वन विभाग द्वारा जारी पासों के जरिए इस इलाके में प्रवेश को नियंत्रित किया जा सकता है। धनी होटल वालों के मुकाबले मछुआरों से फ़ीस वसूली जा सकती है और उसका इस्तेमाल इलाके के विकास के लिए किया जा सकता है। इस्तेमाल के लिए इलाक़ा तय किया जा सकता है और इस्तेमाल का तरीका भी निर्धारित किया जा सकता है। सेटेलाइट इमेजरी के जरिए निगरानी हो सकती है। यह पर्यावरण और स्थानीय लोगों की आजीविका दोनों ही लिहाज से जीतने की स्थिति होगी। पिछले दिनों राजस्थान हाईकोर्ट ने रणथंभौर के बाघ अभ्यारण्य में बाघों की कम होती संख्या के मद्देनज़र यह निर्देश दिया था कि सभी तरह के वाहनों के अभ्यारण्य में प्रवेश पर पाबंदी होनी चाहिए। इस पर तत्काल और बेहद उन्मादी प्रतिक्रिया हुई। संरक्षणवादी, बाघों को पसंद करने वाले और टूरिस्ट संस्थाएं चलाने वाले एक साथ आ गए और यह तर्क प्रस्तुत किया कि पाबंदी लगाने से होटल उद्योग पूरी तरह से बर्बाद हो जाएगा और टूरिस्ट ऑपरेटरों के सामने जीविका संकट आ जाएगा। यहां तक तर्क दिए गए पर्यटकों को पार्क में जाने दिया जाएगा तो इससे शिकारी नहीं आएँगे (यह तर्क देने वालों का अंदाजा शायद यह है कि शिकारी दिन-दहाड़े बाघों का शिकार करते हैं या जितने पर्यटक पार्क में जाते हैं उन्हें अनिवार्य रूप से बाघ दिख ही जाते हैं)। इन सब का साझा दबाव काम आया और दिसंबर के अंत तक अदालत ने पाबंदी वापस ले ली।
अब एक दूसरी जगह की दूसरी घटना की ओर चलते हैं। वहां भी शुरूआत ऐसी हुई, लेकिन अंत अलग हुआ। पश्चिम बंगाल डेल्टा में जंबूद्वीप एक छोटी सी जगह है, जहां स्थानीय मछुआरे हर सीजन में, जो करीब चार महीने का होता है, वहां मछली पकड़ने जाते हैं। कुछ संरक्षणवादियों ने इन मछुआरों द्वारा इस आंशिक रूप से वनाच्छादित द्वीप के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दी, जिस पर सुनवाई करने के बाद अदालत ने यहां मछली मारने पर पाबंदी लगा दी। मछुआरों ने तर्क दिया कि इससे उनकी जीविका का साधन खत्म हो जाएगा। उन्होंने बताया कि कैसे वह मछली की आदर्श जगह है। उन्होंने एक ब्लू-प्रिंट देते हुए कहा कि उन्हें मछली मारने की इजाज़त दी जाए। इसमें उन्होंने कहा कि हर साल वन विभाग उन्हें वहां जाकर मछली मारने का सीज़नल पास देगा, वे वहां अस्थायी झोपड़ियां बनाएंगे और मछली पकड़ेंगे। उन्होंने यह भी बताया कि कैसे उनके काम से जंगल या द्वीप को कोई नुकसान नहीं होगा। लेकिन विडंबना देखिए कि वे तमाम संरक्षणवादी जो बाघ अभ्यारण्य वाहनों के लिए खोल देने का तर्क देते रहे वे मछुआरों पर पाबंदी लगाने के लिए अड़े रहे और पाबंदी जारी रही।
