वन्य संरक्षण के नाम पर स्थानीय लोगों की अनदेखी

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इस साल फरवरी के महीने में दुनिया के बड़े देशों में एक ने एक अदालती आदेश जारी किया। जिसके अनुसार उस देश में जंगलों में रहने वाले 10 लाख लोगों को अपने घर से जाना होगा। इस आदेश ने 10 लाख लोगों को अपने घर से बेदखली की ओर खड़ा कर दिया। भारत एक ऐसा देश है जहां लगभग 8 फीसदी वैश्विक प्रजातियां जंगल में पाई जाती है और 1 करोड़ से ज्यादा जंगलों में रहने वाले लोगों ने इस फैसलों पर शीर्ष अदालत में कोई चुनौती नहीं दी। हालांकि इस आदेश पर अस्थायी रूप से रोक लगा दी गई है। भारत के आकार और जैव विविधता-समृद्धि को देखते हुए इस फैसले पर वैश्विक प्राकृतिक विरासत के परिणाम हैं।

प्रकृति के संसाधनों का प्रबंधन और उपयोग यहां व इसके आसपास रहने वाले लोग कर सकते हैं। प्राकृतिक संपन्न क्षेत्रों में और आसपास रहने वाले समुदायों को शामिल करना संरक्षण का एक प्रभावी उपकरण है जिसे दुनिया भर के देशों ने मान्यता भी दी है। 1980 के विश्व संरक्षण रणनीति और पृथ्वी सम्मेलन 1992 में वन सिद्वांतों और जैव विविधता कन्वेशन में इस बात की पुष्टि की गई थी। वर्ष 2000 में सतत उपयोग पर वाइल्ड लिविंग रिसोर्सेज के पाॅलिसी स्टेटमेंट और बायोलाॅजिकल डायवर्सिटीज के उपयोग पर दिशा-निर्देश दिये गये थे।

नियम-कायदे

भारत इन सम्मेलनों में मुखर सदस्य रहा है। लेकिन देश में चीजें अलग तरह से संचालित होती हैं। भारत का जो वन संरक्षण कानून है उसके अनुसार वन उनमें बंटा हुआ है जो इसकी रक्षा करते हैं और उपज करते हैं। भारतीय वन अधिनियम 1927 और 1972 दोनों ही संरक्षित क्षेत्रों के ग्रेड बनाते हैं। जिसके अनुसार प्राकृतिक संसधानों पर प्रतिबंध लगाने का प्रावधान है। 1980 के दशक में ऐसी कई नीतियां थीं जो समावेशी संरक्षण की दिशा में वैश्विक बदलाव को दर्शाती थीं जैसे कि 1988 की राष्ट्रीय वन नीति और 1992 की राष्ट्रीय संरक्षण नीति, 2006 की राष्ट्रीय पर्यावरण नीति और 2007 की बायोस्फेयर रिजर्वेशन गाइडलाइंस। 

मार्च 2019 में भारतीय वन अधिनियम का एक संशोधन प्रस्तावित किया गया था। यह संशोधन वन अधिकार अधिनियम के तहत दिए गये अधिकारों को समाप्त करने के प्रावधानों के बारे में बताता है। इसके अलावा यह वन अधिकारी को संदेह के आधार पर वन-निवासियों के परिसर में प्रवेश करने और तलाशी लेने, बिना किसी वारंट के गिरफ्तारी और वन संरक्षण के लिए हथियार का उपयोग करने की अनुमति देता है।

