भारत सरकार ने ‘हर खेत को पानी’ का एक बड़ा लक्ष्य निर्धारित किया है और इसके लिये सरकारी सहायता के रूप में कई महत्त्वपूर्ण कदम भी उठाए हैं। खेतों में नया तालाब बनाने, पुराने तालाब का पुनरुद्धार करने और तालाबों में पॉलीथीन का अस्तर लगाने जैसे अनेक कार्यों के लिये वित्तीय सहायता का प्रावधान किया गया है। भारत सरकार का राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन वर्षाजल संग्रह और प्रबन्धन के लिये सीधे किसानों को सहायता देता है। इसके साथ महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के अन्तर्गत वर्षाजल संग्रह की संरचनाओं के निर्माण की मंजूरी भी दी गई है। इस कारण देशभर में नए तालाब बनाने की मुहिम छिड़ गई है, जिसका सीधा लाभ किसानों को मिल रहा है। इसके अलावा, राज्य सरकारों द्वारा भी अनेक योजनाओं के माध्यम से किसानों को खेतों में तालाब बनवाने के लिये प्रोत्साहित किया जा रहा है।
खेतों की हरियाली और किसानों की खुशहाली के लिये सिंचाई का पानी एक बुनियादी जरूरत है। सिंचाई की दशा में सुधार किए बिना हम समृद्ध कृषि की कल्पना नहीं कर सकते। इसलिये स्वतंत्र भारत में नदियों पर बाँध बनाने और गाँव-गाँव तक नहरों का जाल बिछाने की व्यापक और महत्वाकांक्षी योजना शुरू की गई। पंचवर्षीय योजनाओं में सिंचाई की सुविधाओं के प्रसार को प्राथमिकता दी गई। परिणामस्वरूप आज हमारे पास दुनिया की सबसे विशाल सिंचाई प्रणाली मौजूद हैं, जिससे देश का सकल सिंचित क्षेत्र बढ़कर 6.5 करोड़ हेक्टेयर तक पहुँच गया है। लेकिन दूसरी ओर सच्चाई यह भी है कि अभी भी देश के कुल कृषि क्षेत्र के लगभग 64 प्रतिशत भाग में सिंचाई की सुविधाओं का अभाव बना हुआ है। यानी 780 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर खेती करने वाले किसान आज भी फसलों की सिंचाई के लिये वर्षा पर निर्भर हैं। इसे वर्षा-आश्रित खेती कहा जाता है। कृषि उत्पादन के नजरिए से महत्त्वपूर्ण होने के बावजूद वर्षा-आश्रित क्षेत्र में खेती करना एक जोखिम भरी कवायद है, जिससे किसान यहाँ बड़े पैमाने पर खेती करने से कतराते हैं।
वैश्विक-स्तर पर भारत में सबसे विशाल क्षेत्र पर वर्षा-आश्रित खेती की जाती है, परन्तु प्रति हेक्टेयर उत्पादकता के मामले में हम मात्र एक टन के निचले स्तर पर सबसे पिछड़े हुए हैं। इसका मुख्य कारण है कि अधिकांश क्षेत्र में हम वर्षाजल जैसी अनमोल प्राकृतिक सम्पदा को यूँ ही व्यर्थ बह जाने देते हैं। उसे भविष्य में उपयोग के लिये संजोकर रखने में हम अपेक्षाकृत कम कामयाब हैं। इसलिये सूखे मौसम में, जब फसल की सिंचाई की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, फसलें प्यासी रह जाती हैं। परिणामस्वरूप उत्पादकता में जबर्दस्त गिरावट आती है, जबकि सूखे या सूखे जैसी दशा में तो खड़ी फसल बर्बाद हो जाती है। वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चला है कि अगर इन क्षेत्रों में प्रत्येक