वन-महोत्सव

बहुउपयोगी कार्यक्रम ‘पंचज’ से तात्पर्य है कि-

ज = जल (पानी)
ज = जंगल (वन)
ज = जर (जायदाद)
ज = जमीन (भूमि)
ज = जन (जनता)

जंगल हमारे जीवन में कितनी अहम भूमिका निभाते हैं? इससे हमें भलीभांति परिचित होना ही होगा, अन्यथा बहुत देर हो जाएगी। कल्पना करें कि यदि यह वृक्ष आपस में बातें कर अपनी व्यथा/कहानी सुनाते तो वे क्या कहते। सुनो-

जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख का साथी हूं, हूं मैं मानव तेरा।
फिर भी तू उपकार चुकाता, काट-काट तन मेरा।।

हल, बक्खर, जुआ, बाड़ी बोल कहां से लेता?
छप्पर, घास, बांस, बल्ली मैं ही तुझको देता।

कत्था, महुआ, ताड़ी तू बोल कहां से लेता?
लीसा, गोंद, पेंट, बारनिश मुझसे ही तू लेता।।

प्लाई बोर्ड, पेटी, संदूक, मैं किस काम न आता?
ट्रक, बस बॉडी, रेल के डिब्बे, नाव, जहाज बनाता।।

खेल-खिलौने, कुर्सी-टेबल, खटिया-पलंग सजाए।
औषधि, चारा, तेल, मसाले, फल-फूल मुझसे पाए।

आंधी, तूफां, वायु प्रदूषण, सब पर रोक लगाता।
कृषि उर्वरा शक्ति बढ़ाकर, मौसम मस्त बनाता।।

सर्दी-गर्मी-वर्षा भारी हो, मैं तेरी रक्षा करता।
तन पर अपने धूप ताप सह, छाया तुझको देता।।

आत्मज्ञान सुख-शांति पाने, जब तू वन में आता।
मोह-माया का बोध छुड़ाकर, तुझको सत्य दिखाता।।

जन्म से लेकर अंत समय तक, तेरा साथ निभाता।
वृद्ध सहारा बनकर लाठी, मृत्यु चिता तक जाता।।

हे! मानव एक निवेदन तुझसे, जो तू मुझको काटे।
हां! पहले तू दस वृक्ष लगा दे, उनको स्वस्थ बना दे।।


हम सभी ये जानते हैं कि हमारे द्वारा काटे गए वृक्षों पर नाना प्रकार के पक्षियों का बसेरा होता था। शाखाओं, पत्तों, जड़ों एवं तनों पर अनेक कीट-पतंगों, परजीवी अपना जीवन जीते थे एवं बेतहाशा वनों की कटाई से नष्ट हुए प्राकृतावास के कारण कई वन्य प्राणी लुप्त हो गए एवं अनेक विलोपन के कगार पर हैं। भूमि के कटाव को रोकने में वृक्ष-जड़ें ही हमारी मदद करती हैं। वर्षा की तेज बूंदों के सीधे जमीनी टकराव को पेड़ों के पत्ते स्वयं पर झेलकर बूंदों की मारक क्षमता को लगभग शून्य कर देते हैं। जंगल से प्राप्त लकड़ी हमारे शैशव के पालने (झूले) से लेकर महाप्रयाग की यात्रा की साथी है। अन्य वनोपज भी हमारे दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हम स्वयं को वनों से अलग नहीं कर सकते। मानव सभ्यता का प्रारंभ जंगलों, कंदराओं, गुफाओं, पहाड़ियों, झरनों से ही हुआ है। विकास की इस दौड़ में हम आज कंक्रीट के जंगल तक आ पहुंचे हैं।

वर्तमान स्थिति यहां तक आ पहुंची है कि हमने अपने विकास और स्वार्थ के लिए वनों को काट-काटकर स्वयं अपने लिए ही विषम स्थिति पैदा कर ली है। अंधाधुंध होने वाली कटाई से जो दुष्परिणाम हमारे सामने आ रहे हैं, वे भी कम चौंकाने वाले नहीं हैं। इसकी कल्पनामात्र से ही सिहरन हो उठती है। घटता-बढ़ता तापमान, आंधी, तूफान, बाढ़, सूखा, भूमिक्षरण, जैसी विभिषिकाओं से जूझता मानव कदाचित अब वनों के महत्व को समझने लगा है। तभी वनों के संरक्षण की दिशा में सोच बढ़ा है। व्यावहारिक रूप से यह उचित भी है और समय की मांग भी यही है।

