वन-संसाधन के अतिदोहन के दूरगामी परिणाम

आज जनसंख्या वृद्धि के साथ वन का विनाश भी बढ़ने लगा है। लोगों को यह नहीं मालूम की वृक्ष हमारे जीवन-रक्षक हैं। वृक्षों से ही हमें प्राणप्रद वायु (ऑक्सीजन) की प्राप्ति होती है। वृक्ष एवं जंगलों से हमें हमारी बहुत-सी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, साथ ही वन ही वर्षा कराते हैं। विस्फोटक जनसंख्या तथा मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वनों की अंधाधुंध कटाई कर रहे हैं। इसी कारण आज वनों का अस्तित्व खतरे में है। वन के साथ-साथ मानव जीवन भी खतरे में है। इस विषम परिस्थिति में वन की रक्षा करना हमारा कर्तव्य ही नहीं, धर्म भी है। इस पृथ्वी पर विद्यमान सभी जीवधारियों का जीवन मिट्टी की एक पतली परत पर निर्भर करता है। वैसे यह कहना अधिक उचित होगा कि जीवधारियों के जीवन-चक्र को चलाने के लिए हवा, पानी और विविध पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है और मिट्टी इन सबको पैदा करने वाला स्रोत है।

यह मिट्टी वनस्पति जगत को पोषण प्रदान करती है, जो समस्त जंतु जगत को प्राण वायु, जल और ऊर्जा देती है। वनस्पति का महत्व मात्र इसलिए ही नहीं है कि उससे प्राण वायु, जल, पोषक तत्व, प्राणदायिनी औषधियां मिलती हैं, बल्कि इसलिए भी है कि वह जीवनाधार मिट्टी बनाती है और उसकी सतत् रक्षा भी करती है। इसलिए वनों को मिट्टी बनाने वाले कारखाने भी कहा जा सकता है।

वन का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। अनेक आर्थिक समस्याओं का समाधान इन्हीं से होता है। ईंधन, कोयला, औषधियुक्त तेल व जड़ी-बूटी, लाख, गोंद, रबड़, चंदन, इमारती सामान और अनेक लाभदायक पशु-पक्षी और कीट आदि वनों से ही प्राप्त होते हैं।

भारत में लगभग 150 लाख हेक्टेयर भूमि पर वन हैं। हमारे देश में संपूर्ण भौगोलिक क्षेत्रफल में 22.8 प्रतिशत भाग में वन फैले हुए हैं। विभिन्न राज्यों में वनों का क्षेत्रफल भिन्न-भिन्न है। उदाहरण के लिए- उत्तर प्रदेश में 11.9 प्रतिशत, पंजाब में 2.6 प्रतिशत, बिहार में 22.5 प्रतिशत, आंध्र प्रदेश में 20.5 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 3.5 प्रतिशत, उड़ीसा में 22.5 प्रतिशत, तमिलनाडु में 13.9 प्रतिशत, राजस्थान में 4.1 प्रतिशत तथा पश्चिम बंगाल में 8.8 प्रतिशत है। दुनिया के अन्य देशों की तुलना में हमारे देश में वनों का क्षेत्र बहुत कम है। भारत की जनसंख्या के बढ़ते हुए भार तथा ईंधन की मांग के कारण नदी तटों तथा अन्य अनुपजाऊ प्रदेशों में भी वन क्षेत्रों का होना अति आवश्यक माना गया है।

