बुन्देलखण्ड क्षेत्र की लाल मिट्टियों में जल धारण क्षमता, गहराई एवं कार्बनिक पदार्थों की उपलब्धता कम होने के कारण वे मृदा कटाव के प्रति अधिक संवेदनशील होती है। भारत के शुष्क खेती वाले क्षेत्रों में अन्य मिट्टियों की तुलना में इन मिट्टियों की उत्पादकता सबसे कम है। जैविक खादों के प्रयोग से खेतों में नमी संरक्षण करके इन मिट्टियों की उत्पादकता एवं फसल सघनता को काफी हद तक बढ़ाया जा सकता है, जिसके लिये क्षेत्र में पशु-धन संख्या प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।
प्रस्तावना
बुन्देलखण्ड की लाल मिट्टियाँ मुख्यतः ग्रेनाइट एवं नीस खनिज द्वारा निर्मित हैं। मिट्टी की बलुई संरचना, अल्प जलधारण शक्ति, कम भू-सतह संतृप्ति और ऑर्गेनिक कार्बन की नगण्य उपस्थिति ही इस मिट्टी की कम उत्पादकता का कारण है। भारत में मिट्टियों का उत्पादकता स्तर सबसे कम है।
अनियमित वर्षा और बीच-बीच में आने वाले सूखे के कारण खरीफ ऋतु में भी जल की कमी की समस्या आती रहती है जिस कारण किसानों को अपने खेतों को प्रायः खाली रखना पड़ता है। इन्हीं सब कारणों से इस क्षेत्र की फसल सघनता 100 प्रतिशत से भी कम है।
मृदा की उत्पादकता एवं फसल सघनता बढ़ाने के लिये, मृदा में पर्याप्त नमी के संरक्षण हेतु उपलब्ध तकनीकी को अपनाना अति आवश्यक है। इसके लिये जैविक खादों का प्रयोग करना सबसे अच्छा साधन माना गया है। जैविक खादों को भूमि के सुधार तथा पौधों के लिये आवश्यक तत्वों का मुख्य एवं सस्ता स्रोत माना जाता है। पशुधन की प्रचुर मात्रा में उपलब्धि के कारण जैविक खाद निर्माण के लिये बुन्देलखण्ड एक आदर्श क्षेत्र के रूप में सर्वथा उपयुक्त है।
जैविक खाद निर्माण के लिये वर्मीकम्पोस्टिंग एक अच्छी एवं लोकप्रिय विधि है। कृत्रिम विधि द्वारा केंचुआ पालने को वर्मीकल्चर और इन्हीं केंचुओं द्वारा अनुपयोगी जैविक पदार्थों से खाद बनाने की प्रक्रिया को वर्मीकम्पोस्टिंग कहते हैं। इस प्रक्रिया द्वारा जैविक खाद बनाने में प्रायः 65 से 80 दिन लगते हैं, जबकि परम्परागत विधि से खाद बनाने में लगभग 180 दिन लगते हैं। वर्मीकल्चर और वर्मीकम्पोस्टिंग का वृहद उपयोग हमारी कृषि के लिये वरदान साबित हो सकता है, क्योंकि केंचुए सड़े-गले जैविक पदार्थों को शीघ्र अपघटित करके उन्हें अति उत्तम किस्म की जैविक खाद में बदल देते हैं।
वर्मीकम्पोस्ट देखने में गहरे भूरे रंग की कॉफी की तरह दानेदार एवं गन्धहीन पदार्थ जैसी होती है। वर्मीकम्पोस्ट में परम्परागत खाद की तुलना में अधिक पोषक तत्व पाये जाते हैं। केंचुए प्रतिदिन औसत रूप से अपने वजन के बराबर सड़े गले जैविक पदार्थों को अपघटित करके अति उत्तम किस्म की अपने से लगभग आधे वजन के बराबर जैविक खाद में बदल देते हैं।
उन्नत विकसित तकनीक
केन्द्रीय मृदा एवं जल संरक्षण अनुसन्धान और प्रशिक्षण संस्थान, अनुसन्धान केन्द्र, दतिया (मध्य प्रदेश) के प्रक्षेत्र पर कम लागत में वर्मीकम्पोस्ट तैयार करने की विधि विकसित की गई है। इस विधि में जमीन की कठोर ऊपरी सतह पर ही गोबर एवं फसलों के अवशेषों के मिश्रण से वर्मी बेड्स तैयार की जाती हैं। किसान के पास यदि 5 से 6 पशु उपलब्ध हैं तो एक वर्ष में वर्मीकम्पोस्टिंग के 6 चक्र पूरे किये जा सकते हैं।
