आंखों को और उनसे जुड़े मानसिक जगत को हरीतिमा और वर्षा क्यों भली लगती है? इसके जैविक कारण होंगे, पर ऐतिहासिक या कहिए प्रागैतिहासिक कारण भी हैं। हमारे दूरस्थ पूर्वजों ने कई लाख वर्ष ऐसे ही वातावरण में बिताए होंगे। हमारा सामूहिक अवचेतन उन्हीं स्मृतियों को अपने गुह्य कक्ष में संजोए हुए हैं। जल ही जीवन है, कहा तो गया है, पर खुद जल में कितना जीवन है, मुझे पता नहीं। लेकिन वे पेड़-पौधे, जिन पर वर्षा के बादल अमृत की वर्षा करते हैं, जीवन से भरपूर हैं। दरअसल, ये पेड़-पौधे ही हमारे असली पूर्वज है, क्योंकि यह सचल सृष्टि उन्हीं की कोख से पैदा हुई है।चारों ओर हरा-भरा हो और निरंतर वर्षा हो रही हो, यह दृश्य मैंने ज्यादा नहीं देखा है – यों दुनिया को मैंने देखा ही कितना है- लेकिन जो भी दृश्य देखे हैं, वे किसी प्रेम कथा की तरह मन पर अंकित हैं। पहाड़ों पर बारिश का अपना आनंद है और हरे-भरे मैदान में बूंदों की थाप का अपना सुख। कोलकाता में खूब बारिश होती थी और वहां के वातावरण में वर्षा के दिन जितने असुविधाजनक होते हैं, उसकी तुलना के लिए मेरे पास कोई समांतर अनुभव नहीं है। शायद गांवों में इसी तरह जीवन कीचड़ में लिथड़ जाता हो। फिर भी कोलकाता का जो मौसम मन में रमा हुआ है, वह वर्षा का मौसम ही है। दिल्ली में तो बारिश होती ही नहीं है। जब होती है, तो उसका भी कुछ खुमार होता है, पर इस महान शहर में ऐसा दृश्य मुझे अभी तक देखने को नहीं मिला कि दूर-दूर तक घास और पेड़-पौधों की हरीतिमा फैली हुई हो और वायुमंडल में बूंदों की थपथपाहट गूंज रही हो।
भला हो महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय का, जिसने मुझे एक लेखक के तौर पर अपने यहां रहने के लिए निमंत्रित किया। बड़े लेखक शायद विमान से ही यात्रा करते हैं, पर रेलगाड़ी से सफर करने का रोमांस मेरे मन में बचपन से है और आगे भी बना रहने वाला है। विमान से वर्धा आने वाले उस मनोरम दृश्यावली के लुप्त से वंचित रह जाते होंगे जो इटारसी से थोड़ी ही दूरी के बाद रेल की खिड़की से दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। आबादी अच्छी और मकान उपयोगी हैं, पर वे हमें प्राकृतिक सुषमा से दूर भी रखते हैं। प्रकृति और बसाहट के सुंदर संगम से ही जीवन में निखार आ सकता है। सेवाग्राम पहुंचा, जहां पहले गांधीजी का आश्रम था और अब उनके नाम पर विश्वविद्यालय है, तो मन और खिल उठा। पिछली बार जब यहां आया था, तो गर्मी का मौसम था। चिलचिलाती धूप और उच्च तापमान से मैं खुद जितना परेशान था, उससे अधिक परेशान इस प्रश्न से था कि गांधीजी यहां कैसे रहते होंगे। शायद महापुरुष जैसे मन के स्तर पर सम रहने की कोशिश करते हैं, वैसे ही वे बाहरी कठिनाइयों में भी अविचलित रहते हैं। इस बार जब मैंने विश्वविद्यालय का पर्यावरण देखा, तो गर्मी का कष्ट भूल गया। गांधीजी के बारे में कहा जा सकता है कि वे अपने आपमें एक विश्वविद्यालय थे। उनके नाम पर स्थापित विश्वविद्यालय की कृताथर्ता इसी में है कि वह विश्व भर में गांधी चेतना का सबसे उत्कृष्ट केंद्र बनने का प्रयास करें।