मौसम में किसी तरह 50 से 200 मिमी अतिरिक्त या पूरक सिंचाई की व्यवस्था कर ली जाए तो पैदावार पर सूखे मौसम के प्रभाव को न्यूनतम किया जा सकता है। सुधरी हुई कृषि विधियों के साथ केवल एक पूरक सिंचाई की व्यवस्था होने से इन क्षेत्रों के कृषि उत्पादन में 50 प्रतिशत तक की वृद्धि सम्भव है। मानसूनी वर्षा के दौरान वर्षाजल संग्रह का उचित उपाय करके पूरक सिंचाई के लाभ को हासिल किया जा सकता है। देखा गया है कि वर्षाजल संग्रह द्वारा पूरक सिंचाई करना आर्थिक रूप से व्यावहारिक और लाभकारी है तथा इसका दलहन और तिलहन की खेती में विशेष लाभ पहुँचता है।
नई योजनाएँ, नए कदम
वर्षा-आश्रित खेती की इस अहम जरूरत को देखते हुए भारत सरकार ने ‘हर खेत को पानी’ का एक बड़ा लक्ष्य निर्धारित किया है और इसके लिये सरकारी सहायता के रूप में कई महत्त्वपूर्ण कदम भी उठाए हैं। खेतों में नया तालाब बनाने, पुराने तालाब का पुनरुद्धार करने और तालाबों में पॉलीथीन का अस्तर लगाने जैसे अनेक कार्यों के लिये वित्तीय सहायता का प्रावधान किया गया है। भारत सरकार का राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन वर्षाजल संग्रह और प्रबन्धन के लिये सीधे किसानों को सहायता देता है। इसके साथ महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के अन्तर्गत वर्षाजल संग्रह की संरचनाओं के निर्माण की मंजूरी भी दी गई है। इस कारण देशभर में नए तालाब बनाने की मुहिम छिड़ गई है, जिसका सीधा लाभ किसानों को मिल रहा है। इसके अलावा, राज्य सरकारों द्वारा भी अनेक योजनाओं के माध्यम से किसानों को खेतों में तालाब बनवाने के लिये प्रोत्साहित किया जा रहा है। मनरेगा के अन्तर्गत वर्ष 2016-17 के दौरान 8,82,325 खेत-तालाब बनाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। इस लक्ष्य को प्राप्त करने में दस राज्य अग्रणी रहे- आन्ध्र प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, तेलंगाना और ओडिशा। गौरतलब है कि मनरेगा के लिये निर्धारित कुल लक्ष्य में इन राज्यों की हिस्सेदारी लगभग 90 प्रतिशत है।
वर्षा-आश्रित कृषि और वर्षाजल संग्रह की सभी योजनाएँ मुख्य रूप से हमारे जल संसाधनों पर निर्भर हैं। भारत में औसत वार्षिक वर्षा लगभग 1,170 मिमी आंकी गई है, जिससे हमें 4,000 बिलियन घनमीटर (बीसीएम) पानी प्राप्त होता है। आँकड़ों के नजरिए से देखें तो पानी की यह मात्रा कम नहीं है, परन्तु विभिन्न क्षेत्रों की भौगोलिक दशाओं और जलवायु विविधताओं के कारण वर्षाजल की उपलब्धता में भारी अन्तर आ जाता है, जिससे कुछ क्षेत्रों में समस्या बेहद गम्भीर हो जाती है। उत्तर-पूर्व भारत में चेरापूँजी के पास मौसिनराम में सबसे ज्यादा वर्षा रिकॉर्ड की जाती है (11,690) मिमी, जबकि राजस्थान के जैसलमेर में सबसे कम, केवल 150 मिमी वर्षा होती है। दूसरी समस्या यह है कि कुल वर्षा का लगभग 75 प्रतिशत भाग केवल दक्षिण-पश्चिम मानसून (जून-सितम्बर) के दौरान