तकनीकी विवरण
केंचुओं की वृद्धि एवं विकास बहुत तीव्र गति से होता है। ये तीन महीने की आयु से ही प्रजनन प्रारम्भ कर देते हैं। इनकी संख्या तीन महीने में दोगुनी से भी ज्यादा हो जाती है। बुन्देलखण्ड की विषम जलवायु एवं उसमें होने वाले त्वरित बदलाव से होने वाली हानि से इनकी सावधानीपूर्वक रक्षा करनी होती है। वर्मीकल्चर अपनाने के लिये निम्न बातें मुख्य हैं:
केंचुओं की उपयुक्त प्रजाति का चुनाव :
भारत में केंचुओं की लगभग 40 प्रजातियाँ पायी जाती हैं, जिसमें आइसीनिया फोइटिडा, पेरीओनिक्स एक्सकेवेटस और यूड्रिलियस यूजीन वर्मीकम्पोस्ट बनाने के लिये प्रायः प्रयोग में लाई जाती हैं। इस समूह के केंचुए जमीन में छिद्र नहीं कर पाते और जमीन की सतह पर ही रेंगते हैं। अनुकूल वातावरण में इन प्रजातियों के केंचुए वर्ष भर सक्रिय रहते हैं।
वर्मीकम्पोस्ट बनाने हेतु कच्चा पदार्थ:
1. कच्चा गोबर (15 से 20 दिन पुराना)
2. फसल अवशेष (गेहूँ, सोयाबीन, मूँग एवं सरसों का भूसा, सब्जियों के अवशेष, पेड़ों की पत्तियाँ एवं टहनियाँ आदि)
3. रॉक फास्फेट : ऑरगेनो मिनरल खाद बनाने हेतु
4. केंचुए : 4000 से 5000 वयस्क केंचुए (लगभग 5 किलो ग्राम प्रति कुन्तल जैविक पदार्थ)
5. पानी : 3 से 5 लीटर प्रति सप्ताह प्रति ढेर या गड्ढा
वर्मी कल्चर हेतु प्रारम्भिक आवश्यकताएँ :
1. जैविक खाद बनाने के लिये प्रयोग में लाया जाने वाला गोबर कम-से-कम 15 से 20 दिन पुराना होना चाहिए क्योंकि खाद बनाने की प्रक्रिया के दौरान जैविक अम्ल एवं ऊर्जा उत्पन्न होती है। अतः अगर ताजे गोबर का प्रयोग किया जाता है तो केंचुओं की मृत्यु हो सकती है।
2. वर्मी बेड्स के पास पानी का स्रोत होना चाहिए ताकि एक नियत अन्तराल पर बेड्स को सींचा जा सके। सिंचाई की आवश्यकता गर्मी के मौसम में और अधिक बढ़ जाती है।
3. वर्मीकल्चर शुरू करने के लिये फरवरी से मार्च महीने का समय बहुत ही उपयुक्त माना जाता है।
4. केंचुए रोशनी से दूर रहना पसन्द करते हैं इसलिये इन्हें पालने का स्थान सघन पेड़ों की छाया में अथवा पशुओं के लिये निर्मित घास-फूस की छाया वाले खुले स्थान में होना चाहिए।
5. वर्मीकम्पोस्टिंग वर्ष में कभी भी शुरू की जा सकती है। इसे शुरू करने के लिये 15-20 दिन पुराना एक ट्रैक्टर ट्रॉली गोबर (लगभग 1850 किलो ग्राम) चाहिए। इतना गोबर 5 से 6 जानवर पालने वाला किसान आसानी से प्राप्त का कर सकता है। इस गोबर को शेड के नीचे फैला देना चाहिए और उस पर पानी का छिड़काव करते रहना चाहिए। इसके उपरान्त इस गोबर को पक्की सतह पर 10 फिट X 3 फिट X 2 फिट साइज की 6 बेड्स के रूप में बिछा देना चाहिए।
6. सबसे पहले पक्की सतह पर गोबर की 3 से 4 सेमी मोटी परत बिछा देनी चाहिए। उसके बाद घरेलू कचरा, फसलों के अवशेष एवं अनुपयोगी जैविक पदार्थ आदि की 3 से 4 सेमी मोटी परत बिछानी चाहिए। इस तरह एक पर्त गोबर व एक पर्त जैविक पदार्थों को क्रमशः परत दर परत बिछाते रहना चाहिए। इस प्रक्रिया को बेड्स की ऊँचाई लगभग 2 फीट होने तक चालू रखना चाहिए।
