संस्कार और संस्कृति में हजारों सालों से गंगा को माँ और गंगाजल को अमृत मानने वाले उत्तराखण्ड में पीने के पानी की स्वच्छता पर परम्परागत रूप से विशेष ध्यान दिया जाता था। पानी को मस्तिष्क के लिए सर्वाधिक प्रभावित करने वाला कारक माना जाता है। इसलिए भी द्विज लोग सिर्फ अपने हाथ का स्वच्छ जल ही प्रयोग करते थे। खासकर बौद्धिक कार्य करने वाला ब्राह्मण वर्ग अपने उपयोग में लाने वाले जल को दूसरों को या बच्चों को छूने भी नहीं देता था। इस शुद्धता की महत्ता कृषि, व्यापार या युद्ध प्रिय व्यक्ति अथवा सेवक नहीं समझ सके। खान-पान की शुद्धता भी इसी आधार पर थी। रसोई पूरी तरह स्वच्छ रहे इसके लिए बच्चों तक को रसोई के पास फटकने नहीं दिया जाता था। आज यद्यपि कुछ सतही मानसिकता के लोगों द्वारा इसे मनुवाद के नाम से तिरोहित किया जा रहा है परन्तु इस शुद्धता का यह पक्ष भी देखा जाना अनिवार्य है कि आज भी नैतिकता या मर्यादा के विरूद्ध काम करने वाले व्यक्ति को पानी से अलग कर देते हैं। यह सबसे बड़ा सामाजिक दण्ड है। कहने का आशय यह है कि अपराधी कार्य करने वाला व्यक्ति समाज के साथ भी अपराध कर सकता है इसलिए ऐसे अपराधी से सबसे पहले जल की सुरक्षा करनी चाहिए। यह तथ्य इस बात का प्रतीक है कि प्राचीन समाज पानी की स्वच्छता के प्रति कितना संवेदनशील था।
आज भी उत्तराखण्ड में पानी की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए परम्परागत उपायों को व्यवहार में क्रियान्वित करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए लम्बी रेशेदार हरी शैवाल कायी पानी को प्राणियों के पाने के अनुकूल बनाने में सहायक सिद्ध होती है और शैवाल से गुजरने वाला पानी मनुष्य आदि सभी जीव जन्तुओं के लिए कम हानिकारक होता है। यह विशेष प्रकार की शैवाल पांच हजार फिट से अधिक ऊँचाई पर पायी जाती है। जबकि इसकी अपेक्षा कम ऊँचाई पर पायी जानी वाली शैवाल कतिपय स्थानों पर खासकर मैदानों में जहरीली भी होती है। उत्तराखण्ड में ऐसी हजारों-हजार जड़ी बूटियां है जो पानी को साफ एवं स्वच्छ रखने में सहायक होती हैं। तुलसी, पुदीना, पिपरमेंन्ट, फर्न घास, बज्रदन्ती, बज आदि जड़ी-बूटियों को प्राचीन काल में लोग पेयजल स्रोतों के आस-पास लगाते थे। हमारे गांवों में आज भी ये जड़ी-बूटियां पेयजल स्रोतों के आस-पास प्राप्त होती है। लेकिन जब से प्राकृतिक स्रोतों को तोड़कर नेचुरल फिल्टरेशन की बात नजरंदाज कर सीमेंट आदि रसायनों से चैम्बरों का निर्माण किया गया तो प्राचीन अवधारणा ही नष्ट हो गयी। ध्यान रखने वाली बात यह है कि शैवाल प्राकृतिक स्रोतों से निकलने वाली बारिक रेत की रोकती है और जीवाणु तथा बारीक जन्तुओं को भी, जबकि पुदीना व पीपरमेन्ट जल से मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तत्वों को ग्रहण कर उसे उपयोगी और स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद बनाते हैं। इसी प्रकार दूब, ब्राह्मी व बज कीटाणु नाशक होने के साथ-साथ बुद्धिवर्द्धक एवं स्वास्थ्य बर्द्धक हैं। समोया सुगन्ध बाला आदि औषधियां जल में रूचिकर व विरेचक गुणों को उत्पन्न करती हैं जबकि फर्न घास पानी में विचरण करने वाले केकड़े, मेढ़क, मछली, सांप, आदि जीव जन्तुओं द्वारा छोड़े गये अवशिष्टों को ग्रहण कर पानी को ताजा व शुद्ध बनाये रखती है। तुलसी आदि वनस्पतियों के गुणों से तो सभी विज्ञ हैं।