वनों के प्रमुख उपयोग एवं वन-विनाश के कारण व समस्याएं


वनों के कुछ प्रमुख उपयोग एवं वन-विनाश के कारण व समस्याएं निम्न हैं-

1. घरेलू एवं व्यापारिक उद्देश्यों की पूर्ति तथा उत्पन्न समस्याएं- लकड़ी की प्राप्ति के लिए पेड़ों की कटाई वनों के विनाश का वास्तविक कारण है। तेजी से बढ़ती जनसंख्या, औद्योगिक एवं नगरीकरण में तीव्र वृद्धि के कारण लकड़ी की मांग मे दिनों-दिन वृद्धि हो रही है। परिणामस्वरूप वृक्षों की कटाई में भी निरंतर वृद्धि हो रही है। भूमध्यरेखीय सदाबहार वनों का प्रतिवर्ष 20 मिलियन हेक्टेयर की दर से सफाया हो रहा है। इस शताब्दी के आरंभ से ही वनों की कटाई इतनी तेज गति से हुई है कि अनेक पर्यावरणीय समस्याएं पैदा हो गई हैं। आर्थिक लाभ के नशे में धुत्त लोभी भौतिकतावादी आर्थिक मानव यह भी भूल गया कि वनों के व्यापक विनाश से उसका ही अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। विकासशील एवं अविकसित देशों में ग्रामीण जनता द्वारा नष्टप्रायः अवक्रमित वनों से पशुओं के लिए चारा एवं जलाने की लकड़ी का अधिक-से-अधिक संग्रह करने से बचा-खुचा वन भी नष्ट होता जा रहा है।

2. कृषि भूमि तैयार करना-
क. मुख्य रूप से विकासशील देशों में मानव-जनसंख्या मे तेजी से हो रही वृद्धि के कारण यह आवश्यक हो गया है कि वनों के विस्तृत क्षेत्रों को साफ करके उस पर कृषि की जाए, ताकि बढ़ती जनसंख्या का पेट भर सके। इस प्रवृत्ति के कारण सवाना घास प्रदेश का व्यापक स्तर पर विनाश हुआ है, क्योंकि सवाना वनस्पतियों को साफ करके विस्तृत क्षेत्र को कृषि क्षेत्र में बदला गया है।

ख. शीतोष्ण कटिबंधीय घास के क्षेत्रों (यथा- सोवियत रूस के स्टेपी, उत्तरी अमेरिका के प्रेयरी, दक्षिणी अमेरिका के पंवाज, दक्षिणी अफ्रीका के वेल्ड तथा न्यूजीलैंड के डाउंस) की घासों एवं वृक्षों को साफ करके उन्हें वृहद् कृषि प्रदेशों में बदलने का कार्य बहुत पहले ही पूर्ण हो चुका है।

ग. रूमसागरीय जलवायु वाले क्षेत्रों के वनों को बड़े पैमाने पर साफ करके उन्हें उद्यान, कृषि भूमि में बदला गया है। इसी तरह दक्षिणी एवं दक्षिणी-पूर्वी एशिया के मानसूनी क्षेत्रों में तेजी से बढ़ती जनसंख्या की भूख मिटाने के लिए कृषि-भूमि का विस्तार करने के लिए वन क्षेत्रों का बड़े पैमाने पर विनाश किया गया है।

3. अतिचारण- उष्ण तथा उपोष्ण कटिबंधीय एवं शुष्क तथा अर्द्ध-शुष्क प्रदेशों के सामान्य घनत्व वाले वनों में पशुओं को चराने से वनों का क्षय हुआ है तथा हो रहा है। ज्ञातव्य है कि इन क्षेत्रों के विकासशील एवं अविकसित देशों में दुधारू पशु विरल तथा खुले वनों में भूमि पर उगने वाली झाड़ियों, घासों तथा शाकीय पौधों को चटकर जाते हैं, साथ-ही-साथ ये अपने खुरों से भूमि को इतना रौंद देते हैं कि उगते पौधों का प्रस्फुटन नहीं हो पाता। अधिकांश देशों में भेड़ों के बड़े-बड़े झुंडों ने तो घासों का पूर्णतया सफाया ही कर दिया है।

4. वनाग्नि-
क. प्राकृतिक कारणों से या मानव-जनित कारणों से वनों में आग लगने से वनों का तीव्र गति से तथा अल्प समय में विनाश होता है। वनाग्नि के प्राकृतिक स्रोतों में वायुमंडलीय बिजली सर्वाधिक प्रमुख है। मनुष्य भी जाने एवं अनजाने रूप में वनों में आग लगा देता है।

