वनाधिकार वनवासियों का हक

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वनाधिकार (फोटो साभार - वाइडवो)जंगल और उनके वनवासियों का हाल पहले ही काफी बुरा है, लिहाजा उनसे जुड़े मुद्दों पर संवेदनशीलता के साथ विचार करने की जरूरत है। प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिये बाहरी पूँजी निवेश पर आधारित नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था की राह में बाधा उत्पन्न कर दिया है। कानून के लागू होने के एक दशक बाद भी देश में अपनी जमीन से बेदखल हुए लाखों वनवासियों को जमीन पर मालिकाना हक नहीं मिल सका है। लेकिन स्थिति यह है कि वन भूमि का इस्तेमाल विकासकर्ताओं के हित में हो रहा है। वनों के बीच निवास करने वाले समुदायों के पास पीढ़ियों से अपनी आजीविका चलाने के लिये खेती, मकान, गौशाला और चारागाह है। इन्होंने मवेशियों को पालने और पेयजल के लिये तालाब भी बनाए हैं। बाद में अंग्रेजों के बने वन कानून ने इन वनवासियों की भूमि को वन भूमि के रूप में पेश करके इन्हें अतिक्रमणकारी करार दिया। इसके कारण वर्षों तक इनकी आजीविका से छेड़छाड़ होती रही है। कई तरह के अन्याय और शोषण के कारण इन्हें एक जंगल से दूसरे जंगल में शरण लेनी पड़ी है।

आजादी के बाद इस तरह जीवन जीने वाले वनवासियों की पहचान करने में वर्षों गुजर गए थे। जब देश में कई स्थानों पर सामाजिक संगठनों ने संकट में पड़े इन वन समुदायों के अधिकारों के लिये संघर्ष किया तो, इसके उपरान्त अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वनाधिकारों की मान्यता) अधिनियम - 2006 बना है। वनाधिकार कानून के नाम से पहचान वाला यह कानून सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद भी राज्यों में अभी तक पूरी तरह से नहीं पहुँच सका है। जम्मू कश्मीर को छोड़कर देश के सभी राज्यों की सरकारें इस वनाधिकार में अनुसूचित जनजाति तथा अन्य परम्परागत वनवासियों की अवधारणा को जमीन पर नहीं उतार पाई है।

हिमालयी राज्यों में जहाँ 40-65 प्रतिशत वनभूमि है। वहाँ भी वन निवासी की परिभाषा झमेले में पड़ी है। उत्तराखण्ड में वनभूमि का आँकड़ा 65 फीसद है। जिस पर बड़ी संख्या में लोगों की पुश्तैनी खेती, जंगल, निवास आदि है। लेकिन वन विभाग की नजर में यहाँ शून्य वन निवासी है, जबकि यहाँ की तहसीलों में हजारों वनवासियों ने वनाधिकार के अनुसार व्यक्तिगत और सामूहिक दावे फार्म जमा कर रखे हैं।

हिमाचल में 5692 निजी दावे वर्ष 2008-09 में जमा किये गए थे। इसमें से 346 दावेदारों को ही केवल 0.354 एकड़ भूमि पर अधिकार पत्र मिले हैं। वर्ष 2015 के मध्य तक उड़ीसा में कुल 5,98,179 निजी और 7688 सामूहिक दावे पेश किये गए थे। जिसमें से 3,44,541 निजी और 2910 सामूहिक दावे स्वीकृत हुए हैं। केवल 5,46,330 एकड़ भूमि पर लोगों को मालिकाना अधिकार दिये गए हैं। मध्य प्रदेश में भी वर्ष 2014 के अन्त तक 4,30,000 दावों में से 1,80,000 दावों को ही स्वीकृति मिली थी। राजस्थान, छत्तीसगढ़ में भी वनवासियों को मालिकाना हक प्राप्त करने के लिये भारी जद्दोजहद करनी पड़ रही है।

