वर्षाजल बचाने की पारम्परिक पद्धति विरदा


मालधारी बड़ी संख्या में पशु रखते हैं। उन्होंने अपने लम्बे अनुभव, अवलोकन और जरूरत से इस इलाके में पानी के स्रोत खोजे और पानी की व्यवस्था की। मालधारी पानी की जगह खोजने व खुदाई करने में माहिर हैं। इसमें वे ऐसी झीलनुमा जगह चयन करते हैं, जहाँ पानी का बहाव हो। इसमें छोटे उथले कुएँ बनाते हैं, और उनमें बारिश की बूँदें एकत्र की जाती हैं। नीचे भूजल खारे पानी का होता है, उसके ऊपर बारिश के मीठे पानी को एकत्र किया जाता है, जिसे साल भर खुद के पीने और मवेशियों के लिये इस्तेमाल किया जाता है। मैंने होडको के पास एक विरदा में यह मीठा पानी पिया। हाल ही मेरा गुजरात के कच्छ इलाके में जाना हुआ। यह हमारे देश के सबसे सूखे इलाके में एक है। यहाँ के लम्बे-लम्बे घास के मैदान और लवणीय (नमक वाली) सूखी सफेद धरती, सफेद रेगिस्तान। यहाँ का सौन्दर्य देखने भीड़ उमड़ती है। लेकिन यहाँ देखने और सीखने लायक और भी खास है, जैसे मालधारियों का पानी बचाने का तरीका।

मालधारियों का परम्परागत जल संरक्षण का काम अनोखा है। भुज-कच्छ इलाके में बन्नी सूखा इलाका है। मालधारी अपने और मवेशियों के लिये विरदा पद्धति से वर्षाजल को एकत्र करते हैं।

मुझे विरदा पद्धति को देखने का मौका मिला। जुलाई के आखिरी हफ्ते में इस इलाके में गया था। कच्छ जिले में बन्नी इलाके हैं। यहाँ के कुछ गाँवों का मैंने दौरा किया। मालधारी बड़ी संख्या में पशु रखते हैं। उन्होंने अपने लम्बे अनुभव, अवलोकन और जरूरत से इस इलाके में पानी के स्रोत खोजे और पानी की व्यवस्था की।

मालधारी पानी की जगह खोजने व खुदाई करने में माहिर हैं। इसमें वे ऐसी झीलनुमा जगह चयन करते हैं, जहाँ पानी का बहाव हो। इसमें छोटे उथले कुएँ बनाते हैं, और उनमें बारिश की बूँदें एकत्र की जाती हैं। नीचे भूजल खारे पानी का होता है, उसके ऊपर बारिश के मीठे पानी को एकत्र किया जाता है, जिसे साल भर खुद के पीने और मवेशियों के लिये इस्तेमाल किया जाता है। मैंने होडको के पास एक विरदा में यह मीठा पानी पिया।

यहाँ आर्द्रभूमि (जलभूमि) भी है, जो कच्छ जैसी सूखे इलाके के लिये बहुत उपयोगी है। आर्द्रभूमि वैसी होती है जैसे नदी का किनारा। यह वैसी जगह होती है, जहाँ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष पानी होता है। यहाँ कई जलभूमि हैं- शेरवो ढांड, वेकरिया ढांड, खीरजोग ढांड, कुंजेवारी, हंजताल, अवधा झील और लूना झील है। छारी ढांड बहुत प्रसिद्ध है। जहाँ पानी रहता है, वहाँ पक्षी रहते हैं। यहाँ पक्षियों की 150 प्रजातियाँ हैं।

गुजरात में वर्षाजल सहेजने की पारम्परिक पद्धति विरदापरम्परागत जल परम्पराओं का अपना महत्त्व है, खासतौर से सूखे और रेगिस्तान इलाके के लिये, जहाँ पानी के बिना जीवन बहुत कठिन है। आमतौर पर हम ऐसे परम्परागत ज्ञान की उपेक्षा कर देते हैं जो सालों के अनुभव से प्राप्त किया गया है। ऐसे समुदायों को कमतर समझते हैं जो अपनी स्थानीय जलवायु के हिसाब से जल संरक्षण की समृद्ध परम्पराओं की शुरुआत करते हैं।

मालधारियों का योगदान न केवल विरदा जैसी परम्परागत जल संरक्षण की पद्धति विकसित की है बल्कि बन्नी भैंस और काकरेज गाय नामक देसी नस्ल बचाने का है। सरगू गाँव के सलीम भाई ने कहा कि बन्नी भैंस यहाँ की पहचान है। उनकी भैंसें रात को चरने जाती हैं और सुबह आती हैं। यहाँ के लम्बे चारागाह को भी मालधारियों ने संरक्षण व संवर्द्धन किया है।

आज जलवायु बदलाव और ऊर्जा की कमी के चलते ऐसी समृद्ध परम्पराओं का खासा महत्त्व बढ़ जाता है जिसमें कौशल और स्थानीय जलवायु का ज्ञान और सतत मेहनत की जरूरत है। मालधारियों के परम्परागत ज्ञान को समझने और उससे सीखने की जरूरत है।

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Post By: RuralWater
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