ख. मनुष्य कई उद्देश्यों से वनों को जलाता है- कृषि भूमि में विस्तार के लिए, झूमिंग कृषि के तहत कृषि कार्य के लिए घास की अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए आदि। वनों में आग लगने का कारण वनस्पतियों के विनाश के अलावा भूमि कड़ी हो जाती है, परिणामस्वरूप वर्षा के जल जमीन में अंतः संचरण (Infiltration) बहुत कम होता है तथा धरातलीय वाही जल में अधिक वृद्धि हो जाती है, जिसके कारण मृदा-अपरदन में तेजी आ जाती है। वनों में आए दिन आग लगने से जमीन पर पत्तियों के ढेर नष्ट हो जाते हैं, जिसके कारण ह्यूमस तथा पोषक तत्वों की भारी कमी हो जाती है। कभी-कभी तो ये पूर्णतया नष्ट हो जाते हैं।

ग. वनों में आग के कारण मिट्टी, पौधों की जड़ों तथा पत्तियों के ढेरों में रहने वाले सूक्ष्म जीव मर जाते हैं। स्पष्ट है कि वनों में आग लगने या लगाने से न केवल प्राकृतिक वनस्पतियों का विनाश होता है तथा पौधों का पुनर्जनन अवरुद्ध हो जाता है, वरन् जीवीय समुदाय की भी भारी क्षति होती है, जिसके कारण पारिस्थितिकीय असंतुलन उत्पन्न हो जाता है।

5. वनों का चारागाहों में परिवर्तन- विश्व के रूमसागरीय जलवायु वाले क्षेत्रों एवं शीतोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों, खासकर उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका तथा अफ्रीका में डेयरी फार्मिंग के विस्तार एवं विकास के लिए वनों को व्यापक स्तर पर पशुओं के लिए चारागाहों में बदला गया है।

6. बहुउद्देशीय नदी-घाटी परियोनजाओं के कार्यान्वयन के समय विस्तृत वन-विनाश- बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाओं के कार्यान्वयन के समय विस्तृत वन क्षेत्र का क्षय होता है, क्योंकि बांधों के पीछे निर्मित वृहत् जल-भंडारों में जल का संग्रह होने पर वनों से आच्छादित विस्तृत भू-भाग जलमग्न हो जाता है, जिस कारण न केवल प्राकृतिक वन संपदा समूल नष्ट हो जाती है, वरन् उस क्षेत्र का पारिस्थितिकी संतुलन ही बिगड़ जाता है।

7. स्थानांतरीय या झूमिंग कृषि (Shifting of Jhuming Cultivation)- झूमिंग कृषि दक्षिणी एवं दक्षिणी-पूर्वी एशिया के पहाड़ी क्षेत्रों में वनों के क्षय एवं विनाश का एक प्रमुख कारण कृषि की इस प्रथा के अंतर्गत पहाड़ी ढालों पर वनों को जलाकर भूमि को साफ किया जाता है। जब उस कृषि की उत्पादकता घट जाती है तो उसे छोड़ दिया जाता है।

वन संसाधन का संरक्षण (Conservation of Forest Resources)


मनुष्य इस पृथ्वी का सबसे सफल जीव है और जब से इसकी उत्पत्ति हुई है, तभी से यह अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए प्रयासरत् है। इस प्रयास में इसने सबसे अधिक नुकसान वन एवं वन संपदा को पहुंचाया है। इसने अपने लिए भोजन जुटाने, रहने के लिए मकान के निर्माण, दवा निर्माण के लिए कारखाने खोलने, श्रृंगार तथा विलासिता के साधन जुटाने, वस्त्र निर्माण, आवागमन हेतु मार्ग बनाने, खेती के लिए जमीन जुटाने, सिंचाई के लिए नहर बनाने, विद्युत तथा आवागमन जैसे दूसरे कई महत्वपूर्ण कार्यों को पूरा करने अधिक-से-अधिक वनों की कटाई करके इनको नष्ट किया है।