इस वनाधिकार में लिखा गया है कि वनभूमि में जहाँ लोग 13 दिसम्बर 2005 से पहले तीन पीढ़ियों से निवास कर रहे हों, उन्हें दावा फार्म के साथ इसका प्रमाण भी प्रस्तुत करना चाहिए। इसके अनुसार लोगों को दो तरह के अधिकार दिये जा सकते हैं। पहला व्यक्तिगत और दूसरा सामूहिक। व्यक्तिगत अधिकार के लिये वन निवासी अपनी पुश्तैनी भूमि, मकान, खेती योग्य जमीन के लिये दावा फार्म भर सकता है।

वन ग्राम और ग्रामसभा उस जंगल पर अधिकार के लिये सामूहिक दावा कर सकती है, जहाँ से वे चारापत्ती, जलावन, हक-हकूक की इमारती लकड़ी लेते है। उसमें उन गौण वन उत्पादों पर भी सामूहिक दावा किया जा सकता है, जिसका लोग पारम्परिक रूप से संग्रहण कर बेच सकते हैं। वन नीति 1988 में वन निगम को ही इस तरह के वनोत्पादों पर सीधा अधिकार है। लेकिन वनाधिकार-2006 में इसको बेचने के अधिकार भी लोगों को दिये गए हैं।

वनाधिकार में घुमक्कड़ी पशु चारक समुदाय को पारम्परिक मौसमी संसाधनों जैसे मछली पकड़ने, पशु पालन आादि हक वैधानिक रूप में दिये गए हैं। वन और वनभूमि पर उनके गृह आवास में रहने का उन्हें पूर्णत; अधिकार दिया गया है। इस अधिनियम में कहा गया है कि यदि राज्य सरकार द्वारा पूर्व में किसी कम्पनी, प्राधिकरण या पट्टों पर दी गई वनभूमि को भी उनके नाम से हटाकर वापस वनवासियों को लौटाई जा सकती है।

इस तरह के परिवर्तन के अधिकार वनग्रामों, पुराने आवासों, असर्वेक्षित ग्रामों में चाहे वे लेखबद्ध हो या न हो, को वन प्रबन्धन व पुनर्जीवित करने का अधिकार भी दिया गया है। इसके अलावा जैवविविधता के संरक्षण हेतु पारम्परिक ज्ञान का अधिकार भी समुदाय को दिया गया है। लेकिन ऐसे सामुदायिक अधिकार पर प्रतिबन्ध है, जो वन्य जीवों को मारने या उसके अंगों को बेचने में उपयोग करता हो। इसकी खास बात यह भी है कि विद्यालय, हॉस्पिटल, आँगनबाड़ी, दुकानें, विद्युत एवं संचार लाइनें, लघु जलाशय, टंकियाँ, पाइप लाइनें, तालाब, लघु सिंचाई नहरें, व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्र, वैकल्पिक ऊर्जा, सड़कें, सामुदायिक केन्द्र हेतु एक हेक्टेयर से कम भूमि का हस्तांतरण केवल ग्रामसभा के सिफारिश से ही किया जा सकता है। इसके लिये गाँव से लेकर राज्य तक समितियाँ बनाई जानी हैं।

वनाधिकार कानून में एक महत्त्वपूर्ण शर्त है कि राज्य को बिना किसी विलम्ब के कठिन स्थितियों से भी ऊपर उठकर लागू करना चाहिए। जिसका पालन नहीं हो रहा है। जबकि पंचायती राज, समाजकल्याण, राजस्व, वन विभाग को मिलकर काम करने की जिम्मेदारी दी गई है। नेशनल पार्कों और अभयारण्यों के बीच बसे हुए गाँव का पुनर्वास भी इस अधिनियम के अर्न्तगत किया जा सकता है। देश में अपनी जमीन से बेदखल हुए लाखों वनवासियों को इसके अन्तर्गत जमीन पर मालिकाना हक दिया जा सकता है। लेकिन स्थिति यह है कि वनभूमि का इस्तेमाल विकासकर्ताओं के हित में हो रहा है। वनवासी अपने पारम्परिक निवास वनाधिकार के बाद भी छोड़ने को मजबूर हैं।

श्री सुरेश भाई उत्तराखण्ड में चिपको, रक्षा सूत्र आन्दोलन एवं नदी बचाओ अभियान से जुड़े हैं। सम्प्रति उत्तराखण्ड सर्वोदय मंडल के अध्यक्ष हैं।

 

 

 

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