यह आकांक्षा यहां के मौजूदा परिवेश को देख कर पैदा हो रही है। आंखों को और उनसे जुड़े मानसिक जगत को हरीतिमा और वर्षा क्यों भली लगती है? इसके जैविक कारण होंगे, पर ऐतिहासिक या कहिए प्रागैतिहासिक कारण भी हैं। हमारे दूरस्थ पूर्वजों ने कई लाख वर्ष ऐसे ही वातावरण में बिताए होंगे। हमारा सामूहिक अवचेतन उन्हीं स्मृतियों को अपने गुह्य कक्ष में संजोए हुए हैं। जल ही जीवन है, कहा तो गया है, पर खुद जल में कितना जीवन है, मुझे पता नहीं। लेकिन वे पेड़-पौधे, जिन पर वर्षा के बादल अमृत की वर्षा करते हैं, जीवन से भरपूर हैं। दरअसल, ये पेड़-पौधे ही हमारे असली पूर्वज है, क्योंकि यह सचल सृष्टि उन्हीं की कोख से पैदा हुई है। कभी-कभी रेगिस्तान में भी धुआंधार बारिश होती होगी और न होती हो, तो हम कल्पना तो कर ही सकते हैं कि रेत के समुंदर पर जब बूंदों की बौछार होती होगी, तब किस तरह का दृश्य बनता होगा। वर्षा अपने आप में मनोहर है, पर जब उसका संगम धरती पर फैले हुए हरे-भरे जीवन से होता है, तो वह और मनोहर हो जाती है।
ऐसी हरित वर्षा मैंने पहली बार विश्व भारती, शांति निकेतन में देखी थी। तब से वह दृश्य मेरी आंखों में टंगा हुआ है। ईमान से कहता हूं, वर्धा की हरित वर्षा उससे कई गुना सौंदर्यवती है। विश्व भारती की हरीतिमा में संस्कृति का भारी नियोग है। पर वर्धा में विश्वविद्यालय बन जाने के बावजूद से अपने ममतामय वलय में बांधे रखने वाला सौंदर्य वन्य है। इसे अप संस्कृतिहीनता नहीं कह सकते, यह प्रकृति की अपनी संस्कृति है, जिसका अपना आंतरिक अनुशासन और लय है। महात्मा जी इसी लय के उपासक थे और मानव व्यवस्था में उसके लिए उचित जगह बनाना चाहते थे। इस कसूर के लिए उन्हें पिछड़ा, प्रतिगामी, इतिहास-विरोधी आदि क्या-क्या नहीं कहा गया। लेकिन पर्यावरण के संकट के मौजूदा दौर में गांधी के अलावा और किसकी याद आती है? वर्धा विश्वविद्यालय की जो खूबी मेरे मन को मोह रही है, वह है प्रकृति के ऊबड़-खाबड़ सौंदर्य के बीच सुरुचिपूर्ण स्थापत्य और आधुनिक सुविधाओं से युक्त संस्कृति का एक भव्य केंद्र।
भला हो महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय का, जिसने मुझे एक लेखक के तौर पर अपने यहां रहने के लिए निमंत्रित किया। बड़े लेखक शायद विमान से ही यात्रा करते हैं, पर रेलगाड़ी से सफर करने का रोमांस मेरे मन में बचपन से है और आगे भी बना रहने वाला है। विमान से वर्धा आने वाले उस मनोरम दृश्यावली के लुप्त से वंचित रह जाते होंगे जो इटारसी से थोड़ी ही दूरी के बाद रेल की खिड़की से दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। आबादी अच्छी और मकान उपयोगी हैं, पर वे हमें प्राकृतिक सुषमा से दूर भी रखते हैं। प्रकृति और बसाहट के सुंदर संगम से ही जीवन में निखार आ सकता है। सेवाग्राम