वनों को विनाश से बचाने एवं वृक्षारोपण योजना को वन-महोत्सव का नाम देकर अधिक-से-अधिक लोगों को इससे जोड़कर भू-आवरण को वनों से आच्छादित करना एक अच्छा नया प्रयास है। यद्यपि यह कार्य एवं नाम दोनों ही नए नहीं है। हमारे पवित्र वेदों में भी इसका उल्लेख है। गुप्तवंश, मौर्यवंश, मुगलवंश में भी इस दिशा में सार्थक प्रयास किए गए थे। इसका वर्णन इतिहास में उल्लिखित है।

सन् 1947 में स्व. जवाहरलाल नेहरू, स्व. डॉ. राजेंद्र प्रसाद एवं मौलाना अब्दुल कलाम आजाद के संयुक्त प्रयासों से देश की राजधानी दिल्ली में जुलाई के प्रथम सप्ताह को वन-महोत्सव के रूप में मनाया गया, किंतु यह कार्य में विधिवत्ता नहीं रख सके। यह पुनीत कार्य सन् 1950 में श्री के.एम. मुंशी द्वारा संपन्न हुआ, जो आज भी प्रतिवर्ष हम वन-महोत्सव के रूप में मनाते आ रहे हैं। वन-महोत्सव सामान्यतः जुलाई-अगस्त माह में मनाकर अधिक-से-अधिक वृक्षारोपण किया जाता है। वर्षाकाल में ये चार माह के पौधे थोड़े से प्रयास से अपनी जड़ें जमा लेते हैं।

यह विचार भी मन में आता है कि वन-महोत्सव मनाने की आवश्यकता ही क्यों हुई? वे क्या परिस्थितियां थीं कि साधारण से वृक्षारोपण को महोत्सव का रूप देना पड़ा? संभवतः बढ़ती आबादी की आवश्यकता पूर्ति के लिए कटते जंगल, प्रकृति के प्रति उदासीनता ने ही प्राकृतिक संतुलन बिगाड़ दिया। अनजाने में हुई भूल या लापरवाही के दुष्परिणाम सामने आते ही मानव-मन में चेतना का संचार हुआ और मानव क्रियाशील हो उठा।

हम सभी ये जानते हैं कि हमारे द्वारा काटे गए वृक्षों पर नाना प्रकार के पक्षियों का बसेरा होता था। शाखाओं, पत्तों, जड़ों एवं तनों पर अनेक कीट-पतंगों, परजीवी अपना जीवन जीते थे एवं बेतहाशा वनों की कटाई से नष्ट हुए प्राकृतावास के कारण कई वन्य प्राणी लुप्त हो गए एवं अनेक विलोपन के कगार पर हैं। भूमि के कटाव को रोकने में वृक्ष-जड़ें ही हमारी मदद करती हैं। वर्षा की तेज बूंदों के सीधे जमीनी टकराव को पेड़ों के पत्ते स्वयं पर झेलकर बूंदों की मारक क्षमता को लगभग शून्य कर देते हैं।

वन-महोत्सव मनाने की आवश्यकता हमें क्यों पड़ रही है? इस प्रश्न के मूल में डी-फारेस्टेशन (गैरवनीकरण) मुख्य कारण है- गैर वनीकरण मानवीय हो या प्राकृतिक। यूं तो प्रकृति स्वयं को सदा से ही सहेजती आई है। इस धरा पर वनों का आवरण कितना बढ़ा या घटा है। इस क्षरण में भूमि, कीट, पतंगे, वृक्ष पशु-पक्षी सभी आ जाते हैं। भारतीय वन सर्वेक्षण संस्थान, देहरादून की भूमिका महत्वपूर्ण है कि वह अपने सर्वेक्षण से वनों की वस्तुस्थिति हमारे सामने लाता है, तभी हमें पता चलता है कि पूर्व में वनों की स्थिति क्या थी और आज क्या है?