प्राप्त होता है। इसलिये पानी की इस अथाह मात्रा को सहेजकर रखना आवश्यक है। लेकिन अभी कुल वर्षाजल में से लगभग 1,869 बीसीएम पानी बहकर नदियों में पहुँच जाता है और उपयोग योग्य सतही जल की मात्रा सिमटकर मात्र 590 बीसीएम रह जाती है। इसमें अगर भूजल स्रोत भी जोड़ लिया जाए तो कुल मात्रा 1,123 बीसीएम हो जाती है। खेती में भूजल के उपयोग की अपनी अलग चुनौतियाँ और समस्याएँ हैं, जिनके समाधान के लिये अलग से प्रयास किए जा रहे हैं।
सीमित जल संसाधनों के बावजूद देश के खेतों में जल उपयोग की कुशलता भी कम है, क्योंकि किसान भाई जल प्रबन्ध और सिंचाई की आधुनिक व कुशल तकनीकों का अपेक्षाकृत कम उपयोग कर रहे हैं। नहर के पानी से सिंचाई जल के उपयोग की कुशलता 30-40 प्रतिशत आंकी गई है, जबकि भूजल के मामले में यह बढ़कर 55-60 प्रतिशत तक पहुँच जाती है। भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय ने इसे सन 2050 तक बढ़ाकर क्रमशः 60 प्रतिशत और 75 प्रतिशत करने का लक्ष्य तय किया है। इसके साथ ही वर्षा-आश्रित कृषि क्षेत्रों में जल उत्पादकता बढ़ाने के लिये विशेष कार्यक्रम और नीतियाँ भी बनाई गई हैं। भारत सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय वर्षा आश्रित क्षेत्र प्राधिकरण इसके लिये विशेष प्रयास कर रहा है और इसके कार्यक्रमों को सराहनीय उपलब्धियाँ भी हासिल हुई हैं। इसके लिये इन क्षेत्रों को मौसमी वर्षा के आधार पर चार वर्गों में बाँटा गया है और प्रत्येक भाग के लिये अलग तकनीकी कार्यक्रम तैयार किए गए हैं। ये क्षेत्र हैं- 500 मिमी से कम मौसमी वर्षा वाले क्षेत्र; 500 से 700 मिमी वर्षा वाले क्षेत्र; 700 से 1,000 मिमी वर्षा वाले क्षेत्र और 1,000 मिमी से अधिक वर्षा वाले क्षेत्र। पहले दो क्षेत्रों में वर्षाजल संग्रह के लिये विशेष दशाओं और तकनीकों की आवश्यकता होती है, जबकि बाद वाले दोनों क्षेत्रों में सामान्य वर्षा जलसंग्रह उपाय कारगर साबित हुए हैं। वर्षा आश्रित क्षेत्रों के समग्र और सतत विकास के लिये सन 1995 से भारत सरकार द्वारा जलसम्भर (वाटरशेड) विकास एवं प्रबन्ध कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, जिनमें वर्षाजल संग्रह के उपायों की केन्द्रीय भूमिका होती है।
आइए, चलें परम्परा की ओर
भारत में सामुदायिक-स्तर पर वर्षाजल संग्रह की एक प्राचीन और वैज्ञानिक परम्परा रही है, जिसके अन्तर्गत देशभर में छोटे-बड़े तालाब, जलाशय, बावड़ी, जोहड़ आदि बनाए जाते थे और समुदाय द्वारा इनकी देख-रेख भी की जाती थी। देश के विभिन्न भागों में आज भी ऐसी कुछ प्राचीन संरचनाएँ दिख जाती हैं। कालान्तर में बिजली की उपलब्धता और पानी पम्प करने की तकनीक ने नलकूप या ट्यूबवेल प्रणाली को बड़ी तेजी से लोकप्रिय बना दिया। सामुदायिक संरचनाओं की जगह व्यक्तिगत-स्तर के निवेश ने ले ली। भूजल का अन्धाधुन्ध दोहन शुरू हो गया। सरकार ने सिंचाई सुविधाओं के प्रसार के लिये देशभर में नहरों का