वनों की उपयोगिता को देखते हुए हमें इसके संरक्षण हेतु निम्न उपाय अपनाने चाहिए-

1. वनों के पुराने एवं क्षतिग्रस्त पौधों को काटकर नए पौधों या वृक्षों को लगाना।
2. नए वनों को लगाना या वनारोपण अथवा वृक्षारोपण।
3. आनुवंशिकी के आधार पर ऐसे वृक्षों को तैयार करना, जिससे वन संपदा का उत्पादन बढ़े।
4. पहाड़ एवं परती जमीन पर वनों को लगाना।
5. सुरक्षित वनों में पालतू जानवरों के प्रवेश पर रोक लगाना।
6. वनों को आग से बचाना।
7. जले वनों की खाली परती भूमि पर नए वन लगाना।
8. रोग-प्रतिरोधी तथा कीट-प्रतिरोधी वन वृक्षों को तैयार करना।
9. वनों में कवकनाशकों तथा कीटनाशकों का प्रयोग करना।
10. वन-कटाई पर प्रतिबंध लगाना।
11. आम जनता में जागरूकता पैदा करना, जिससे वह वनों के संरक्षण पर स्वरफूर्त ध्यान दें।
12. वन तथा वन्यजीवों के संरक्षण के कार्य को जन-आंदोलन का रूप देना।
13. सामाजिक वानिकी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
14. शहरी क्षेत्रों में सड़कों के किनारे, चौराहों तथा व्यक्तिगत भूमि पर पादप रोपण को प्रोत्साहित करना।

वन संरक्षण संबंधी अधिनियम (Acts Related with Forest Conservation)


भारत सरकार ने वन-संरक्षण के लिए निम्न अधिनियम पारित किए हैं-

1. वन अधिनियम, 1927- यह अधिनियम वनों, वन उपज के अभिवहन और इमारती लकड़ी और अन्य वनोपज पर उदग्रहणीय शुल्क से संबद्ध विधि के लिए पारित किया गया है। यह अधिनियम 1 नवंबर, 1956 से पूर्व बिहार, मुंबई, दिल्ली, मध्य प्रदेश, ओडिशा, पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा पश्चिमी बंगाल में लागू था।

2. वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980- यह अधिनियम वनों के संरक्षण, उनसे जुड़े हुए मामलों, उसके सहायक या आनुषंगिक विषयों के लिए उपबंध करने हेतु पारित किया गया।

यह अधिनियम जम्मू-कश्मीर राज्य को छोड़कर संपूर्ण भारत में लागू है। इसे 25 अक्टूबर, 1980 से लागू किया गया। यह अधिनियम अविवेकी अरक्षण और वन भूमि के कार्यों के दिक्परिवर्तनों को नियंत्रित करने के लिए बनाया गया था। इस अधिनियम के अंतर्गत किसी भी रक्षित वन को आरक्षित घोषित करने के लिए या वनभूमि को वन के अतिरिक्त अन्य कार्यों के लिए परिवर्तित करने के लिए केंद्रीय सरकार की पहले से (Prior) मंजूरी की आवश्यकता होती है। यदि दिक्परिवर्तन की आज्ञा मिल जाए, तो क्षतिपूरक वनरोपण पर जोर दिया जाता है और अन्य योग्य स्थितियां थोपी जाती हैं। जहां बिना जंगल (Non-Forest) के भूमि प्राप्त है वहां बिना जंगल भूमि के तुल्यांक क्षेत्र पर क्षतिपूरक वन रोपण होता है। जहां बिना जंगल (Non-Forest) भूमि नहीं होती क्षतिपूरक रोपण निम्न कोटिकृत वनों में उस दिक्परिवर्तन क्षेत्र के दोगुना क्षेत्र में किया जाता है।

वन (संरक्षण) एक्ट 1980 को कानून तोड़ने वालों के विरुद्ध संयुक्त अलंघनीय पैनल विधानों (Coroporation Strieter Panf Provision) के लिए 1988 में संशोधित किया गया। महत्वपूर्ण संशोधन निम्न प्रकार हैं-

