व्यापारी कृषि असफल ही होगी

आज तो हर तरफ पैसा बनाने का भगदड़ मची हुई है। अंगूर, टमाटर तथा तरबूजों की अत्याधुनिक फैशनेबिल किस्में उगाई जा रही हैं। ग्रीन-हाऊसों में बे-मौसम फल-फूल उगाए जा रहे हैं। मत्स्य प्रजनन की शुरुआत हो गई है, और मवेशी भी मुनाफा कमाने के लिए पाले जा रहे हैं। यह सिलसिला बतलाता है कि जब किसान आर्थिक झूले पर सवार हो तो क्या होगा?

व्यापारी कृषि की अवधारणा जब पहली बार सामने आई तभी मैंने उसका विरोध किया था। जापान में व्यापारिक कृषि किसानों के लिए फायदेमंद नहीं है। व्यापारियों का कायदा यह है कि जब भी कोई वस्तु बेची जानी होती है तो उसकी मूल लागत जो भी हो, वे उसकी लागत बढ़ा कर ही उसे बेचते हैं। लेकिन जापानी खेती का यह मामला इतना सीधा नहीं है। उर्वरक, खाद, उपकरण तथा रसायन उस कीमत पर खरीदे जाते हैं जसे बाहर निर्धारित होती है तथा यह बतलाने का कोई तरीका नहीं होता कि इन आयातित उत्पादों का उपयोग करने के बाद वास्तविक लागत क्या बैठेगी? यह सब पूरी तरह व्यापारियों पर निर्भर करता है तथा बिक्री मूल्य भी चूंकि तय किया हुआ रहता है। किसान की आय उन ताकतों की मेहरबानी पर निर्भर हो जाती है, जिन पर उसका कोई नियंत्रण नहीं होता।

सामान्य रूप से व्यापारिक कृषि एक अस्थिर चीज है। किसान की स्थिति तो उसके बगैर ही बेहतर होगी यानी उसे अपनी जरूरत का खाद्यान्न पैसा बनाने के बारे में सोचे बगैर ही पैदा करना चाहिए। यदि आप चावल का एक बीज बोते हैं तो वह एक हजार से भी ज्यादा दाने देता है। शलजम की एक ही कतार बोने से इतना अचार बन जाता है जो पूरे जाड़े भर के लिए काफी होता है। अगर आप इस ढंग से सोचकर चलें तो आपको खाने के लिए पर्याप्त, बल्कि उससे ज्यादा ही मिल जाएगा और उसके लिए ज्यादा संघर्ष भी नहीं करना पडे़गा। मगर यदि आप इसके बदले कुछ पैसा बनाने की कोशिश करते हैं तो आप उस मुनाफा गाड़ी पर सवार हो जाते हैं, जो पता नहीं आपको कहां ले जाएगी।

इधर कुछ दिनों से मैं सफेद लेग-मुर्गियों के बारे में सोच रहा हूं क्योंकि इनकी सुधरी हुई नस्ल, चूंकि साल में 200 दिन अंडे देती है, इनको पालना मुनाफे का धंधा मालूम होता है। जब इन मुर्गियों का पालन व्यापारिक ढंग से किया जाता है तो उन्हें ऐसे छोटे-छोटे दड़बों में रखा जाता है जो जेल की काल कोठरियों की याद दिलाते हैं तथा इन प्राणियों को अपने सारे जीवन काल में जमीन पर अपने पैर रखने का मौका एक बार भी नहीं मिलता। उन्हें अक्सर बीमारियाँ लगी रहती हैं और उनके शरीरों में ढेर सी जीवाणु प्रतिरोधी तथा विटामिन तथा हारमोनयुक्त दवाएं ढूंसी जाती हैं। यह भी कहा जाता है कि आदि काल से ‘शामों’ तथा ‘चाबो’ मुर्गियों के जो देसी भूरी तथा सांवली किस्में पाली जाती रही हैं, उनके अंडे देने की क्षमता लेग-हॉर्न से केवल आधी होती है। इसका नतीजा यह हुआ कि ये पक्षी अब जापान में लुप्त हो गए हैं। मैंने अपने इलाके में दो मुर्गियों तथा एक मुर्गे को खुला छोड़ दिया और एक वर्ष के भीतर ही उनकी संख्या चैबीस हो गई। जब ऐसा लगा कि कुछ ही अंडे पैदा हो रहे हैं तो स्थानीय लोग भी लेग-हॉर्न मुर्गियां पालने में लग गए।