जाल बिछाने का काम शुरू किया, जो आज भी जारी है। इससे किसानों के मन में यह बात बैठ गई कि फसलों की सिंचाई के दो ही साधन हैं- भूजल और नहरें। परन्तु आज के परिवेश में, जब सूखे की समस्या गहराती जा रही है और खेती को जल संकट का सामना करना पड़ रहा है, तालाबों की परम्परा को एक बार फिर से जीवित करने का प्रयास किया जा रहा है। और जलसंग्रह की ऐसी संरचनाएँ भी विकसित की जा रही हैं, जिससे भूजल का स्तर ऊपर उठ सके। दूसरा बदलाव यह भी आया कि अब सामुदायिक-स्तर के साथ व्यक्तिगत-स्तर पर भी तालाब बनवाने के काम को प्रोत्साहित किया गया। किसानों ने अपने ही खेत के एक छोटे-से भूखंड पर तालाब बनाने का काम शुरू कर दिया है, जिन्हें खेत तालाब कहा जाता है। वैज्ञानिक विधियों और नवोन्मेष के जरिए कुछ ऐसी संरचनाएँ भी विकसित की गई हैं, जो अधिक कुशल और प्रभावी हैं।
इस सन्दर्भ में सबसे पहले बात करते हैं खेत तालाब की। किसानों के खेतों में वर्षाजल संग्रह तालाब बनाने के लिये वैज्ञानिकों ने एक मार्गदर्शिका भी विकसित की है। खेत तालाब हमेशा सम्पूर्ण कृषि क्षेत्र के सबसे निचले हिस्से में बनाना चाहिए, जिससे वर्षाजल वहाँ आसानी से एकत्र हो सके। तालाब का आकार खेत के क्षेत्र के अनुसार बदल सकता है, परन्तु 10 मीटर X 10 मीटर X 3 मीटर का तालाब आदर्श माना गया है। पाँच मीटर से अधिक गहरा तालाब खोदने पर एक तो खुदाई का खर्च बढ़ जाता है और दूसरे पानी के ज्यादा दबाव के कारण रिसाव की दर भी बढ़ जाती है। तालाब की खुदाई से निकली मिट्टी से तालाब के चारों ओर एक ऊँची मेंड़ बनाई जा सकती है और इस पर पेड़-पौधे लगाए जाने चाहिए। इससे मेंड़ में टिकाऊपन आता है और पानी के वाष्पीकरण की दर में कमी आती है। तालाब में पानी के प्रवेश और निकासी का रास्ता अवश्य बनाना चाहिए। पानी के साथ बहकर आने वाली गाद को अलग करने के लिये प्रवेश के रास्ते में एक छोटा गड्ढा (सिल्ट पिट) अवश्य बनाना चाहिए ताकि गाद इसमें इकट्ठी होती रहे।
इस तरह तालाब की बार-बार सफाई करने की जरूरत नहीं पड़ती। तालाब से पानी के भूमिगत रिसाव पर रोक लगाने के लिये तालाब में अस्तर या लाइनिंग लगाना जरूरी है। इसके लिये आजकल नई उपयोगी सामग्रियाँ उपलब्ध हैं, जैसे क्ले, बेन्टोलाइट, पत्थर या ईंट, सीमेंट, रबर, प्लास्टिक आदि। तालाब का आकार तय करते समय तालाब के जलग्रहण क्षेत्र के विस्तार, वर्षा की गहनता और अवधि, मिट्टी के प्रकार आदि को भी ध्यान में रखना चाहिए। वैज्ञानिकों की सलाह है कि यदि वर्ष की लगभग 80 प्रतिशत अवधि में तालाब में पानी भरा रहता है तो उसमें मछली पालन करना चाहिए। यदि मिट्टी अधिक गहरी ना हो या खुदाई का खर्च बहुत ज्यादा आ रहा हो तो सतह पर दीवार खड़ी करके सतही तालाब भी बनाया जा सकता है। लेकिन हर खेत में तालाब होना जरूर चाहिए, क्योंकि यह सूखे या सूखे जैसी दशाओं में किसान की आजीविका सुरक्षित रखता है।