वन नीति 1988 के अनुसार भूमि के कुल क्षेत्रफल का 33 प्रतिशत भाग वन- आच्छादित होना चाहिए। तभी प्राकृतिक संतुलन रह सकेगा, किंतु सन् 2001 के रिमोट सेंसिंग द्वारा एकत्रित किए गए आकड़ों के अनुसार हमारे देश का कुल क्षेत्रफल 32,87,263 वर्ग किमी. है। इनमें वन भाग 6,75,538 वर्ग कि.मी. है, जिससे वन आवरण मात्र 20 प्रतिशत ही होता है और ये आंकड़े भी पुराने हैं। यदि मध्य प्रदेश की चर्चा करें तो मध्य प्रदेश का कुल क्षेत्रफल 308445 वर्ग कि.मी है एवं वन भूमि 76265 वर्ग कि.मी. है यानी 24 प्रतिशत वन प्रदेश भूमि पर है, जबकि वास्तविकता यह कि प्रदेश का वन-आवरण अब लगभग 19 प्रतिशत ही शेष बचा है।

वनों का क्षरण अनेक प्रकार से होता है। इनमें वृक्षों को काटना, सुखाना, जलाना, अवैध उत्खनन प्रमुख हैं। द्रोपदी के चीर-हरण के समान हर एक लालची इस धरा के वृक्ष रूपी वस्त्रों का हरण करने में लगा है।

गांवों, नगरों, महानगरों का क्षेत्रफल बढ़ रहा है और जंगल संकुचित हो रहे हैं। दैनिक आवश्यकताओं के लिए लकड़ी के प्रयोग की मांग बढ़ी है। बड़े-बड़े बांधों का निर्माण होने से आस-पास के बहुत बड़े वन क्षेत्र जलमगन होकर डूब चुके हैं। और सदैव के लिए अपना अस्तित्व खो चुके हैं।

इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन (इसरो) द्वारा अत्याधुनिक रिमोट सेंसिंग प्रणाली द्वारा वस्तुस्थिति को चलचित्र की भांति पटल पर देखकर स्पष्ट कर लेते हैं। उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजकर उनका संचालन रिमोट द्वारा किया जाता है, जिससे हम जंगल, स्थान, वस्तु, जल का निश्चित आकार-प्रकार पता कर सकते हैं। आज की रिमोट सेंसिंग इतनी परिष्कृत हो चुकी है कि 6x6 मीटर के भू-भाग के सही अक्षांश-देशांश ज्ञात कर वास्तविकता सामने ला देती है। इसी प्रकार जिओग्राफिकल इनफोर्मेशन सिस्टम (जी.आई.एस.) के ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (जी.पी.एस.) उपकरण हमें इस दिशा में मील का पत्थर साबित हो रहे हैं। एवं पृथ्वी की भौगोलिक स्थिति की सूचना उत्कृष्ट कैमरों से रिमोट द्वारा संचालित कर एकत्रित की जा सकती है।

उक्त दोनों प्रणालियों का सकारात्मक प्रयोग कर हम इस दिशा को नया आयाम दे सकते हैं और अपनी प्राकृतिक विरासत को हम पुनः ज्यों-का-त्यों हस्तांतरित कर सकते हैं। इस दूरदर्शिता से वनों को बचाने के अभियान में योगदान कर राष्ट्र की सेवा कर सकते हैं। वृक्षारोपण करें, छायादार और फलदार वृक्षों को लगाएं, उन्हें अपने संतान की भांति सहेजें, पालें-पोसें और संरक्षित करें।

इसके लिए भूमि एवं पौधों का चुनाव सही ढंग से करें। बहुत छोटे पौधे न चुने, कीट-पतंगों, पक्षियों को लुभाने वाले पौधे न चुनें। कृषक भाइयों को सलाह दें कि वे अपने खेतों की मेढ़ों पर नीलगिरी, सू-बबूल एवं बांस का वृक्षारोपण करें। इस प्रकार अपने प्रयासों से थोड़ी भी प्रकृति संरक्षित होती है तो सभी के प्रयासों से पूरी वसुधा संरक्षित हो सकेगी। प्रकृति हमें मां की तरह धूप, ताप, वर्षा, सर्दी, गर्मी से बचाती है, अपने आंचल में शरण देती है। आइए इसकी रक्षा करें।

अंत में प्रसिद्ध पर्यावरणविद् श्री सुंदरलाल बहुगुणा, जिन्होंने जगत् प्रसिद्ध चिपको आंदोलन द्वारा वनों के विनाश को रोकने का सफल आयाम स्थापित किया, के समान, हम भी इस धरा को इस संदेश के साथ पहुंचाएं-

आओ अपनी भूल सुधारें।
पर्यावरण का रूप सुधारें।।
कहते हैं सब वेद-पुराण।
बिना वृक्ष के नहीं कल्याण।।


जबलपुर (म.प्र.)

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Post By: Shivendra
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