वनाधिकार कानून के बाद भी बेदखलीकरण क्यों


झारखंड में अन्य परम्परागत वन निवासियों को अभी तक वन भूमि का अधिकार नहीं दिया जा रहा है। झारखंड सरकार के अनुसार दिसम्बर 2011 तक कुल 36 हजार दावे जमा हुए, जिसमें करीब 10 हजार लोगों को वन हक-प्रमाण पत्र मिला। इसमें कुल 15 हजार एकड़ जमीन मिला। 15 हजार से अधिक दावे खारिज किए गए। बहुत से दावे अभी भी लम्बित हैं। आन्दोलन, जनसंघर्ष और वैश्विक स्तर पर पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से उठते सवालों के दबाव में भारत सरकार ने वनाधिकार कानून तो बना दिया लेकिन, जब इसे लागू करने की बात आई, तो राज्य सरकार उदासीन है। वनभूमि के दावेदावरों के दावों में वनविभाग द्वारा भारी कटौती की जा रही है। सरकार वनभूमि पर पट्टा देने के नाम पर दावेदारों को 30-40 डेसिमल या किसी को एक-दो एकड़ जमीन मन्जूर करके व्यक्तिगत वन अधिकार प्रमाण-पत्र दे रही है।

वन पर समुदाय के अधिकार : सरकार वन-संसाधनों पर समुदाय के अधिकारों को मन्जूरी नहीं दे रही है। वन प्रबंधन का अधिकार ग्राम सभा को नहीं दिया जा रहा है। वनाधिकार के तहत वन ग्रामों को राजस्व ग्राम का दर्जा देना है। लेकिन, यह काम भी अभी तक नहीं हो रहा है।

वनाधिकार कानून के तहत टिम्बर को छोड़कर सारे गैर-लकड़ी वनोपज, जैसे- बाँस, बेंत, बीड़ी पत्ता आदि को भी बेचने का अधिकार है। लोग इनको जमा करके गाँव से लेकर शहर तक कहीं भी बेच सकते हैं। इसके लिये सरकार ग्राम सभा परमिट बुक प्राप्त कर सकती है और आवश्यकतानुसार किसी भी व्यक्ति को उसे दे सकती है। लेकिन, वन विभाग अब भी बीड़ी पत्ता और बाँस को छोड़ने को तैयार नहीं है और परमिट देने को राजी नहीं हो रहा है। बीड़ी पत्ता करोड़ों रुपये का व्यापार है। वन विभाग बीड़ी पत्ता का ठेका ठेकेदारों को देता है और उनसे लाखों रुपये वसूलता है। इससे वन विभाग के लोग मालामाल होते हैं। वनाश्रित समुदाय को इसका समुचित लाभ नहीं मिल रहा है।

पुराने कानून हावी : वनाधिकार कानून में उल्लेखित कोई भी अधिकार सही तरीके से लागू नहीं हो रहे हैं। अपवाद को छोड़ दिया जाए, तो वन विभाग इस कानून को लागू ही नहीं करना चाहता। वन विभाग के पास भारतीय वन अधिनियम-1927 और भारतीय वन्य जीव संरक्षण अधिनियम-1980 जैसे कड़े कानून मौजूद हैं। वनाधिकार कानून-2006 के बाद भी वन विभाग अंग्रेजों के औपनिवेशिक कानूनों के नक्शे कदम पर चल रहा है। वह अपने में बदलाव नहीं लाना चाहता। नए वनाधिकार कानून को लागू करने के बदले वह पुराने कानूनों को ही लागू करके जंगल और जनता पर अपना दबदबा बनाए रखना चाहता है।

आदिवासियों के अधिकार: वनाधिकार कानून की धारा 3 (झ) के तहत वन संरक्षण एवं प्रबंधन का अधिकार तथा धारा 5 के तहत जंगली जीव-जन्तु और जैवविविधता के संरक्षण एवं प्रबंधन का अधिकार ग्रामसभा को है। वन में निवास करने वाले आदिवासियों और अन्य परम्परागत वन निवासियों को उनकी सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासतों को सुरक्षित रखने का अधिकार है। इन्हें सामुदायिक वन संसाधनों तक पहुँच के साथ ही ऐसे किसी क्रियाकलाप को रोकने का अधिकार भी है, जिससे वन्य जीव, वन और जैवविविधता पर बुरा असर पड़ता हो। लेकिन, सरकार और वन विभाग समुदाय के हाथों इन अधिकारों को नहीं देना चाहती है।