ये दोनों घटनाएँ यह कहने का पर्याप्त कारण उपलब्ध कराती हैं कि भारत में धनी और गरीब के लिए दोहरे मानदंड अपनाए जाते हैं। लेकिन ये दोनों घटनाएँ यह भी बताती हैं कि संरक्षण का काम हम लोग किस तरीके से करते हैं। हमें या तो इससे सबक लेना होगा या फिर संरक्षण का काम भारत में सफल नहीं होगा।
पहले यह समझने की कोशिश करें कि क्यों संरक्षणवादी यह तर्क देते हैं कि पर्यटन अच्छा है और आजीविका के लिए मछली मारना बुरा। आखिर क्यों वे यह मानेंगे कि टूरिस्ट ऑपरेटरों की आजीविका महत्वपूर्ण है और मछुआरों की नहीं? इसकी एक प्रतिक्रियावादी जवाब तो यह यह सकता है कि इन संरक्षण-वादियों का पर्यटन उद्योग के साथ हित जुड़ा होगा।
लेकिन मुझे लगता कि इसके अलावा भी कुछ कारण हैं। यह बहुत मजबूत धारणा है कि पर्यटन से अभ्यारण्य को फायदा होगा। इससे बाघों और दूसरे जंगली जानवरों की ओर लोगों का ध्यान जाएगा, उनकी सुरक्षा के लिए एक विचार विकसित होगा, इससे जागरुकता बढ़ेगी, लोगों को प्रकृति के साथ आनंद मनाने का मौका मिलेगा और इससे जंगल व बाघों के संरक्षण के लिए धन भी आएगा। इसके उलट जो लोग जंबूद्वीप दूसरे जंगली इलाकों का इस्तेमाल करते हैं उससे उस इलाके का पर्यावास (हैबिटाट) नष्ट हो जाएगा। हक़ीकत यह है कि दोनों जवाब सही भी हैं और गलत भी। पर्यटन अभ्यारण्य के लिए अच्छा हो सकता है लेकिन यह बर्बादी का कारण भी हो सकता है। मानवीय गतिविधियाँ टिकाऊ भी हो सकती हैं और विध्वंसकारी भी। सवाल है कि इसका प्रबंधन कैसे होगा? इसके लिए दो उदाहरण देखने की जरूरत है। रणथंभौर में पर्यटन प्रबंधन एक दुःस्वप्न की तरह है। यह पहला राष्ट्रीय उद्यान है, जिसे वन विभाग के हाथ से लेकर पर्यटन विभाग को सौंपा गया। इसका नतीजा बहुत बुरा हुआ। वन विभाग के हाथ में उद्यान में जाने के लिए जारी होने वाले पासों की संख्या नियंत्रित करने का अधिकार है, लेकिन वाहनों के आने-जाने वाले रास्तों पर पर्यटन विभाग का नियंत्रण है। इसके बाद यहां का सारा कारोबार भाई-भतीजावाद व भ्रष्टाचार का शिकार हो गया। जिन रास्तों पर सबसे ज्यादा बाघ दिखते हैं उनसे होकर जाने के लिए, ज्यादा से ज्यादा पास हासिल करने के लिए और अपने ग्राहकों को हर हाल में बाघ दिखाने के लिए ऑपरेटर हर संभव जुगत लगाने लगे। वन विभाग का मानना है कि उद्यान के कोर इलाके में इतनी मानवीय गतिविधियों के कारण हो सकता है कि बाघ उद्यान से दूर हो गए हैं।
उद्यान के आसपास जो होटल बने हैं उनमें से ज्यादातर विवादित जमीनों पर बने हैं और पर्यावरण लिहाज से संवेदनशील इलाकों के लिए बनाए गए क्षेत्रों का उल्लंघन करते हैं। उद्यान के आसपास किसी तरह निर्माण को रोकने की तमाम कोशिशें सफलतापूर्वक विफल कर दी गईं हैं। विडंबना यह है कि मछुआरों को आंशिक रूप से वनाच्छादित द्वीप पर अस्थायी आवास बनाने की इजाज़त नहीं दी गई, लेकिन रणथंभौर में उद्यान के बिल्कुल पास होटल बनाने की इजाज़त मिल गई।