केंचुओं को मिलाने की विधि :
1. गोबर एवं जैविक पदार्थों से तैयार बेड्स में 4000 से 5000 वयस्क केंचुए प्रति कुन्तल जैविक पदार्थ की दर से फैला दिये जाते हैं। बेड्स में बिछाई गई आंशिक रूप से अपघटित जैविक पदार्थ में छोटी-छोटी नालियाँ बनाकर केंचुओं को बिछाना चाहिए और नालियों को बन्द कर देना चाहिए। तदुपरान्त जूट अथवा टाट की बोरी पानी में नम कर के बेड्स के ऊपर एक समान रूप से सावधानीपूर्वक डाल देनी चाहिए ताकि बेड्स में नियत नमी एवं तापमान बना रह सके।
2. लगभग 30 दिन के उपरान्त केंचुओं का प्रजनन शुरू हो जाता है और केंचुए दिखने शुरू हो जाते हैं। उस समय आंशिक अपघटित गोबर एवं फसल अवशेषों की एक 2 इंच मोटी परत इन बेड्स पर और बिछा देनी चाहिए फिर इसे लगभग 2 महीनों के लिये सड़ने हेतु छोड़ देना चाहिए।
3. बेड्स में डाले गये पदार्थों को 5 से 7 दिन के अन्तराल में उलटते पलटते रहना चाहिए और उसमें पानी का छिड़काव करते रहना चाहिए। ताकि एक उचित नमी स्तर (50 से 60 प्रतिशत) एवं तापमान (28 डिग्री से 30 डिग्री सेंटीग्रेड) एवं हवा का संचरण बनाये रखा जा सके।
4. खाद बनने से लगभग 10 दिन पहले 6 बेड्स ताजे गोबर की और तैयार कर लेनी चाहिए। लगभग 65 से 80 दिन के उपरान्त खाद पूर्ण रूप से तैयार हो जायेगी। अब इस खाद को एकत्रित करके ढेर लगा लेना चाहिए, इससे केंचुए इस ढेर के नीचे चले जायेंगे। अब केंचुओं को हाथ द्वारा या छानकर खाद से अलग कर लेना चाहिए एवं नवनिर्मित ताजी बेड्स में बिछा देना चाहिए ताकि अगला चक्र पूरा हो सके।
5. इस विधि द्वारा एक वर्ष में 6 चक्र पूरे किये जा सकते हैं। एक वर्ष के बाद केंचुओं की संख्या काफी मात्रा में बढ़ जाती है जिससे 6 से ज्यादा बेड्स में भी खाद तैयार की जा सकती है। एक किसान इस तरह पर्याप्त मात्रा में खाद तैयार कर सकता है। अपनी जरूरत पूरी होने के पश्चात शेष खाद को बाजार में बेचकर अतिरिक्त आय भी प्राप्त कर सकता है।
वर्मीकम्पोस्ट में पोषक तत्वों की मात्रा एवं प्रयोग की दर :
वर्मीकम्पोस्ट में पोषक तत्वों की मात्रा परम्परागत कम्पोस्ट की तुलना में अधिक पायी जाती है।
सारणी 1 : जैविक खादों में प्रमुख पोषक तत्वों की उपलब्धता | ||
पोषक तत्व | वर्मीकम्पोस्ट | परम्परागत कम्पोस्ट |
नाइट्रोजन | 1.8 से 2.1 | 1.2 से 1.7 |
फास्फोरस | 1.5 से 1.8 | 1.2 से 1.4 |
पोटेशियम | 0.6 से 0.8 | 0.4 से 0.7 |
आय एवं व्यय :
सारणी 2 : वर्मी कम्पोस्ट तैयार करने में आय एवं व्यय का दौरा | ||
विवरण | मूल्य (रु.) | टिप्पणी |
केंचुए (10 किलो ग्राम) | 2,500 (250 रु. प्रति किलो ग्राम की दर) | केवल प्रथम चक्र हेतु |
कच्चा गोबर | 450 | 15 से 20 दिन पुराना |
श्रम लागत | 1,150 | एक चक्र हेतु |
व्यय (अ) | 4,100 | प्रथम चक्र हेतु |
व्यय (ब) | 8,000 | 1,600 रु. प्रति चक्र (दूसरे से छठे चक्र हेतु) |
कुल व्यय (अ एवं ब) | 12,100 | एक वर्ष का मूल्य |
एक वर्ष में कम्पोस्ट | 5,000 किलो ग्राम | कम्पोस्टिंग क्षमता 45 प्रतिशत |
