हालांकि सन् 1992 के सरकारी प्रस्ताव की धारा 9 इस बात को अनुचित मानती है। इसमें साफ लिखा है कि संयुक्त वन प्रबंधन वनों के सभी उत्पाद जिसमें निस्तार आवश्यकताएं एवं वन उत्पादों के इस्तेमाल से संबंधित सामुदायिक अधिकार शामिल हैं, प्राथमिकता के आधार पर समितियों को दिए जाएं।
महाराष्ट्र में अब तक किसी भी गांव को संयुक्त वन प्रबंधन के अंतर्गत वन लाभों में से अपना हिस्सा प्राप्त नहीं हुआ था। अपने तरह की प्रथम पहल में महाराष्ट्र वन विभाग ने संयुक्त वन प्रबंधन योजना के अंतर्गत 10 गांवों को लाभ में से उनका हिस्सा देने का निर्णय लिया है। इस संदर्भ में गढ़चिरौली जिले के आठ एवं गोंदिया जिले के दो गांवों को कुल 74,51,063 रुपए की राशि प्रदान की जाएगी। यह राशि उन्हें वन उत्पादों की बिक्री से प्राप्त धन पर लगने वाले 7 प्रतिशत वन विकास कर के माध्यम से प्रदान की जाएगी। संयुक्त सचिव द्वारा 24 मई को मुख्य वन संरक्षक को लिखे गए पत्र में यह जानकारी दी गई कि संयुक्त वन प्रबंधन योजना के अंतर्गत ग्रामीणों को वन उत्पाद में से उनका हिस्सा दिया जाना अनिवार्य है। हालांकि वर्ष 1992 से लागू इस योजना से अब तक किसी भी गांव को कोई प्राप्त नहीं हुआ है।वन विभाग के प्रमुख सचिव प्रवीण परदेशी का कहना है कि यह कदम उठाने में देरी इसलिए हुई क्योंकि अप्रैल 2003 के एक शासकीय प्रस्ताव के अनुसार संयुक्त वन प्रबंधन समिति गांवों को तभी भुगतान करेगी जबकि यह सुनिश्चित हो गया हो कि उन्होंने कम से कम दस वर्षों तक वनों का संरक्षण किया हो। उनका कहना है ‘चूंकि भुगतान सन् 2013 में होना है। अतएव संयुक्त वन प्रबंधन के खाते से भुगतान नहीं किया जा सकता। इसलिए यह तय किया गया वन सरचार्ज जो कि वनों का जिलास्तरीय विकास कोष है, के माध्यम से भुगतान का निर्णय लिया गया है। संयुक्त वन प्रबंधन समितियां वन की सुरक्षा करती हैं। अतएव उनका ही इस पर पहला दावा है। इस योजना के अंतर्गत आने वाले गांवों को विभिन्न चरणों में इसी तरह भुगतान किया जाएगा।’
वन अधिकार समूहों ने इस पहल का स्वागत किया है। लेकिन वे इस तथ्य से असंतुष्ट हैं कि वन विभाग ने राज्य सरकार के 16 मार्च 1992 के निर्णय की अवहेलना की है। क्षेत्र के प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता एवं वरिष्ठ वन अधिकार कार्यकर्ता मोहन हीराबाई हीरालाल का कहना है कि सरकार का प्रथम निर्णय संयुक्त वन प्रबंधन गांवों के लिए बेहतर अवसर प्रदान करता था। इसके अंतर्गत प्राकृतिक वनों को पांच वर्षों तक संरक्षित करने के बाद लाभ प्राप्ति की पात्रता थी। उनका कहना है कि वर्ष 1992 एवं 2003 के मध्य गठित संयुक्त वन प्रबंधन समितियों को 1992 के सरकारी निर्णय के हिसाब से लाभ दिया जाना चाहिए। वहीं दूसरे सरकारी निर्णय के अंतर्गत संयुक्त वन प्रबंधन समितियों द्वारा प्राकृतिक वनों एवं रोपे गए वनों दोनों के लिए 10 वर्ष की प्रतीक्षा अवधि अनिवार्य कर दी गई है।
वहीं परदेशी प्रथम सरकारी निर्णय को गांववासियों के लिए लाभप्रद नहीं मानते क्योंकि उनके अनुसार इसमें मुख्य लकड़ी पर भुगतान मिलने की पात्रता नहीं है। हालांकि सन् 1992 के सरकारी प्रस्ताव की धारा 9 इस बात को अनुचित मानती है। इसमें साफ लिखा है कि संयुक्त वन प्रबंधन वनों के सभी उत्पाद जिसमें निस्तार आवश्यकताएं एवं वन उत्पादों के इस्तेमाल से संबंधित सामुदायिक अधिकार शामिल हैं, प्राथमिकता के आधार पर समितियों को दिए जाएं। शेष 50 प्रतिशत समितियों को नकद प्रदान किया जाए।
मोहनभाई ने आरोप लगाया कि ‘विभाग जानबूझकर मूल सरकारी प्रस्ताव से खिलवाड़ कर रहा है और ग्रामीणों को नुकसान पहुंचा रहा है।’ विभाग प्रत्येक गांव से वर्षानुसार एवं उत्पाद के हिसाब से अर्जित धन की विस्तृत जानकारी भी नहीं दे रहा है। उनका कहना है ‘ग्रामीणों को सिर्फ धन देना ही काफी नहीं है। सभी तरह के रिकार्ड में पारदर्शिता होनी चाहिए और ग्रामसभाओं को इस बात की जानकारी देना चाहिए कि इस धन की गणना किस प्रकार की गई है। इस संबंध में ग्रामसभाओं से अनुमति भी ली जानी चाहिए।’ प्रमुख सचिव को लिखे गए पत्र में उन्होंने वेबसाइट पर विस्तृत हिसाब देने की मांग की है। साथ ही उन्होंने यह भी मांग की है कि ऐसी पद्धति विकसित की जाए जिससे कि संयुक्त वन प्रबंधन समितियों के वन उत्पाद की बिक्री के तुरंत बाद अपना हिस्सा प्राप्त हो सके।
परदेशी के अनुसार मोहनभाई के वितरण संबंधित विस्तृत हिसाब देने के प्रस्ताव को सरकार ने मान लिया है और इस पर शीघ्र अमल करेगी। भविष्य में भुगतान के संबंध में उनका कहना है कि सरकार के 25 अक्टूबर 2011 के नवीनतम प्रस्ताव के अनुसार समितियों को वार्षिक भुगतान वन उत्पादों की बिक्री के तुरंत बाद प्रदान कर दिया जाए। लेकिन उनकी इस बारे में चुप्पी है कि संयुक्त वन प्रबंधन का हिसाब किताब विभाग की वेबसाईट पर प्रदर्शित किया जाएगा या नहीं?
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