब में पानी आता है तथा तालाब के पूर्णतया (Full Supply Level) भरने के उपरान्त उसी रास्ते से वापस लौटने लगता है तो ऐसे तालाबों में इनलेट और आउटलेट को संयुक्त रूप से एक इकाई के रूप में आवश्यकतानुसार निर्मित किया जायेगा। इनलेट का न्यूनतम | आकार तालाब को (Full Supply Level) तक पर्याप्त जल भरने के अनुरूप होना चाहिए। इसी प्रकार आउटलेट का न्यूनतम आकार इनलेट के अधिकतम (डिस्चार्ज) जलागम की मात्रा के अनुरूप सुनिश्चित किया जाना चाहिए। तालाब के जीर्णोद्धार / निर्माण के चयन करते समय यह सुनिश्चित कर लिया जाए कि इसमें पानी आने एवं निकलने के रास्ते अवरूद्ध तो नहीं हैं।

तालाब निर्माण में ध्यान रखी जाने वाली अन्य बातें:

  1.  तालाब बनाने से पहले तालाब और कैचमेन्ट का निर्धारण बहुत आवश्यक है। भारी मिट्टी में यह अनुपात 1 : 5 तथा हल्की मिट्टी में यह 30 : 1 होना चाहिए।
  2. तालाब के निर्माण से पूर्व एक स्थाई पक्का बेंच मार्क अवश्य बनाया जाये जहाँ की आर0एन0 100 मीटर रखी जाये, उसके उपरान्त तालाब के साईज के अनुसार 10 से 15 मीटर के ग्रिड में लेबल लिया जाये तथा कन्दूर बनाये जायें। तालाब की गहराई 3 मीटर से अधिक न रखी जाये ।
  3. तालाब का कैचमेन्ट इस प्रकार होना चाहिए कि जिससे कि तालाब में सामान्य की एक तिहाई वर्षा होने पर भी तालाब पूरा भर सके ।
  4.  तालाब के अनुरक्षण हेतु ग्राम पंचायत का प्रस्ताव ले लिया जाये।
  5. जिन क्षेत्रों में जल प्लावन की स्थिति है वहाँ पर नये तालाब का निर्माण न किया जाये।
  6. जिन क्षेत्रों में प्रथम भूजल स्ट्रेटा सूख गया है तथा भूजल स्तर उससे नीचे चला गया है उन क्षेत्रों में रिचार्ज शाफ्ट प्रथम सूखे भूजल स्ट्रेटा तक बनायी जा सकती है।
  7. तालाबों के पश्चिम व दक्षिण दिशा में वृक्षारोपण किया जाना उचित होगा जिससे पानी का वाष्पीकरण कम से कम हो तथा ग्रामीणों को छाया उपलब्ध हो सके ।
बांधयुक्त तालाब:

इसमें किसी जल धारा के विरूद्ध मिट्टी का बांध बनाकर जलाशय का निर्माण किया जाता है। इस प्रकार के तालाब का निर्माण उन स्थलों पर सबसे अच्छा हैं, जहाँ दो ऊँची पहाड़ियों काफी सकरी हों, व उनका ढाल भी अधिक हो, ताकि पर्याप्त ऊँचाई तक पानी इकट्ठा किया जा सके ।

परकोलेशन टैंक :

परकोलेशन टैंक की क्षमता का पूर्व आंकलन नहीं किया जा सकता। परकोलेशन टैंक की ऊँचाई 0.90 मी से 3.0 मी तक रखते हैं जो स्थल की उपलब्धता पर निर्भर करेगी। इसका उपयोग वर्षा जल की रिचार्जिंग के लिए किया जाता है।

सिंचाई तथा परकोलेशन टैंक के लिए स्थल चयन

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जल संचयन संरचनाओं के निर्माण से पूर्व उसका कैचमेन्ट या जल समेट क्षेत्र का निर्धारण करना आवश्यक है क्योंकि उसी के आधार पर जल संचयन की मात्रा और संरचना की डिजाइन निर्धारित की जा सकता है। जल संचयी संरचना के ऊपरी क्षेत्र का विकास भी किया जाना होता है इसके अभाव में जल संचयी संरचना ठीक से कार्य नहीं कर पाता है और केवल देखने को ढांचा खड़ा होता है उसमें जल की मात्रा अपर्याप्त रहती है या अनियंत्रित तरीके से जल एकत्र होने के कारण संरचना टिकाऊ नहीं होती। 