पहले साल में लेग-हॉर्न की अंडे देने की क्षमता स्थानीय नस्ल की मुर्गियों से ज्यादा होती है, लेकिन एक वर्ष के बाद वे चूक जाती हैं, और उन्हें एक तरफ कर दिया जाता है। जब कि जिस ‘शामो’ मुर्गी से हमने शुरुआत की थी, उससे दस स्वस्थ पक्षी पैदा होकर बागान के वृक्षों के बीच फुदक रहे हैं। इसके अलावा सफेद लेग-हॉर्न ज्यादा अंडे इसलिए देती हैं क्योंकि उन्हें कृत्रिम रूप से समृद्ध किया गया आहार दिया जाता है जो विदेशों से आयात किया जाता है, तथा जिसे व्यापारियों से ही खरीदा जा सकता है जब कि स्थानीय पक्षी बेचारे यहां-वहां चोंच मार कर बीज तथा कीड़े खाते हैं और स्वादिष्ट प्राकृतिक अंडे देते हैं।

यदि आप सोचते हैं कि व्यापारिक फसलें भी प्रकृति की देन हैं तो आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वे अंडे न देकर मात्र नाईट्रोजन, फास्फोरस का मिला-जुला पनीला कपट जाल है जिन्हें थोड़ी सी मदद बीज से भी मिल जाती है, और उनका स्वाद भी उससे ज्यादा और कुछ नहीं होता। इसी तरह व्यापारिक अंडे (यदि आप उनके लिए इस शब्द का उपयोग करते हैं तो) भी केवल कृत्रिम दाने, रसायनों तथा हारमोनों के मिश्रण से ज्यादा कुछ नहीं है। वह प्रकृति का उत्पाद न होकर मात्र मानव निर्मित ऐसा कृत्रिम पदार्थ है, जिनका सिर्फ आकार अंडे जैसा होता है। जो किसान ऐसी सब्जियां या अंडे उगाता है उसे मैं किसान की बजाए, निर्माता कहना पसंद करता हूं।

अब, यदि आप निर्माण की बात कर रहे हैं तो मुनाफा कमाने के लिए आपको आंकड़ों की कुछ जोड़-तोड़ करनी ही पड़ेगी। चूंकि व्यापारिक किसान कोई पैसा नहीं बना पाता, वह उस व्यापारी की तरह है जो गिनना तक नहीं जानता। इस तरह के आदमी को अन्य लोग मूर्ख ही समझेंगे तथा उसके मुनाफे को राजनीतिज्ञ या विक्रेतागण चट कर जाएंगे। पुराने जमाने में केवल चार तरह के लोग होते थे। योद्धा, किसान, कारीगर तथा व्यापारी। किसान को ‘ईश्वर का कलशधारी’ कहा जाता था क्योंकि वो व्यापारी या निर्माता की बजाए चीजों के स्रोत के सबसे नजदीक होता था। वह किसी-न-किसी तरह निर्वाह कर भी लेता था, और खाने की कम-से-कम उसे कोई कमी नहीं होती थी।

मगर आज तो हर तरफ पैसा बनाने का भगदड़ मची हुई है। अंगूर, टमाटर तथा तरबूजों की अत्याधुनिक फैशनेबिल किस्में उगाई जा रही हैं। ग्रीन-हाऊसों में बे-मौसम फल-फूल उगाए जा रहे हैं। मत्स्य प्रजनन की शुरुआत हो गई है, और मवेशी भी मुनाफा कमाने के लिए पाले जा रहे हैं। यह सिलसिला बतलाता है कि जब किसान आर्थिक झूले पर सवार हो तो क्या होगा? कीमतों में उतार-चढ़ाव आते हैं, मुनाफा होता है तो घाटा भी होता है। असफलताओं को आप टाल नहीं पाते। जापान की खेती अपने रास्ते से भटक कर पूरी तरह भ्रष्ट हो गई है। वह खेती के बुनियादी सिद्धांतों को त्याग कर धंधा बन गई है।

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