गंगा जल को अमृत बनाने वाली/कुछ जड़ी-बूटियों की सूची
अतीस | जटामांसी | रतन जोत |
अमलीच | जोगीपादशाह | रूद्रवन्ती |
अडूसा | जंगली इसबगोल | लालजड़ी |
अजगन्धा | जंगली कालीमिर्च | लांगली |
अजमोदा | जरूग (मत्ता जोड़) | लाटूफरण पांगरी |
असगन्ध | जोंक मारी | सतावर |
अपामार्ग | टिमरू | सर्पगन्धा |
आक | टंकारी | शंख पुष्पी |
उस्तखट्टूस | जेलू आर्चा | सतवा |
इन्द्रायण | दूब | समोया |
इन्द्रजटा | दुधिया अतीस | सालम पंजा |
कण्डाली | दुग्ध फेनी | सालम मिश्री |
कण्चकारी | धोय | कुणज |
कपूर कचरी | नीलकंठी | पुदीना |
कुल्हाडकट्या | नाग दमन | पिपरमेन्ट |
किलमोड़ | धुप लक्कड़ | ब्रह्मकमल |
कुकड़ी | निर्विषी | फेन कमल |
केदार कड़वी | पुनर्नवा | जंगली गेंदा |
कोल प्लेगहर बूटी | पित्तपापड़ा | चल |
कोल कन्द | पाषाण भेद | सरासेत |
कैलाशी मिरधा | पीली जड़ी | गुलाब |
कांथला | बज | गुलदावरी |
गिलोय | ब्रह्मी | वन अजवायन |
गिंजाड़ | गुग्गल | वन तुलसी |
गोबरी विष | वज्रदन्ती | मेदा महामेदा |
गोछी कोंच | बड़मूला | मूर मुरामासी |
चोरू रिखचोरू | वनफसा | मकोय |
चन्द्रायण | भैंसलो | मजीठा |
चिरायता | भमाकू | माल कंगणी |
चित्रक | ममीरा | सोमलता |
इन्हीं जड़ी बूटियों से हेकर गुजरने वाले पानी के स्वाद व गुणवत्ता का कोई जबाव नहीं है।
पानी की गुणवत्ता को बढ़ाने वाली हिमालयी जड़ी-बूटियां एवं औषधियां
उत्तराखण्ड हिमालय में अनेकों वृक्ष भी हैं। जिनका न केवल जल भण्डारण में बल्कि जल की गुणवत्ता बनाये रखने में भी महत्वपूर्ण योगदान है। इनमें मुख्य रूप से कुमकुम, सुराई, काफल, बॉज, बुरांश, पइयां दालचीनी, उदम्बर, उतीस व वेल प्रमुख हैं। कुमकुम की जड़ से निकलने वाला पानी धरती पर अमृत तुल्य है। यह जल इहलोक ओर परलोक में न केवल सद्वृत्तियों का विकास करता है बल्कि निरोग, गुणकारी, बुद्धि वर्द्धक, अमृत तुल्य देवताओं को भी दुर्लभ है। परन्तु आज कुमकुम का वृक्ष धरती से लुप्तप्राय हो रहा है ऐसे में कुमकुम का पेयजल की दृष्टि से भी संरक्षण आवश्यक है।
(सारणी-2) दूसरा महत्वपूर्ण वृक्ष सुराई है। सुराई की जड़ों से निसृत होने वाला पानी न केवल स्वास्थ्य वर्द्धक है बल्कि जिन गॉवों में भी पानी के स्रोतों पर सुराई का पेड़ हैं वहां के लोग गोरे-चिट्टे, साफ रंग, निरोग, सुन्दर, अधिकांश दोहरे बदन के सुडोल आकर्षक एवं दीर्घायु होते हैं। गेरी, पेरी, सुतोल, सणकोट, काण्डा, आदि गांवों में जहां पानी के स्रोतों पर सुराई के विशाल वृक्ष हैं वहां के लोगों को देखकर यह बात स्वयंसिद्ध हो जाती है, जबकि बॉज, बुरांश व काफल की जड़ों से निसृत होने वाला जल मधुर, सुपाच्य, भूख बढाने वाला निरोगी एवं स्वास्थ्यबर्द्धक तथा अत्यन्त गुणकारी होता है। उत्तराखण्ड हिमालय में ऐसे अनेकों वृक्ष एवं झाड़ियां हैं जो जल की गुणवत्ता बढ़ाने में सहायक सिद्ध होती हैं।