अगर ये अधिकार गाँव समुदाय और ग्राम सभा को मिल जाते हैं तो पूँजीपति और कम्पनी वनभूमि को आसानी से अधिग्रहण नहीं कर सकते और उनकी मनमानी नहीं चल सकती। मगर सरकार कम्पनियों और कॉर्पोरेट हितों को संरक्षण देना चाहती है। इन्हीं सब कारणों से वन विभाग और सरकार पिछले दरवाजे से फिर संयुक्त वन प्रबंधन को चालू करना चाहती है,जबकि लोग इसके विरोध में हैं।

कानून की जानकारी नहीं: वनाधिकार कानून के लागू हुए चार साल हो गए। लेकिन, अभी कई ऐसे गाँव या क्षेत्र हैं जहाँ जंगल आश्रित लोगों को इसकी जानकारी ठीक से नहीं है। बहुत से लोगों ने अब भी दावा-पत्र नहीं भरा है, क्योंकि कई जगह दावेदारों को दावा-पत्र मिला ही नहीं है। कहीं-कहीं लोग दावा-पत्र भर रहे हैं, लेकिन ब्लॉक में जमा नहीं लिया जा रहा है। कई स्थानों पर अमीन उपलब्ध न होने के कारण वनभूमि का सर्वे और नापी-नक्शा का काम नहीं हो रहा है।

झारखंड में अन्य परम्परागत वन निवासियों को अभी तक वन भूमि का अधिकार नहीं दिया जा रहा है। झारखंड सरकार के अनुसार दिसम्बर 2011 तक कुल 36 हजार दावे जमा हुए, जिसमें करीब 10 हजार लोगों को वन हक-प्रमाण पत्र मिला। इसमें कुल 15 हजार एकड़ जमीन मिला। 15 हजार से अधिक दावे खारिज किए गए। बहुत से दावे अभी भी लम्बित हैं।

वन सम्बन्धी मुकद्मे: झारखंड में 2007 में करीब 16 हजार वन सम्बन्धी मुकद्मे थे। जंगल अधिकार आन्दोलन के संगठनों द्वारा इन मामलों को रद्द कराने की माँग पर झारखंड के तत्कालीन वन एवं पर्यावरण मंत्री सुधीर महतो के हस्तक्षेप से वन विभाग के अधिकारियों ने अपनी बैठक कर करीब 4 हजार मामलों को रद्द किया था। झारखंड में अब भी 12 हजार लोगों पर वन सम्बन्धी मुकद्मे हैं। इन पर वन भूमि के अतिक्रमणकारी या जंगल से लकड़ी या दातुन-पत्ता तोड़ने का आरोप है। कुछ मामले वन्य जीवों को शिकार करने को लेकर भी हैं। अभी छोटे-मोटे करीब 500 और मामलों को रद्द करने पर विचार चल रहा है, लेकिन इसमें खास प्रगति नहीं हुई है। प्रशासन के अनुसार इसमें से करीब 101 मामलों को रद्द किया गया है।

अभी वन सम्बन्धी मामलों की सुनवाई या फैसला करने का जो अधिकार रेंजर और वन प्रमंडल पदाधिकारी को है, उस नियम या प्रावधान को खत्म करने की जरूरत है। इससे वन विभाग द्वारा वन निवासियों पर शोषण को और बढ़ावा मिलता है।

ईमानदारी से करें लागू: अब जब वनाधिकार कानून बन गया है तो सरकार इसे ईमानदारी और सही तरीके से लागू करे। जंगल के प्रबंधन का अधिकार गाँव सभा को दें। जंगल में लोगों के रहने और जीने के अधिकार को सुनिश्चित करे। साथ ही जंगल से आदिवासियों के छीने गए अधिकारों को वापस करे तथा वनाधिकार कानून के मुताबिक आदिवासियों-वनवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने के उद्देश्य को पूरा करे। सरकार आदिवासियों और वनाश्रितों को जन विद्रोह के लिये मजबूर न करे।

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