उत्तर-पूर्व भारत की भौगोलिक दशाओं में सामान्य खेत-तालाब बनाना सम्भव नहीं है, क्योंकि यहाँ आमतौर पर सीढ़ीदार खेतों में फसलें उगाई जाती हैं, जिसे ‘टेरेस फार्मिंग’ कहते हैं। इन स्थानों पर अपेक्षाकृत छोटी संरचनाओं का निर्माण किया जाता है, जो ‘जल कुंड’ के नाम से लोकप्रिय हैं। वर्ष के अधिकांश समय वर्षा से ढके रहने वाले लद्दाख क्षेत्र में ग्लेशियर से पिघलने वाले पानी को इकट्ठा करके खेती में इस्तेमाल करने की व्यवस्था की जाती है। इसके लिये निचली भूमि में एक छोटी जलसंग्रह संरचना बनाई जाती है, जिसे ‘जिंग’ कहा जाता है। सुबह के समय ग्लेशियर से पानी की बूँदें टपकना शुरू हो जाती हैं, जो दोपहर तक एक छोटी जलधारा में बदल जाती हैं। इस तरह दिन भर इकट्ठा हुआ यह पानी अगले दिन फसलों की सिंचाई के काम में लाया जाता है। किसानों के बीच इस पानी के समान रूप से वितरण की व्यवस्था भी की गई है। इसी तरह हिमाचल प्रदेश के पर्वतीय और बर्फीले क्षेत्रों में ग्लेशियर, नदियों और झरनों से पानी को खेतों तक पहुँचाने के लिये ‘कुल’ या ‘कुह्ल’ नामक पतली धाराएँ बनाए जाने की परम्परा है।
इन्हें आमतौर पर लाभार्थियों के चंदे से बनाया जाता है या पहले शासक बनवाते थे। अनुमान है कि अकेली कांगड़ा घाटी में 700 से ज्यादा प्रमुख कुह्ल और 2,500 से अधिक छोटी कुह्ल लगभग 30,000 हेक्टेयर में फसलों को सींच रहीं हैं। कुल की देखरेख के लिये एक व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है, जिसे कोहली कहते हैं। लद्दाख में वर्षाजल संग्रह के लिये सीढ़ीदार खेतों पर छोटी संरचनाएँ बनाई जाती हैं, जिन्हें यहाँ के किसान ‘जेबो’ कहते हैं। आमतौर पर इन्हें धान के खेतों में बनाया जाता है। वनों से लदी हरी-भरी पहाड़ियों से वर्षाजल छोटी-छोटी धाराओं के रूप में बहता हुआ ‘जेबो’ तक पहुँचता है। जल धाराओं की दिशा का कुछ इस तरह प्रबन्धन किया जाता है कि पानी पशुओं के बाड़ों से होकर गुजरता है। इस तरह इसमें पशुओं का मलमूत्र भी मिल जाता है, जिससे यह मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने में सहायक होता है। जेबो में इकट्ठे पानी में मछलियाँ भी पाली जाती हैं।
खेत का पानी खेत में
हल्की ढलान वाले क्षेत्रों में बरसाती पानी को खेत में ही रोकने के लिये कंटूर बंड या बाँध बनाए जाते हैं। इसके लिये एक जैसी ऊँचाई पर मिट्टी से बन्ध की रचना की जाती है, जो दूर से एक लम्बी मेंड़ के रूप में दिखाई देती है। इसे थोडी-थोड़ी दूर पर बनाया जाता है, जिससे पानी के बहाव को तेजी ना मिल सके। इनके बीच की दूरी ढलान की तीव्रता और मिट्टी के प्रकार पर निर्भर करती है। यह स्थानीय-स्तर पर वर्षाजल संचय की एक कुशल प्रणाली है। पहाड़ी क्षेत्रों में अक्सर बरसाती पानी एक नाली या ‘गली’ के रूप में बहता दिखाई देता है। इसे रोकने के लिये स्थानीय पत्थर, मिट्टी या झाड़ियों से एक प्रभावी रोक बनाई जाती है। इसे ‘गलीप्लग’ कहते हैं। पानी के साथ मिट्टी के बहाव पर भी रोक लगती है। इसी से मिलती-जुलती