एक शेर है.. ‘नए घड़े के पानी से जब मीठी खुशबू आती है, यूँ लगता है मुझको जैसे तेरी खुशबू आती है।’ अब तो लगता है फ्रीज और कूलर ने प्रकृति की यह मीठी सुगंध ही छीन ली जैसे। यकीन नहीं आता तो जरा आस-पड़ोस में देख-लीजिए, कितने लोग हैं जो ठंडे पानी के लिए मटकों का प्रयोग करते हैं। भोपाल में ही कुछ बरस पहले तक हाथ ठेलों पर मटके सजाए लोग कॉलोनियों में फेरी लगाते थे। अब यह कम हो गया है। महेश कुम्हार बताते हैं ‘अब बुजर्गों के कहने पर ही मटके लिए जाते हैं। नई पीढ़ी तो बोतलबंद पानी पीती है। कभी बाजार से खरीद कर या फ्रीज से निकाल कर। इसी कारण बिक्री गिर गई है साहब।’
और सुराही...सवाल छूटते ही जवाब मिला-‘एक-दो लोग ही खरीदते हैं। वो दिन कहाँ रहे जब हर घर में मटका और सुराही होती थी।’
मुझे वो दिन याद हो आए गर्मियों की रातों में छतें गुलजार होती थीं। गाँव हो या शहर हर जगह की यही तस्वीर। बिस्तर के किनारे होती थी एक सुराही। सुराही.. जितना सुरीला इसका नाम है उतना ही बाँकपन इसके आकार में भी। सुराहीदार गर्दन तो खूबसूरती का पैमाना भी है। जितना ठंडा और मीठा सुराही का पानी होता था, उतने ही बातें और रिश्ते भी मीठे हुआ करते थे, शौकिया लोगों के लिए नई डिजाइन की सुराही लाना जैसे अघोषित स्पर्धा थी। सुराही की अकेली ठंडक से बात न बने तो उसके लिए पैरहन तैयार किए जाते। टाट के इस पैरहन को जतन से भिगोया जाता, ताकि पानी और ठंडा हो सके।
फिर दिन बदले। लकड़ी की चारपाई की जगह पलंग सजे और उनके पास पंखों की जगह तय हो गई। सुराही पीछे सरकती गई। फिर तो जनाब फ्रिज आया और सुराही की जगह बोतल ने ले ली। क्या गिलास और क्या सुराही। फ्रिज खोलकर बोतल निकालना और सीधे गट-गट पानी पी जाना.. जैसे शान की बात हो गई। मटके, सुराही, सफर में सात ले जाई जाने वाली छागल, हाथ के पंखे सब गायब होते गए..
अब तो पंखों-कूलर को भी एसी ने बाहर का रास्ता दिखला दिया है। अब बंद कमरे में जब हम सो कर जागते हैं तो शरीर अकड़ जाता है। फ्रिज और वॉटर कूलर का पानी दाँत-गला खराब कर रहा है लेकिन फिर भी सुराही याद नहीं आती। मिट्टी की वो सुराही, वो मटकी जो प्राकृतिक फ्रिज है, जो गला खराब नहीं करते और जो बिजली भी बचाते हैं, जो ग्लोबल वार्मिंग की चिंता कम करते हैं और सबसे बड़ी बात ठंडे पानी से मीठे-सौंधे रिश्ते बनाते हैं।
और सुराही...सवाल छूटते ही जवाब मिला-‘एक-दो लोग ही खरीदते हैं। वो दिन कहाँ रहे जब हर घर में मटका और सुराही होती थी।’
मुझे वो दिन याद हो आए गर्मियों की रातों में छतें गुलजार होती थीं। गाँव हो या शहर हर जगह की यही तस्वीर। बिस्तर के किनारे होती थी एक सुराही। सुराही.. जितना सुरीला इसका नाम है उतना ही बाँकपन इसके आकार में भी। सुराहीदार गर्दन तो खूबसूरती का पैमाना भी है। जितना ठंडा और मीठा सुराही का पानी होता था, उतने ही बातें और रिश्ते भी मीठे हुआ करते थे, शौकिया लोगों के लिए नई डिजाइन की सुराही लाना जैसे अघोषित स्पर्धा थी। सुराही की अकेली ठंडक से बात न बने तो उसके लिए पैरहन तैयार किए जाते। टाट के इस पैरहन को जतन से भिगोया जाता, ताकि पानी और ठंडा हो सके।
फिर दिन बदले। लकड़ी की चारपाई की जगह पलंग सजे और उनके पास पंखों की जगह तय हो गई। सुराही पीछे सरकती गई। फिर तो जनाब फ्रिज आया और सुराही की जगह बोतल ने ले ली। क्या गिलास और क्या सुराही। फ्रिज खोलकर बोतल निकालना और सीधे गट-गट पानी पी जाना.. जैसे शान की बात हो गई। मटके, सुराही, सफर में सात ले जाई जाने वाली छागल, हाथ के पंखे सब गायब होते गए..
अब तो पंखों-कूलर को भी एसी ने बाहर का रास्ता दिखला दिया है। अब बंद कमरे में जब हम सो कर जागते हैं तो शरीर अकड़ जाता है। फ्रिज और वॉटर कूलर का पानी दाँत-गला खराब कर रहा है लेकिन फिर भी सुराही याद नहीं आती। मिट्टी की वो सुराही, वो मटकी जो प्राकृतिक फ्रिज है, जो गला खराब नहीं करते और जो बिजली भी बचाते हैं, जो ग्लोबल वार्मिंग की चिंता कम करते हैं और सबसे बड़ी बात ठंडे पानी से मीठे-सौंधे रिश्ते बनाते हैं।
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