इनलेट (जल आगमन) एवं आउट लेट (जल निकासी) का  निर्माण : तालाब में पानी आने के लिए प्राकृतिक रूप से पानी आने की दिशा में इनलेट तथा पानी निकासी के लिए आउटलेट का स्थानीय स्थितियों और जलागम क्षेत्र के आगणन व आवश्यकता के अनुरूप प्राविधान किया जायेगा तथा कच्चे अथवा पक्का निर्माण के लिए धन की उपलब्धता एवं उपयोगिता के अनुसार निर्णय लिया जायेगा।

रैम्प का निर्माण :

तालाब में रैम्प का निर्माण पशुओं का तालाब में पानी तक पहुँचने के लिए 1:7 से 1:10 के ढाल में स्थलीय आवश्यकता एवं धन की उपलब्धता के आधार पर किया जायेगा।

पक्के घाट का निर्माण :

ग्रामीणों के स्नान, कपड़ा धोने एवं अन्य कार्यों में सुविधा के लिए न्यूनतम 5 मी0 चौड़ा प्रथम दो मीटर की गहराई तक पक्का घाट निर्माण का प्राविधान किया गया है। तालाबों में चारों ओर तथा विशेषकर दक्षिण तथा पश्चिम दिशा के बांधों में छायाकार पौधों का गर्मी के दिनों में सूर्य के ताप से होने वाले वाष्पन में कमी करने के उद्देश्य से वृक्षारोपण अवश्य किया जाये तथा भूमि कटान रोकने के लिए बांधों पर छोटी झाड़ियों को रोपित किया जाये ।

रिचार्ज शाफ्ट का निर्माण:

तालाब में एकत्रित वर्षा जल को भूजल रिचार्ज हेतु रिचार्ज शाफ्ट बनाकर किए जाने का प्राविधान है। विस्तृत विवरण इसी अध्याय में परकोलेशन टैंक में दिया गया है।

स्थल की विशेषता

1. जहाँ जल प्रयोग करना हो वह स्थान नजदीक हो ।
2. यदि सिंचाई तालाब है तो भूमि तल अभेद्य (अमीर वियस) हो ।
3. परकोलेशन तालाब बनाने हेतु प्रीवियस भूतल होना चाहिए।
4. स्पिलवे की दृष्टि से उपयुक्त स्थल होना चाहिए।

2. छत के पानी का एकत्रीकरण (Roof Top Water Harvesting): 

वर्षा जल संचयन या वर्षा जल संग्रहण की इस प्रणाली में घर, विद्यालयों व कार्यालयों के छतों पर गिरने वाले वर्षा जल को एल्युमिनियम, आयरन या कंक्रीट की बनी टंकियों में एकत्रित कर घरेलू प्रयोग में लाया जाता है या भूजल रिचार्ज संरचना से जोड़ कर भूजल स्तर को बढ़ाने में प्रयोग किया जाता है। यह पानी स्वच्छ होता है, जो थोड़ा बहुत ब्लीचिंग पाउडर मिलाने के बाद पूर्ण तरीके से उपयोग में लाया जा सकता है।
जल ग्रहण क्षेत्र के किनारों के एक तरफ ढाल पर नाली का निर्माण किया जाता है जो जलग्रहण क्षेत्र में इकट्ठे हुए जल को जाली से होते हुए संग्रहण टंकी (Storage tank) तक पहुँचाने का कार्य करती है। ये नालिया अर्धगोलाकार, आयताकार या किसी भी आकार की हो सकती हैं। प्रायः ये नालियां गैल्वेनाइज्ड आयरन शीट (जीआई) या- पॉलीविनाइल क्लोराइड (पीवीसी) PVC की बनी होती हैं। किन्ही किन्ही स्थानों पर बांस या सुपारी के जल ग्रहण क्षेत्र के  अनुरूप ही, वर्षा जल को बाहर निकालने के लिए नालियों के व्यास का निर्धारण करते हैं। कुछ वर्षा जल संचयन तकनीकों में, पानी में उपस्थित प्रदूषकों, मुख्यतः सस्पेंडेड सोलीड्स को हटाने के लिए फिल्टर्स का भी प्रयोग किया जाता है।

स्रोत ;- अटल भूजल योजना, राष्ट्रीय टीम

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Post By: Shivendra
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