संरचना ‘चेक डैम’ की होती है। इन्हें कम ढलान वाली छोटी जलधाराओं पर बनाया जाता है और बन्ध की ऊँचाई आमतौर पर दो मीटर से कम रखी जाती है, ताकि ज्यादा पानी बन्ध के ऊपर से निकलकर आगे पहुँच जाए। मिट्टी से भरी बोरियों को एक के ऊपर एक रखकर भसी चेक डैम बनाए जा सकते हैं। एक के बाद एक लगातार कई चेक डैम बनाकर पानी को रोका जा सकता है और इससे भूजल का स्तर ऊपर करने में भी सहायता मिलती है। इसी तरह की एक उन्नत संरचना को ‘गेबियन स्ट्रक्चर’ कहा जाता है। इसमें लोहे के तार की जाली में ईंट-पत्थर भरकर बन्ध बनाया जाता है। बन्ध की ऊँचाई लगभग आधे मीटर से कम रखी जाती है और इसे आमतौर पर 10 मीटर से कम चौड़ी जलधाराओं पर बनाया जाता है।
वर्षाजल संग्रह की कुछ संरचनाओं को भूजल का स्तर ऊँचा उठाने के उद्देश्य से बनाया जाता है। इन्हें ‘रिचार्ज’ संरचनाएँ भी कहते हैं। ऐसी सबसे लोकप्रिय संरचना ‘परकोलेशन टैंक’ के नाम से जानी जाती है। इन्हें मुख्य रूप से मिट्टी के बन्ध बनाकर तैयार किया जाता है और जगह ऐसी चुनी जाती है जहाँ से पानी का रिसाव बेहतर हो। बाँध की ऊँचाई लगभग 4.5 मीटर रखी जाती है। ‘परकोलेशन टैंक’ बनाते समय यह ध्यान भी रखा जाता है कि इसके आस-पास के क्षेत्र में कुएँ हों और खेती भी की जाती हो ताकि भूजल के ऊँचे स्तर का सदुपयोग किया जा सके। वैज्ञानिकों ने सामुदायिक तालाब में रिचार्ज शैफ्ट लगाने की तकनीक विकसित की है, जिससे वर्षाजल के उपयोग के साथ भूजल का स्तर भी ऊपर उठा रहता है। इसका व्यास 0.5 से 3.0 मीटर तक रखा जाता है और तालाब में पानी के स्तर के अनुसार 10 से 15 मीटर तक गहराई रखी जाती है। शैफ्ट का ऊपरी हिस्सा तालाब की लगभग बीच की ऊँचाई पर रहता है। यानी जब तालाब में पानी का स्तर आधे से ऊपर उठ जाता है तो शैफ्ट द्वारा पानी भूमि में नीचे जाने लगता है। शैफ्ट में पत्थरों के छोटे टुकड़े भरे जाते हैं ताकि पानी थोड़ा छनकर नीचे जाए। इस तकनीक को बड़े पैमाने पर प्रोत्साहित किया जा रहा है और इसके अच्छे नतीजे भी सामने आ रहे हैं। खेतों से बहकर आने वाले पानी को किसी एक जगह इकट्ठा करके कुएँ में प्रवाहित करने से भी भूजल का रिचार्ज किया जा सकता है। इसके लिये भी उपयुक्त तकनीकी विकसित की गई है। पानी को कुएँ में भेजने से पहले एक विशेष रूप से बनाए गए ‘पिट’ से गुजारा जाता है, जिसमें मोटी रेत और कंकड़-पत्थर के जरिए पानी को छानने की व्यवस्था रहती है। कुएँ के पानी को समय-समय पर क्लोरीन द्वारा साफ भी करना चाहिए।
कुशल उपयोग भी जरूरी