पर्यटन को प्रोत्साहित करने का जो रणंथभौर का मॉडल है, वहां भी संरक्षण के लिए जरूरी वित्तीय लागत की दृष्टि से सफल नहीं है। अनुमान है कि यहां के बड़े होटलों का सालाना कारोबार 22 करोड़ रुपये का है। इसकी तुलना पिछले 30 साल में इस उद्यान पर सरकार द्वारा किए गए 30 करोड़ रुपये खर्च के साथ की जा सकती है। गेट पास के रूप में भी पार्क को बहुत मामूली आमदनी होती है। स्थानीय लोगों, जिन्हें बाघों के संरक्षण के नाम पर वनों से आजीविका के साधन जुटाने से मना कर दिया गया है, उनको इससे कुछ हासिल नहीं होता। उनका गुस्सा बढ़ा रहा है और बाघ ज्यादा असुरक्षित होते जा रहे हैं। पर्यटन संरक्षण के काम आ सकता है, लेकिन इसे बहुत सतर्कता के साथ प्रबंधित करना होगा और इसके लाभ स्थानीय समुदायों के साथ बांटने होंगे। रणथंभौर मॉडल से काम नहीं चलेगा। जबूंद्वीप में मछुआरों का मॉडल भी काम कर सकता है। वन विभाग द्वारा जारी पासों के जरिए इस इलाके में प्रवेश को नियंत्रित किया जा सकता है। धनी होटल वालों के मुकाबले मछुआरों से फ़ीस वसूली जा सकती है और उसका इस्तेमाल इलाके के विकास के लिए किया जा सकता है। इस्तेमाल के लिए इलाक़ा तय किया जा सकता है और इस्तेमाल का तरीका भी निर्धारित किया जा सकता है। सेटेलाइट इमेजरी के जरिए निगरानी हो सकती है। यह पर्यावरण और स्थानीय लोगों की आजीविका दोनों ही लिहाज से जीतने की स्थिति होगी।
हकीक़त यह भी है कि इस बात के कोई पुख्ता सबूत नहीं मिले हैं कि लंबे समय से जंबूद्वीप के इलाके में मानवीय गतिविधियों से वन या द्वीप को कोई नुकसान हुआ है। लेकिन यह बात के पक्के सबूत हैं कि पर्यटन ने रणथंभौर के स्थायित्व को नुकसान पहुंचाया है।
शिकारियों की बंदूकें और लकड़ी के तस्करों की लकड़ी चीरने वाली मशीन, दोनों नफरत करने की चीज हैं। लेकिन हकीकत यह है कि हम आधे-अधूरे विज्ञान और खराब राजनीति का सहारा लेते रहे हैं, यह तय करने के लिए किस चीज की इजाज़त होनी चाहे और किसकी नहीं। यह संरक्षण हमारी त्रासदी है।
अब एक दूसरी जगह की दूसरी घटना की ओर चलते हैं। वहां भी शुरूआत ऐसी हुई, लेकिन अंत अलग हुआ। पश्चिम बंगाल डेल्टा में जंबूद्वीप एक छोटी सी जगह है, जहां स्थानीय मछुआरे हर सीजन में, जो करीब चार महीने का होता है, वहां मछली पकड़ने जाते हैं। कुछ संरक्षणवादियों ने इन मछुआरों द्वारा इस आंशिक रूप से वनाच्छादित द्वीप के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दी, जिस पर सुनवाई करने के बाद अदालत ने यहां मछली मारने पर पाबंदी लगा दी। मछुआरों ने तर्क दिया कि इससे उनकी जीविका का साधन खत्म हो जाएगा। उन्होंने बताया कि कैसे वह मछली की आदर्श जगह है। उन्होंने एक ब्लू-प्रिंट देते हुए कहा कि उन्हें मछली मारने की इजाज़त