हालांकि इन लोगों के अनुकूल नीतिगत बयानों ने भारत के संरक्षण डॉक में अपनी जगह बनाई लेकिन इसके पहले के बहिष्कार संरक्षण कानून में इसकी जगह बनी रही।  इस विभाजन को पाटने के लिए 1990 के संयुक्त वन प्रबंधन दिशा-निर्देश ने वन अधिकारियों के सहयोग से सामुदायिक संस्थान बनाए। इसने शुरुआत में देश के कुछ हिस्सों में सफलता पाई लेकिन स्थानीय समुदायों के लिए वास्तविक विकास का व्यापक रूप नहीं ले पाया। 2006 में वन अधिकार अधिनियम के माध्यम से भारतीय संरक्षण में एक नाटकीय बदलाव आया। जो स्थानीय लोगों को सिर्फ वहां के संसाधनों को उपयोग करने की  मंजूरी नहीं दे रहा था बल्कि जंगल की भूमि और उपज पर स्थानीय समुदायों को अधिकार दिया जा रहा था। जनजातीय मामलों के मंत्रालय को इस अधिनियम का संचालन सही से हो उसकी जिम्मेदारी दी गई, जबकि संरक्षण पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अधीन रहा। खराब नौकरशाही वातावरण को देखते हुए कानून कुछ जेबों को छोड़कर लड़खड़ा गया। कम संसाधन के बावजूद, वन अधिकार अधिनियम, वन नौकरशाही और वन्यजीव संगठनों के भीतर उन लोगों की मुश्किलों को बढ़ाने में सफल रहा, जिन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष इसकी संवैधानिकता को चुनौती दी थी।

वर्षों से भारत की संरक्षण नीतियों और कानून में इरादे और कार्रवाई के बीच एक द्वंद्व चल रहा है। भारत की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं की जांच में कुछ प्रगतिशील नीतिगत दस्तावेज डाल दिये जाते हैं। जबकि जमीन पर पूरी तरह से एक अलग तस्वीर दिखाई पड़ती है। यदि समावेशी संरक्षण पर भारत के रुख के बारे में कोई अनिश्चितता थी तो पिछले तीन वर्षों से पता चलता है कि सामुदायिक भागीदारी के ढोंग को काफी हद तक दूर किया जा चुका है।

नौकरशाही के अधीन

तीसरा राष्ट्रीय वन्यजीव कार्य योजना, जिसे 2017 में इंटरनेशनल कमिटमेंट को पूरा करने के इरादे से शुरू किया गया था। जो साफ तौर पर स्थानीय लोगों के संरक्षण में बाधा है। जहां समुदाय शामिल है, वहां यह अधिकारों के अधिकार को साफ तौर पर बचाता है। बजाय इसके एक नौकरशाही-नियंत्रित प्रारूप के फ्रेम का उपयोग करता है। 2018 में एक मसौदा राष्ट्रीय वन नीति थी जिसने संरक्षित क्षेत्र मॉडल पर जोर दिया जो समुदायों के लिए बहुत कम जगह छोड़ता है। 2019 की शुरुआत में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर जिनका वर्तमान में हनन किया गया था। उन वनवासियों के निष्कासन को अनिवार्य कर दिया था जिनके वन अधिकार अधिनियम के तहत दावों को खारिज कर दिया गया था। 

मार्च 2019 में भारतीय वन अधिनियम का एक संशोधन प्रस्तावित किया गया था। यह संशोधन वन अधिकार अधिनियम के तहत दिए गये अधिकारों को समाप्त करने के प्रावधानों के बारे में बताता है। इसके अलावा यह वन अधिकारी को संदेह के आधार पर वन-निवासियों के परिसर में प्रवेश करने और तलाशी लेने, बिना किसी वारंट के गिरफ्तारी और वन संरक्षण के लिए हथियार का उपयोग करने की अनुमति देता है। आमतौर पर आतंकवाद, उग्रवाद और संगठित अपराध से निपटने के लिए आरक्षित राज्य प्राधिकरण को अब जैव विविधता की सुरक्षा के लिए भी तैनात किया जाना है। कथित तौर पर वन्यजीव संरक्षण अधिनियम में संशोधन किया गया है। हाल के वर्षों में भारत की संरक्षण नीतियां कोई संदेह नहीं छोड़ती हैं क्योंकि देश संरक्षण के मॉडल को आगे बढ़ाने पर आमादा है। जबकि अन्य देश समुदाय-आधारित संरक्षण मॉडल के मूल्य को पहचान रहे हैं। भारत तेजी से उल्टी दिशा में आगे बढ़ रहा है।

(लेखिका पर्यावरण वकील, अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (एट्री) बेंगलुरु के साथ एक वरिष्ठ नीति विश्लेषक हैं।)

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