वर्षाजल संग्रह की व्यवस्थाओं से पूरा लाभ उठने के लिये आवश्यक है कि पानी की एक-एक बूँद का समुचित और कुशल उपयोग किया जाए। इसके लिये भारत सरकार ने ‘पर ड्रॉप, मोर क्रॉप’ (प्रति बूँद अधिक पैदावार) का व्यापक अभियान चलाया है, जिसमें सिंचाई की सूक्ष्म विधियों (ड्रिप और स्प्रिंकलर) को वित्तीय सहायता देकर प्रोत्साहित किया जा रहा है। राष्ट्रीय जल नीति में भी वर्षाजल संग्रह को प्राथमिकता के साथ अपनाने की सलाह दी गई है। ग्रामीण विकास के अनेक कार्यक्रमों में वर्षाजल संग्रह को शामिल किया जा रहा है, ताकि खेती-किसानी का समग्र विकास हो सके। वर्षाजल संग्रह के उपायों को लोकप्रिय और प्रभावी बनाने के लिये यह भी आवश्यक है कि किसानों के बीच व्यक्तिगत स्तर पर जागरुकता उत्पन्न की जाए और सामुदायिक-स्तर पर भागीदारी को प्रोत्साहित किया जाए। सामुदयिक भागीदारी द्वारा जल प्रबन्ध के लिये अनेक गाँवों में ‘पानी समिति’ जैसी व्यवस्थाएँ कायम की गईं और इनका काफी बेहतर प्रभाव देखने को मिला। पानी के संरक्षण और प्रबन्ध से व्यक्तिगत तथा सामुदायिक जुड़ाव होना आवश्यक है। हमें यह समझना होगा कि मिट्टी और पानी, दोनों ही साझी विरासत हैं, जिनकी साझी हिफाजत करनी होगी। पानी की एक-एक बूँद से संग्रह, संचय, संरक्षण और प्रबन्ध में ही खेती-किसानी के सतत की कुंजी छिपी है।
वर्षाजल संग्रह के लिये वित्तीय सहायता भारत सरकार के राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन के अन्तर्गत व्यक्तिगत तथा सामुदायिक स्तर पर वर्षाजल संग्रह को बढ़ावा देने के लिये वित्तीय सहायता का प्रावधान दिया गया है। 1. यदि कोई किसान अपने स्तर पर, अपने खेत में, वर्षाजल संग्रह के लिये तालाब या कोई अन्य संरचना बनवाता है तो उसे मैदानी क्षेत्र में अधिकतम 75,000 रुपये और पर्वतीय क्षेत्र में अधिकतम 90,000 रुपये की वित्तीय सहायता प्राप्त हो सकती है, जिसमें तालाब में लाइनिंग या अस्तर लगाने का काम भी शामिल है। इसके लिये मैदानी क्षेत्र और पर्वतीय क्षेत्र में निर्माण की लागत क्रमशः 125 रुपये और 150 रुपये प्रति घनमीटर तय की गई है। अगर तालाब में असतर ना लगाया जाए तो निर्माण लागत में 30 प्रतिशत की कमी की जाती है। यदि तालाब या संरचना का आकार छोटा हो तो निर्माण लागत में आकार के अनुरूप कमी भी की जाती है। 2. मनरेगा या किसी अन्य योजना के अन्तर्गत बनाए गए तालाब/टैंक आदि में प्लास्टिक या आरसीसी की लाइनिंग लगाने के लिये लागत की 50 प्रतिशत तक वित्तीय सहायता दी जाती है। इसे प्रति तालाब/टैंक अधिकतम 25,000 रुपये तक सीमित किया गया है। 3. सामुदायिक उपयोग के लिये सार्वजनिक भूमि पर सामुदायिक तालाब/टैंक/जलाशय/चेक डैम आदि के निर्माण के लिये निर्माण लागत की 100 प्रतिशत तक वित्तीय सहायता का प्रावधान किया गया है। इसके लिये प्रति तालाब/टैंक मैदानी क्षेत्र में अधिकतम सहायता राशि 20 लाख रुपये तय की गई है, जो पर्वतीय क्षेत्र के लिये 25 लाख रुपये है। इसका कमांड क्षेत्र 10 हेक्टेयर होना चाहिए। इससे छोटे और कम कमांड क्षेत्र के लिये सहायता राशि में आकार के अनुरूप कमी कर दी जाती है। यदि तालाब/टैंक में लाइनिंग ना लगाई जाए तो निर्माण लागत में 30 प्रतिशत की कटौती की जाती है। 4. गाँव के पुराने और छोटे तालाबों के पुनरुद्धार या मरम्मत के लिये पुनरुद्धार की लागत की 50 प्रतिशत राशि वित्तीय सहायता के रूप में दी जाती है। इसकी अधिकतम सीमा 15,000 रुपये प्रति तालाब है। 