(i) राज्य सरकार या अन्य प्राधिकारी किसी को आदेश नहीं दे सकता कि कोई भी वनभूमि चाहे पट्टे द्वारा या किसी अन्य तरीके से, व्यक्ति, महानगरपालिका या एजेंसी संगठन (सरकार द्वारा न अपनाई गई हो) के बिना केंद्रीय सरकार के पहले मंजूरी दे सकता।

(ii) वन भूमि या कोई हिस्सा जो पेड़ों से साफ हो, जो कुदरती ढंग से उगे थे, उस भूमि या हिस्से पर, उस भूमि का उफयोग पुनः वन-रोपण के लिए केंद्रीय सरकार की पहले मंजूरी के बिना नहीं हो सकता।

(iii) वर्तमान में बिना जंगल के जमीन का अभिप्राय उसके कार्यों (Non-forest Purpose) का क्षेत्र अन्य भागों तक विस्तृत किया गया है, जैसे- चाय, कॉफी, रबड़, ताड़, औषधीय पौधे इत्यादि।

3. वन (संरक्षण), अधिकार नियम, 1981- यह नियम वनों के संरक्षण के संबंध में बनाया गया है। इसका विस्तार जम्मू-कश्मीर राज्य को छोड़कर संपूर्ण भारत में है। इस नियम के अंतर्गत वनों की सुरक्षा के लिए एक समिति के गठन तथा समिति के संचालन संबंधी नियमों के परिप्रेक्ष्य में किया गया है। इसके अनुसार एक समिति में निम्न सदस्य होंगे-

1. महानिरीक्षक (वन) अध्यक्ष
2. अतिरिक्त महानिरीक्षक वन सदस्य
3. संयुक्त आयुक्त, भूसंरक्षण वन सदस्य
4. तीन पर्यावरणविद् (अशासकीय) सदस्य
5. डिप्टी कमिश्नरी जनरल, वन सदस्य (सचिव)

4. पशु अतिचार अधिनियम, 1871- (Cattle Trsopass Act, 1871) – यह अधिनियम पशुओं द्वारा अतिचार से संबंधित विधि को समेकित और संशोधित करने के लिए पारित किया गया है।

वनोन्मूलन एवं उसके प्रभाव- (Deforestation and their Effects)


भारत में वनोन्मूलन के मृदा, जल और वायु अपरदन विनाशकारी प्रभावों के अंतर्गत आते हैं, जो प्रत्येक वर्ष 16,400 करोड़ से ज्यादा मूल्य की अनुमानित राशि को हानि पहुंचाते हैं। वनोन्मूलन का हमारी शस्य भूमि की उत्पादकता पर बड़ा समाघात होता है। यह दो प्रकार से होता है-

1. मृदा अपरदन बहुमुख वृद्धित होता है और मृदा बह जाती है, जिससे बाढ़ और सूखे का विशिष्ट चक्र प्रारंभ हो जाता है।

2. जब ईंधन अपर्याप्त हो जाता है, मनुष्य गोशमल (Cow Dung) और शस्य अवशेष को ईंधन की तरह मुख्यतः भोजन बनाने के लिए उपयोग करने लगता है। इस कारण पादप का प्रत्येक भाग धीरे-धीरे प्रयोग में ले लिया जाता है और मृदा में कुछ भी वापस नहीं जाता। कुछ समय पश्चात इस पोषण का बहना शस्योत्पादकता को प्रभावित करता है, यह मृदा-उर्वरता के ह्रास का कारण बनता है।

वनोन्मूलन के प्रभाव


वनोन्मूलन और अतिचारण भयानक मृदा अपरदन और भूस्खलन करते हैं। भारत में औसतन 60,000 लाख टन ऊपरी मृदा का वार्षिक हनन पेड़ों की अनुपस्थिति में जल अपरदन से होता है। सन् 1973 में 700 करोड़ रुपए , 1976, 1977 और 1978 में यह 889 करोड़ रुपए, 1200 करोड़ रुपए और 1091 करोड़ रुपए क्रमशः ऊपरी मृदा अपरदन के हनन से क्षय हुआ।