दी जाए। इसमें उन्होंने कहा कि हर साल वन विभाग उन्हें वहां जाकर मछली मारने का सीज़नल पास देगा, वे वहां अस्थायी झोपड़ियां बनाएंगे और मछली पकड़ेंगे। उन्होंने यह भी बताया कि कैसे उनके काम से जंगल या द्वीप को कोई नुकसान नहीं होगा। लेकिन विडंबना देखिए कि वे तमाम संरक्षणवादी जो बाघ अभ्यारण्य वाहनों के लिए खोल देने का तर्क देते रहे वे मछुआरों पर पाबंदी लगाने के लिए अड़े रहे और पाबंदी जारी रही।
ये दोनों घटनाएँ यह कहने का पर्याप्त कारण उपलब्ध कराती हैं कि भारत में धनी और गरीब के लिए दोहरे मानदंड अपनाए जाते हैं। लेकिन ये दोनों घटनाएँ यह भी बताती हैं कि संरक्षण का काम हम लोग किस तरीके से करते हैं। हमें या तो इससे सबक लेना होगा या फिर संरक्षण का काम भारत में सफल नहीं होगा।
पहले यह समझने की कोशिश करें कि क्यों संरक्षणवादी यह तर्क देते हैं कि पर्यटन अच्छा है और आजीविका के लिए मछली मारना बुरा। आखिर क्यों वे यह मानेंगे कि टूरिस्ट ऑपरेटरों की आजीविका महत्वपूर्ण है और मछुआरों की नहीं? इसकी एक प्रतिक्रियावादी जवाब तो यह यह सकता है कि इन संरक्षण-वादियों का पर्यटन उद्योग के साथ हित जुड़ा होगा।
लेकिन मुझे लगता कि इसके अलावा भी कुछ कारण हैं। यह बहुत मजबूत धारणा है कि पर्यटन से अभ्यारण्य को फायदा होगा। इससे बाघों और दूसरे जंगली जानवरों की ओर लोगों का ध्यान जाएगा, उनकी सुरक्षा के लिए एक विचार विकसित होगा, इससे जागरुकता बढ़ेगी, लोगों को प्रकृति के साथ आनंद मनाने का मौका मिलेगा और इससे जंगल व बाघों के संरक्षण के लिए धन भी आएगा। इसके उलट जो लोग जंबूद्वीप दूसरे जंगली इलाकों का इस्तेमाल करते हैं उससे उस इलाके का पर्यावास (हैबिटाट) नष्ट हो जाएगा। हक़ीकत यह है कि दोनों जवाब सही भी हैं और गलत भी। पर्यटन अभ्यारण्य के लिए अच्छा हो सकता है लेकिन यह बर्बादी का कारण भी हो सकता है। मानवीय गतिविधियाँ टिकाऊ भी हो सकती हैं और विध्वंसकारी भी। सवाल है कि इसका प्रबंधन कैसे होगा? इसके लिए दो उदाहरण देखने की जरूरत है। रणथंभौर में पर्यटन प्रबंधन एक दुःस्वप्न की तरह है। यह पहला राष्ट्रीय उद्यान है, जिसे वन विभाग के हाथ से लेकर पर्यटन विभाग को सौंपा गया। इसका नतीजा बहुत बुरा हुआ। वन विभाग के हाथ में उद्यान में जाने के लिए जारी होने वाले पासों की संख्या नियंत्रित करने का अधिकार है, लेकिन वाहनों के आने-जाने वाले रास्तों पर पर्यटन विभाग का नियंत्रण है। इसके बाद यहां का सारा कारोबार भाई-भतीजावाद व भ्रष्टाचार का शिकार हो गया। जिन रास्तों पर सबसे ज्यादा बाघ दिखते हैं उनसे होकर जाने के लिए, ज्यादा से ज्यादा पास हासिल करने के लिए और अपने ग्राहकों को हर हाल में बाघ दिखाने के लिए ऑपरेटर हर संभव जुगत लगाने लगे। वन विभाग का मानना है कि उद्यान के कोर इलाके में इतनी मानवीय गतिविधियों के कारण हो सकता है कि बाघ उद्यान से दूर हो गए हैं।