5. वर्षाजल भंडारण की द्वितीयक संरचनाओं के निर्माण के लिये लागत की 50 प्रतिशत राशि वित्तीय सहायता के रूप में दी जाती है। निर्माण लागत 100 रुपये प्रति घनमीटर तय की जाती है। सहायता की अधिकतम धनराशि दो लाख रुपये तक सीमित है। इन संरचनाओं में पॉली-लाइनंग की व्यवस्था होनी चाहिए। इसी प्रकार ईंट, सीमेंट या कंक्रीट से सुरक्षात्मक बाड़ सहित द्वितीयक जल भंडारण संरचना बनाने के लिये भी लागत की 50 प्रतिशत धनराशि वित्तीय सहायता के रूप में दी जाती है। इसमें भी अधिकतम सहायता राशि दो लाख रुपये प्रति लाभार्थी है परन्तु लागत 350 रुपये प्रति घनमीटर तय की गई है। इसके अतिरिक्त समेकित बागवानी विकास मिशन के अन्तर्गत भी व्यक्तिगत-स्तर पर और सामुदायिक-स्तर पर वर्षाजल संग्रह की संरचनाएँ बनाने के लिये वित्तीय सहायता की व्यवस्था की गई है। इसमें सामुदायिक-स्तर पर 20 से 25 लाख रुपये और व्यक्तिगत-स्तर पर 1.50 से 1.80 लाख रुपये तक की सहायता राशि प्राप्त हो सकती है। वित्तीय सहायता के लिये अपने जिले के कृषि अधिकारी से सम्पर्क करना चाहिए। स्रोत : सरकारी योजनाओं व कार्यक्रमों की किसानों के लिये मार्गदर्शिका, 2017-18, कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार |
नई सोच ने बदली तस्वीर सरकारी योजनाओं, वैज्ञानिकों के प्रयासों और किसानों की मेहनत से अब गाँव-गाँव में खेतों में छोटे तालाब दिखाई देने लगे हैं। लेकिन कुछ क्षेत्रों में एक समस्या सामने आती है। मानसूनी वर्षा के दौरान सामान्य से अधिक बरसात होने पर पानी इन तालाबों से बाहर निकलकर बहने लगता है और व्यर्थ चला जाता है। उज्जैन जिले के किठोहा गाँव के किसान श्री गोपाल पाटीदार ने इस समस्या से निपटने के लिये अपने खेत के सबसे ऊँचे स्थान पर सीमेंट की एक टंकी बनवाई। इसमें लगभग 1150 घनमीटर पानी समा सकता है। टंकी से पानी की निकासी के लिये सबसे निचले हिस्से से पाइप लगाया गया है, जिससे 10 हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई की जा सकती है। तालाब से टंकी तक पानी पहुँचाने के लिये पम्प लगाया गया है, जिसे तभी चलाते हैं, जब तालाब में पानी पूरा भर जाता है। इस तरह खरीफ और रबी, दोनों ही फसलों की सिंचाई सम्भव हो गई है। टंकी से मिलने वाले फायदों को देखते हुए क्षेत्र के कई किसानों ने यह व्यवस्था अपना ली है। कुछ किसानों ने तो खेत के ऊँचे स्थानों पर टंकी बनवाकर उसमें बरसाती नाले का पानी इकट्ठा करना शुरू कर दिया है। इन टंकियों में लगभग 450 घनमीटर पानी संग्रहित हो जाता है। सीमेंट की टंकियों ने इन गाँवों में खेती की तस्वीर और किसानों की तकदीर बदल दी है। |
लेखक परिचय
लेखक भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद में पूर्व सम्पादक (हिन्दी) रह चुके हैं। ईमेल : jgdsaxena@gmail.com
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