वनों और इंसानों का प्रारंभ से ही परस्पर संबंध रहा है। वन जहां पर्यावरण चक्र को संतुलित करने में अहम भूमिका निभाते हैं, वहीं मनुष्य के लिए प्राण वायु के रूप में ऑक्सीजन भी पेड़ ही पैदा करते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में इन्हीं वनों पर सभी जीवनयापन के लिए पूरी तरह निर्भर थे। भोजन के लिए अनाज, लकड़ी, घर बनाने के लिए पत्थर, बजरी, रेत आदि सभी का इंतेजाम जंगलों से ही होता था। भेड़, बकरी, गाय, भैंस आदि पशुओं के चारे का बंदोबस्त भी जंगलों से होता था। जंगल की सूखी लकड़ी, सूखे पत्तों का उपयोग उन्हें बीनकर चूल्हा जलाने के लिए किया जाता था, जिससे जंगलों में गर्मी के दौरान आग नहीं लगती थी। सभी स्थानीय लोग जंगलों की अपनत्व के साथ पूरी रक्षा करते थे, लेकिन वन संरक्षण के नाम पर वर्ष 1980 में वन (संरक्षण) अधिनियम बनने के बाद सब कुछ बदल गया।
रोजगार की तलाश में पहाड़ों से पलायन के कारण हजारों गांव खाली हो गए हैं। गुणवत्तापरक शिक्षा और चिकित्सा सुविधाओं का आज भी पहाड़ों पर अभाव है। जहां पर्यटन और खेती राजस्व का मुख्य श्रोत होने चाहिए थे, आज वहां शराब राजस्व का मुख्य श्रोत है, जिससे उत्तराखंड़ का युवा नशे की भट्टी में डूबता जा रहा है। विकास के नाम पर पर्यावरण को क्षति पहुंचाई जा रही है और हजारों पेड़ों को काटा जा रहा है।
पुश्तैनी हक-हकूक छीनने से वनों पर पहाड़ी इलाकों के लोगों का कोई अधिकारी नहीं रहा। वन केवल सरकारी संपत्ति बनकर रह गए। लोगों के पास जंगल से एक पत्थर उठाने तक का अधिकार नहीं रहा। नतीजन उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों के लोगों के सामने रोजी रोटी का संकट गहरा गया। इससे लोगों में सरकार के प्रति काफी आक्रोश व्याप्त हो गया, लेकिन विरोध किसी ने नहीं किया। हालाकि लोगों ने वनों की तरफ देखना ही छोड़ दिया और जीवनयापन के अन्य साधन जुटाने में जुट गए। इससे जंगलों में तस्करों की चहलकदमी बढ़ गई। चीड़ के जंगलों से पिरूल का एकत्रिकरण न होने के कारण जंगल में आग लगने के मामले बढ़ते गए। आग लगने से होने वाले वन संपदा के नुकसान को देखकर भी जंगलों के प्रति शासन और प्रशासन की उदासीनता कम नहीं हुई, जिस कारण उत्तराखंड में अब तक 45 हजार हेक्टेयर से अधिक जंगल वनाग्नि की भेंट चढ़ चुके हैं, लेकिन आज भी पर्यावरण संरक्षण को लेकर सरकार के केवल वादे ही नजर आते हैं। किंतु अब वनों के वजूद को बचाने और अपने पुश्तैनी हक-हकूकों को बचाने के लिए उत्तराखंड़ की वादियों में वनाधिकारी आंदोलन जन्म ले रहा है।
उत्तराखंड प्रारंभ से ही आंदोलन की धरती रहा है। अपने हक, समाज हित और पर्यावरण को लेकर उत्तराखंड़ में सैंकड़ों आंदोलन हुए हैं। चिपको आंदोलन और उत्तराखंड़ राज्य आंदोलन की गूंज तो पूरे विश्व ने सुनी थी, जिसमे राज्य की महिला शक्ति ने बढ़-चढ़कर भाग लिया था और दिल्ली तक सरकार को हिला दिया था, लेकिन राज्य बनने के बाद भी उत्तराखंड में न तो अपेक्षाकृत विकास हुआ और न ही पहाड़ी इलाकों में समस्या का समाधान। हां, उत्तरखंड की प्राकृतिक संपदा का बड़े स्तर पर दोहन जरूर किया गया। जिस कारण उत्तराखंड कुछ वर्ष पूर्व ही अस्तित्व में आए छोटे से राज्य तेलंगाना से भी विकास के मायनों में पीछे है। सरकार की उदासीनता का असर राज्य में इतने व्यापक स्तर पर पड़ा कि रोजगार की तलाश में पहाड़ों से पलायन के कारण हजारों गांव खाली हो गए। गुणवत्तापरक शिक्षा और चिकित्सा सुविधाओं का आज भी पहाड़ों पर अभाव है। जहां पर्यटन और खेती राजस्व का मुख्य श्रोत होने चाहिए थे, आज वहां शराब राजस्व का मुख्य श्रोत है, जिससे उत्तराखंड़ का युवा नशे की भट्टी में डूबता जा रहा है।वहीं अब देवप्रयाग में शराब की फैक्ट्री खोलने को लेकर राजनीतिक गलियारे ऐसा हड़कंप मचा हुआ है। विकास के नाम पर पर्यावरण को क्षति पहुंचाई जा रही है और हजारों पेड़ों को काटा जा रहा है, लेकिन पौधारोपण के नाम पर केवल खानापूर्ति होती है। जिस कारण वन विभाग और सरकार की फाइलों में उत्तराखंड में विशालकाय जंगल है, जो बढ़ ही रहा हैं, लेकिन धरातल पर वास्तविकता सरकारी फाइलों के विपरीत है। वहीं अब अन्य प्रदेशों के लोगों के लिए उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में जमीन खरीदने की निर्धारित सीमा को भी समाप्त कर दिया है, जिससे पहाड़ों पर भू-माफियाओं की पहुंच बढ़ गई है। पहाड़ पर मंडराते संकट और अपने अस्तित्व पर खतरे को देखते हुए उत्तराखंड में अब वनाधिकार आंदोलन खड़ा हो रहा है। वनाधिकारी आंदोलन के प्रदेश संयोजक किशोर उपाध्याय हैं। आंदोलन के माध्यम से सरकार से उत्तराखंड राज्य को वनवासी राज्य का दर्जा देते हुए उत्तराखंड वासियों को केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण देने की मांग की जा रही है।