उद्यान के आसपास जो होटल बने हैं उनमें से ज्यादातर विवादित जमीनों पर बने हैं और पर्यावरण लिहाज से संवेदनशील इलाकों के लिए बनाए गए क्षेत्रों का उल्लंघन करते हैं। उद्यान के आसपास किसी तरह निर्माण को रोकने की तमाम कोशिशें सफलतापूर्वक विफल कर दी गईं हैं। विडंबना यह है कि मछुआरों को आंशिक रूप से वनाच्छादित द्वीप पर अस्थायी आवास बनाने की इजाज़त नहीं दी गई, लेकिन रणथंभौर में उद्यान के बिल्कुल पास होटल बनाने की इजाज़त मिल गई।
पर्यटन को प्रोत्साहित करने का जो रणंथभौर का मॉडल है, वहां भी संरक्षण के लिए जरूरी वित्तीय लागत की दृष्टि से सफल नहीं है। अनुमान है कि यहां के बड़े होटलों का सालाना कारोबार 22 करोड़ रुपये का है। इसकी तुलना पिछले 30 साल में इस उद्यान पर सरकार द्वारा किए गए 30 करोड़ रुपये खर्च के साथ की जा सकती है। गेट पास के रूप में भी पार्क को बहुत मामूली आमदनी होती है। स्थानीय लोगों, जिन्हें बाघों के संरक्षण के नाम पर वनों से आजीविका के साधन जुटाने से मना कर दिया गया है, उनको इससे कुछ हासिल नहीं होता। उनका गुस्सा बढ़ा रहा है और बाघ ज्यादा असुरक्षित होते जा रहे हैं। पर्यटन संरक्षण के काम आ सकता है, लेकिन इसे बहुत सतर्कता के साथ प्रबंधित करना होगा और इसके लाभ स्थानीय समुदायों के साथ बांटने होंगे। रणथंभौर मॉडल से काम नहीं चलेगा। जबूंद्वीप में मछुआरों का मॉडल भी काम कर सकता है। वन विभाग द्वारा जारी पासों के जरिए इस इलाके में प्रवेश को नियंत्रित किया जा सकता है। धनी होटल वालों के मुकाबले मछुआरों से फ़ीस वसूली जा सकती है और उसका इस्तेमाल इलाके के विकास के लिए किया जा सकता है। इस्तेमाल के लिए इलाक़ा तय किया जा सकता है और इस्तेमाल का तरीका भी निर्धारित किया जा सकता है। सेटेलाइट इमेजरी के जरिए निगरानी हो सकती है। यह पर्यावरण और स्थानीय लोगों की आजीविका दोनों ही लिहाज से जीतने की स्थिति होगी।
हकीक़त यह भी है कि इस बात के कोई पुख्ता सबूत नहीं मिले हैं कि लंबे समय से जंबूद्वीप के इलाके में मानवीय गतिविधियों से वन या द्वीप को कोई नुकसान हुआ है। लेकिन यह बात के पक्के सबूत हैं कि पर्यटन ने रणथंभौर के स्थायित्व को नुकसान पहुंचाया है।
शिकारियों की बंदूकें और लकड़ी के तस्करों की लकड़ी चीरने वाली मशीन, दोनों नफरत करने की चीज हैं। लेकिन हकीकत यह है कि हम आधे-अधूरे विज्ञान और खराब राजनीति का सहारा लेते रहे हैं, यह तय करने के लिए किस चीज की इजाज़त होनी चाहे और किसकी नहीं। यह संरक्षण हमारी त्रासदी है।
Path Alias
/articles/vana-va-vanaya-paraanaiyaon-kae-sanrakasana-kai-vaidanbanaa
Post By: Hindi