कुल आय | 20,000 | रु. 4 प्रति किलो ग्राम कम्पोस्ट की दर से |
वार्षिक लाभ | 7,900 |
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वर्मीकम्पोस्ट के प्रयोग से लाभ :
बुन्देलखण्ड की लाल मिट्टी में खरीफ ऋतु के दौरान मूँगफली की बुवाई से पहले एक टन प्रति हेक्टेयर की दर से वर्मीकम्पोस्ट प्रयोग किया गया जिससे निम्न परिणाम प्राप्त हुए।
1. तीन वर्ष में भूमि में ऑर्गैनिक कार्बन का मात्रा में 0.02 प्रतिशत की वृद्धि
2. मृदा के वाटर स्टेबल एग्रीगेट्स में 45 से 50 प्रतिशत की वृद्धि
3. मृदा में जल संचय शक्ति की वृद्धि क्योंकि केंचुओं में अपने वजन से दोगुना पानी सोखने की क्षमता होती है।
4. मृदा में जल रिसाव की दर में 3.2 से 3.5 सेमी प्रति घंटा की वृद्धि।
5. निम्नांकित विवरण अनुसार अतिरिक्त शुद्ध लाभ :
विवरण | मूँग | सरसों | कुल |
उत्पादन लागत (परम्परागत 100 प्रतिशत रासायनिक खाद | 7,102 | 7,737 | 14,839 |
उत्पादन लागत (50 प्रतिशत रासायनिक एवं 50 प्रतिशत वर्मीकम्पोस्ट-एक टन प्रति हेक्टेयर मूँग में) | 10,616 | 7,837 | 18,453 |
उपज (किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर) (परम्परागत खेती) | 725 | 1,145 | - |
उपज (किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर) वर्मीकम्पोस्ट प्रयोग करने से | 985 | 1,285 | - |
परम्परागत खेती से आय | 12,325 | 19,465 | 31,790 |
वर्मीकम्पोस्ट के प्रयोग से आय | 16,745 | 21,845 | 38,590 |
परम्परागत खेती से शुद्ध लाभ | 5,223 | 11,728 | 16,981 |
वर्मी कम्पोस्ट से प्राप्त शुद्ध लाभ | 6,129 | 14,008 | 20,137 |
उक्त गणना के लिये मूँग एवं सरसों का न्यूनतम खरीद मूल्य रू. 17 प्रति किलो ग्राम माना गया है। |
सम्भावनाएँ :
1. बुन्देलखण्ड क्षेत्र में पशुधन की प्रचुर मात्रा में उपलब्धि से यहाँ वर्मीकम्पोस्टिंग की सम्भावनाएँ काफी अधिक है। इसके प्रयोग से मृदा के स्वास्थ्य में स्थायी सुधार सम्भव है।
2. वर्मीकम्पोस्ट से बुन्देलखण्ड की कम उपजाऊ लाल मिट्टी में खेती की सघनता को बढ़ाकर दोगुना से भी अधिक किया जा सकता है।
सीमाएँ :
1. अपघटन के लिये जैविक पदार्थ एवं उपयुक्त प्रजाति के केंचुओं की समय पर उपलब्धता में कठिनाई।
2. मौसम की विषम एवं अनियमित स्थिति के कारण गर्मी में केंचुओं की अधिक मृत्यु दर।
3. चींटियों एवं परभक्षी कीटों से केंचुओं को हानि।
4. ग्रीष्म ऋतु में पानी का अभाव।
अधिक जानकारी हेतु सम्पर्क करें
केन्द्राध्यक्ष
भा.कृ.अनु.प. - भारतीय मृदा एवं जल संरक्षण संस्थान अनुसन्धान केन्द्र, दतिया - 475 661 (मध्य प्रदेश), दूरभाष - 07522-237372/237373, फैक्स - 07522-290229/400993, ई-मेल - cswcrtidatia@rediffmail.com
अथवा
निदेशक
भा.कृ.अनु.प. - भारतीय मृदा एवं जल संरक्षण संस्थान अनुसन्धान केन्द्र, 218, कौलागढ़ रोड, देहरादून - 248 195 (उत्तराखण्ड), दूरभाष - 0135-2758564, फैक्स - 0135-2754213, ई-मेल - directorsoilcons@gmail.com
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