पहुंचा, जहां पहले गांधीजी का आश्रम था और अब उनके नाम पर विश्वविद्यालय है, तो मन और खिल उठा। पिछली बार जब यहां आया था, तो गर्मी का मौसम था। चिलचिलाती धूप और उच्च तापमान से मैं खुद जितना परेशान था, उससे अधिक परेशान इस प्रश्न से था कि गांधीजी यहां कैसे रहते होंगे। शायद महापुरुष जैसे मन के स्तर पर सम रहने की कोशिश करते हैं, वैसे ही वे बाहरी कठिनाइयों में भी अविचलित रहते हैं। इस बार जब मैंने विश्वविद्यालय का पर्यावरण देखा, तो गर्मी का कष्ट भूल गया। गांधीजी के बारे में कहा जा सकता है कि वे अपने आपमें एक विश्वविद्यालय थे। उनके नाम पर स्थापित विश्वविद्यालय की कृताथर्ता इसी में है कि वह विश्व भर में गांधी चेतना का सबसे उत्कृष्ट केंद्र बनने का प्रयास करें।
यह आकांक्षा यहां के मौजूदा परिवेश को देख कर पैदा हो रही है। आंखों को और उनसे जुड़े मानसिक जगत को हरीतिमा और वर्षा क्यों भली लगती है? इसके जैविक कारण होंगे, पर ऐतिहासिक या कहिए प्रागैतिहासिक कारण भी हैं। हमारे दूरस्थ पूर्वजों ने कई लाख वर्ष ऐसे ही वातावरण में बिताए होंगे। हमारा सामूहिक अवचेतन उन्हीं स्मृतियों को अपने गुह्य कक्ष में संजोए हुए हैं। जल ही जीवन है, कहा तो गया है, पर खुद जल में कितना जीवन है, मुझे पता नहीं। लेकिन वे पेड़-पौधे, जिन पर वर्षा के बादल अमृत की वर्षा करते हैं, जीवन से भरपूर हैं। दरअसल, ये पेड़-पौधे ही हमारे असली पूर्वज है, क्योंकि यह सचल सृष्टि उन्हीं की कोख से पैदा हुई है। कभी-कभी रेगिस्तान में भी धुआंधार बारिश होती होगी और न होती हो, तो हम कल्पना तो कर ही सकते हैं कि रेत के समुंदर पर जब बूंदों की बौछार होती होगी, तब किस तरह का दृश्य बनता होगा। वर्षा अपने आप में मनोहर है, पर जब उसका संगम धरती पर फैले हुए हरे-भरे जीवन से होता है, तो वह और मनोहर हो जाती है।
ऐसी हरित वर्षा मैंने पहली बार विश्व भारती, शांति निकेतन में देखी थी। तब से वह दृश्य मेरी आंखों में टंगा हुआ है। ईमान से कहता हूं, वर्धा की हरित वर्षा उससे कई गुना सौंदर्यवती है। विश्व भारती की हरीतिमा में संस्कृति का भारी नियोग है। पर वर्धा में विश्वविद्यालय बन जाने के बावजूद से अपने ममतामय वलय में बांधे रखने वाला सौंदर्य वन्य है। इसे अप संस्कृतिहीनता नहीं कह सकते, यह प्रकृति की अपनी संस्कृति है, जिसका अपना आंतरिक अनुशासन और लय है। महात्मा जी इसी लय के उपासक थे और मानव व्यवस्था में उसके लिए उचित जगह बनाना चाहते थे। इस कसूर के लिए उन्हें पिछड़ा, प्रतिगामी, इतिहास-विरोधी आदि क्या-क्या नहीं कहा गया। लेकिन पर्यावरण के संकट के मौजूदा दौर में गांधी के अलावा और किसकी याद आती है? वर्धा विश्वविद्यालय की जो खूबी मेरे मन को मोह रही है, वह है प्रकृति के ऊबड़-खाबड़ सौंदर्य के बीच सुरुचिपूर्ण स्थापत्य और आधुनिक सुविधाओं से युक्त संस्कृति का एक भव्य केंद्र।
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