भारत आज विश्व में कैपिटा भूमि (Capita Land) के अनुसार सबसे ऊपर है। भारत में प्रति कैपिटा भूमि (Per Capita Land) 0.10 हेक्टेयर है। विश्व की औसत 1 हेक्टेयर की तुलना में कनाडा में 14.2 हेक्टेयर, ऑस्ट्रेलिया में 7.6 हेक्टेयर और संयुक्त राज्य अमेरिका में 7.30 हेक्टेयर है। भारतीय वन क्षेत्र विश्व वन्य क्षेत्र का सिर्फ 0.50 प्रतिशत है। भारत में प्रतिवर्ष लगभग 10.5 लाख हेक्टेयर वन का हनन हो रहा है। यदि यह क्रम इसी प्रकार चलता रहा तो देश में हम अगले 20 वर्षों या अधिक में शून्य वन (Zero Forest) मान तक पहुंच जाएंगे। 25 वर्षों के समय के दौरान (1951-76) भारत में वन्य क्षेत्र का 40.1 लाख हेक्टेयर हनन हुआ है। बड़े पैमाने पर वनोन्मूलन ईंधन, चारा (Fodder), घाटी परियोजनाओं (Valley Projects), औद्योगिक उपयोगों (Industrialisation), सड़क निर्माण इत्यादि के लिए होता है। भारत में ईंधन का लगभग 1700 लाख टन वार्षिक उपयोग होता है और वन आवरण का 100-50 लाख हेक्टेयर ईंंधन की मांग के लिए प्रत्येक वर्ष साफ कर दिया जाता है। यह ईंधन उपयोग सन् 1953 में 860.3 लाख टन से सन् 1980 में लगभग 1350 लाख टन तक पहुंच गया, जो वनों पर दाब को दर्शाता है। 20 वर्षों के दौरान (1951 से 1971) वन कृषि (24.32 लाख हेक्टेयर), नदी घाटी परियोजना (4.01 लाख हेक्टेयर) औद्योगिक उपयोगों (1.2 लाख हेक्टेयर), सड़क निर्माण (0.55 लाख हेक्टेयर) और विविध उपयोगों (3.88 लाख हेक्टेयर के लिए काटे गए। इस प्रकार वनों का कुल 30.4 लाख हेक्टेयर का इस काल के दौरान हनन हुआ भारत की भूमि सतह का लगभग एक प्रतिशत प्रत्येक वर्ष वनोन्मूलन के कारण बंजर (Barren) हो रहा है। हिमालय श्रेणी में, वनोन्मूलन के कारण वृष्टि 3 से 4 प्रतिशत कम हो गई है।

आज जनसंख्या वृद्धि के साथ वन का विनाश भी बढ़ने लगा है। लोगों को यह नहीं मालूम की वृक्ष हमारे जीवन-रक्षक हैं। वृक्षों से ही हमें प्राणप्रद वायु (ऑक्सीजन) की प्राप्ति होती है। वृक्ष एवं जंगलों से हमें हमारी बहुत-सी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, साथ ही वन ही वर्षा कराते हैं। विस्फोटक जनसंख्या तथा मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वनों की अंधाधुंध कटाई कर रहे हैं। इसी कारण आज वनों का अस्तित्व खतरे में है। वन के साथ-साथ मानव जीवन भी खतरे में है। इस विषम परिस्थिति में वन की रक्षा करना हमारा कर्तव्य ही नहीं, धर्म भी है। इसके लिए सरकार द्वारा बनाए गए अधिनियमों का पालन करना एवं कराना हम सबकी जिम्मेदारी है। आओ हम सब मिलकर संकल्प लें कि वृक्षों की अंधाधुंध कटाई बंद करें तथा वन को बचाने में अपना अमूल्य योगदान करें।

वन है तो जीवन है, वन नहीं तो जीवन नहीं,
वन हमारे जीवन-रक्षक हैं, आओ हम उनकी रक्षा करें।


डॉ. सी.वी. रमन विश्वविद्यालय कोटा, जि. बिलासपुर (छ.ग.)

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