बैठक में क्रांगेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय ने कहा कि पहाड़ी इलाकों के पानी को कुछ राज्यों में लोगों को निशुल्क दिया जा रहा है, लेकिन उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों के लोग दो बूंद पानी के लिए तक मोहताज हो रहे हैं। जिस कारण दिल्ली सरकार की तर्ज पर राज्य सरकार प्रत्येक परिवार को पर्याप्त पेयजल निशुल्क उपलब्ध कराए। वें बताते हैं कि वन एवं पर्यावरण की रक्षा की एवज में उत्तराखंड़ के प्रत्येक परिवार को प्रतिमाह एक रसोई गैस सिलेंडर तथा 100 यूनिट बिजली निशुलक देने, पूर्व की भांति राज्य के हर पहाड़ी इलाकों के लिए परिवार को भवन निर्माण के लिए रेत, बजरी, पत्थर और लकड़ी मुफ्त देने, वन एवं प्राकृतिक संसाधनों पर उत्तराखंड वासियों के परंपरागत हक-हकूकों की रक्षा करते हुये वन क्षेत्र की जड़ी-बूटी के दोहन का अधिकार स्थानीय बेरोजगार युवाओं को देने, जंगली जानवरों द्वारा मानव हत्या या विकलांगता के एवज में मृतक या विकलांग या आश्रित परिवार को 25 लाख रुपये मुआवजा व परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने, जंगलों जानवरों द्वारा फसल को नुकसान पहुंचाने पर उचित मुआवजा, वन अधिकारी कानून 2006 को अविलंब लागू करने के साथ ही उत्तराखंड राज्य को हर साल 10 हजार करोड़ रुपये ग्रीन बोनस के रूप में देने औैर तिलाड़ी आंदोलन के शहीदों के सम्मान में 30 मई को वन अधिकार दिवस घोषित करने की मांग सरकार से की जा रही है। इस संदर्भ में बीते दिनों वनाधिकारी की हल्द्वानी में एक बैठक कर आठ प्रस्ताव पास किये गए। हालाकि वनाधिकारी को लेकर पहले भी कई मंचों से आवाज उठती रही है, लेकिन कांग्रेस द्वारा शुरू किया गया ये वनाधिकार आंदोलन आखिर कितना व्यापक जन समर्थन हासिल करने में कामयाब रहता है, क्योंकि कांग्रेस ने वनाधिकार आंदोलन के माध्यम से आवाज तो उठाई है, लेकिन जब कांगेस की सरकार थी, तब वनाधिकारी के लिए कोई प्रयास होते नहीं दिखे थे। इसलिए अब देखना ये होगा कि ये केवल राजनीतिक स्टंट साबित होता है या सरकार पर दबाव बनाकर लोगों को उनके हक-हकूक वापिस दिलाये जाते हैं।
बैठक में ये प्रस्ताव हुए पास
1. वनाधिकार आंदोलन के साथ भावी पीढ़ी को जोड़ने के क्रम ने अगले 6 महीने के अंदर स्कूल और कॉलेज में पढ़ने वाले छात्र छात्राओं को जोड़ने के प्रयास करने हैं। जिसके तहत अधिक से अधिक विद्यार्थियों तक पहुंचने का प्रयास किया जाएगा।
2. जल और जंगल को बचाने और संरक्षित करने में महिलाओं का विशेष योगदान रहा है। आज ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं ही इस कानून से सबसे ज्यादा पीड़ित हैं। इसलिए इस आंदोलन में अधिक से अधिक महिलाओं को जोड़ने का प्रयास किया जाएगा।
3. आंदोलन के अगले चरण में ब्लॉक और न्याय पंचायत स्तर पर बैठके, धरना प्रदर्शन किया जाएगा।
4. आंदोलन को गति देने और अधिक से अधिक लोगों को जोड़ने के लिये जिला, विधानसभा क्षेत्र स्तर पर इकाईयां गठित की जायेंगी।
5. उत्तराखंड के निवासियों को एक निश्चित सीमा तक पानी मुफ्त दिया जाये। इसके लिये सरकार को 6 महीने का समय दिया जाता है। यदि दिसम्बर 2019 तक, पानी के मुद्दे पर सरकार ने मांगों पर सकारात्मक फैसला नहीं लिया तो जनवरी 2020 के बाद पानी बिल देना बंद कर देंगे।
6. आने वाले पंचायत चुनावों में वनाधिकार को प्रमुख मुद्दा बनाएंगे।
7. वन ग्रामों में जिन लोगो को पंचायत चुनावों में वोट देने से वंचित किया जा रहा है उनके नाम वोटर लिस्ट में जोड़े जाएं, ताकि वो विधानसभा और लोकसभा की तरह अपना मताधिकार का पालन कर सकें।
8. वन विभाग पोधोरोपण के लिये जो भी पौध लेते हैं वो रेंज स्तर से खरीदी जाये, ताकि पर्वतीय क्षेत्रों में अधिक से अधिक नर्सरी बन सकें।
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