पानी की गुणवत्ता को बढ़ाने वाली दुर्लभ मृदा प्रजातियां
महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि चाहे जड़ी बूटियां और वृक्षों के रोपण से पानी की गुणवत्ता सुधारी जाय या आधुनिक हाईजनिक फिल्टरों से लेकिन उपभोक्ताओं को मानकों के अनुरूप पेयजल उपलब्ध होना ही चाहिए। इस प्रकार जिन गांवों में पेयजल स्रोतों से जल उपलब्ध होता है वहां के लिए प्राकृतिक पद्धति एवं जिन गांवों में पेयजल की पाइप लाइन है वहां फिल्टर की व्यवस्था अत्यन्त आवश्यक है। लेकिन इसके ठीक विपरीत आज हो रहा है।
जल वर्द्धक एवं जल शोधक जड़ी बूटियों की सूची (सारणी-2)
वृक्ष झाड़ियां | ||||
अखरोट | चीड़ | मजनू | चम्पा | करोंदा |
आम | च्यूरा | मेहल | मवा | कूंजा |
अमलतास | च्यूला | रक्त चंदन | सेंरू | कूरी |
अयांर | जामुन | रागा | दालचीनी | गढ़पीपल |
अर्जुन | डेंकणा | रीठा | किरकिला | जंगली मटर |
आडू | ढाक | लोद | संतरा | तुंगड़ा |
आंवला | तिमला | बरगद | बड़ा | धौला |
-- | मोरू | सागौन | गोभी | बांस |
इमली | तुन | साल | यमखड़ीक | बेर |
उतीस | थुनेर | सिरान | ऐरीकेरिया | मालू |
ओंगा | देवदार | सिंवाली | गुलमुहर | रामबांस |
अंगू | नासपाती | सुबबूल | हड़जोत | रिंगाल |
क्वेराल | नींबू | सुराई | सेमल | हिंसोल |
करील | नीम | शीशम | शहतूत | किलमोड़ |
काकड़ा | पांगर | पीपल | पापड़ी | चाम |
काफल | बबूल | हरड़ | पइयां | केला |
कीकर | बहेड़ा | बेल | कलमिन्डा | कुणज |
कैल | खड़ीक | बांज | कुमकुम | |
खर्सु | बेडू | कपासी | बुरांश | |
खैर | फनियांट | भमोरा | अमरूद | |
गूलर | गेंठी | भीमल | लीची | |
चिनार | बदाम | लुकाट | | |
उपयोगी जड़ी बूटियों झाड़ियों एवं वृक्षों की कमी के कारण कतिपय स्थानों पर सूखे की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। ऐसे स्थानों पर वनस्पति के नाम पर राजस्थानी, मरूस्थली या शुष्क क्षेत्रों की तरह नागफनी, लेन्टाना आदि कैक्टस प्रजाति की झाड़ियां उग रही हैं जिससे पानी के स्वाद व गुणवत्ता में लगातार कमी आ रही है। जल की गुणवत्ता समाप्त करने वाली कुछ मुख्य वनस्पतियों की सूची सारणी सं. 3 में देखा जा सकता है।
क्र.सं. | वनस्पति का नाम |
1 | यूकेलिप्टस |
2 | पौपुलस |
3 | सिल्वरओक |
4 | चीड़ |
5 | नागफनी |
6 | मुल्ला |
7 | रिण्डा |
8 | अरिण्डा |
9 | लेन्टाना |
10 | कालाबांस |
11 | गाजर घास |
12 | आंक |
13 | कनेर |
14 | सांखिया |
15 | ओक (एक विशेष प्रजाति) |
16 | खिण्डा |
उपरोक्त वनस्पतियां जो उत्तराखण्ड के मध्य हिमालय में पायी जाती हैं, उनमें यूकेलिप्टस, पौपुलस और सिल्वर ओक ही ऐसे वृक्ष हैं जो पानी वाले स्थानों में आसानी से उग जाते हैं शेष लगभग सारी वनस्पति शुष्क स्थानों में उगती हैं। प्रकृति की व्यवस्था देखिए शुष्क व वनस्पति विहीन क्षेत्रों में वह अंत में ऐसी वनस्पति उगति हैं जिन्हें मनुष्य व पशु हानि न पहुँचा सकें और बाद में इन्ही वनस्पतियों के सहारे उपयोगी वनस्पति भी उगनी प्रारम्भ होती है और प्रकृति पारिस्थितिकीय संतुलन स्थापित करने का प्रयास करती है।
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