वन अधिकार कानून कुछ मिथक और सच्चाइयाँ

प्रस्तावना किसी कानून का आधार होता है। इसकी प्रस्तावना में उन लोगों को वन अधिकार देने की बात स्पष्ट तौर पर कही गई है जो पीढ़ियों से वन में रह रहे हैं लेकिन जिनके रिकॉर्ड नहीं बने हैं। इस साल के शुरू में अनुसूचित जनजाति और अन्य पारम्परिक वनवासी (वन अधिकार को मान्यता) कानून, 2006 की अधिसूचना जारी की गई। कई बुद्धिजीवी इसके पक्ष में तो कई दूसरे विरोध में हैं। ऐसे लोग भी हैं जिनका मानना है कि सुरक्षित रखने की प्रक्रिया के दौरान वनों में रहने वाले आदिवासियों और अन्य समुदायों के साथ अन्याय हुआ और बाघों की वकालत करने वाले इस मुगालते में रहे कि वन-भूमि का आखिरी हिस्सा उन समुदायों को दिया जाएगा जो वन्य-जीवों, खासतौर से बाघों के बीच नहीं रह सकते। सच तो इन्हीं के बीच छिपा है और सरकार के साथ-साथ इन समुदायों की गम्भीरता और तैयारियाँ यह निर्धारित करेगी कि इस ऐतिहासिक अन्याय को खत्म किया जा चुका है या हम एक और ऐतिहासिक भूल करने जा रहे हैं।

इस बात पर गौर करना जरूरी है कि यह कानून कैसे बना। इस कानून और नियमों को बनाने में भारत सरकार को लगभग दो वर्ष का समय लगा। हालाँकि तकनीकी सलाहकार दलों, जिन्हें कानून और नियम दोनों के लिए गठित किया गया था, ने निर्धारित समय से पहले ही अपना मसौदा दे दिया था। इन्तजार खत्म हो गया और जिस तरह से देरी करने की कोशिशें की गईं उससे साफ है कि इस कानून के उद्देश्य और लक्ष्य को नहीं समझा गया। इस वजह से बाघों और आदिवासियों को काफी परेशानी उठानी पड़ी। बाघों को मार दिया गया और आदिवासी खत्म हो गए।

आखिरकार यह कानून क्या कहता है? इसका मानना है कि संरक्षण की प्रक्रिया से इस देश में सुरक्षित वन क्षेत्र बढ़ रहा है। इसके साथ संरक्षित क्षेत्र उपनिवेश काल और उसके बाद के समय में दोषपूर्ण रहे हैं। वनवासियों, खासतौर से आदिवासियों के अधिकारों के रिकॉर्ड बनाने से इंकार करके उनके जायज दावों को गलत प्रक्रिया के तहत नहीं माना गया और अब समय आ गया है कि रिकॉर्ड नहीं किए गए उनके जायज दावों को रिकॉर्ड किया जाए बशर्ते उनके सबूत हों और भूमि पर उनके ऐतिहासिक दावों को साबित करते हों। तीन स्तर के आधिकारिक ढाँचे के साथ अधिकारों को रिकॉर्ड करने के लिए एक रूपरेखा तैयार की गई है जिसमें रिकॉर्ड नहीं किए गए वन अधिकारों को मान्यता देने के लिए एक समयबद्ध प्रक्रिया अपनाई जाएगी। इस प्रकार ऐसे संवेदनशील वनवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को खत्म किया जाएगा। वन-भूमि पर व्यक्तिगत और पारिवारिक कब्जे, चरवाहों और घुमन्तू जातियों समेत सामुदायिक पात्रता के अधिकारों समेत कई वन अधिकारों को मान्यता दी गई है जिनमें छोटे-मोटे वन उत्पाद का मालिकाना हक भी शामिल है। इसके अलावा कानून में सामुदायिक वन संसाधनों के संरक्षण, प्रबन्धन और पुनः विस्तारण के अधिकार भी दिए गए हैं।

पहली बार समुदाय को न केवल संरक्षण की बल्कि इस तरह की जिम्मेदारियों के निर्वहन का दायित्व भी सौंपा गया है। कानून में स्पष्ट उल्लेख है कि यह एक अतिरिक्त जिम्मेदारी है न कि अन्य किसी कानून का अनादर है। इसका सीधा मतलब है कि अगर कोई और कानून है जो वन अधिकार कानून जैसा है तो दोनों कानूनों का इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन उनका इस्तेमाल एक-दूसरे के खिलाफ नहीं किया जा सकता। इस कानून में अधिकार में ली जाने वाली भूमि के क्षेत्रफल के बारे में कुछ विवादास्पद प्रावधान हैं (अधिकतम चार हेक्टेयर तक), वनवासी अनुसूचित जनजातियों (जो खुद स्पष्ट नहीं है) के लिए 13 दिसम्बर की अन्तिम तिथि। इसमें अन्य वनवासियों को नियमों के मुताबिक रिकॉर्डों और सबूतों की मदद से साबित करना होगा कि वे 75 साल से एक ही जगह पर रह रहे हैं। इस कारण इस कानून को लेकर कई भ्रान्तियाँ पैदा हो रही हैं।

यह आकलन करना जरूरी है कि क्या हमने बाघ वालों और आदिवासी वालों के चक्कर में पड़कर वास्तविक बहस को नजरअन्दाज कर दिया है तथा दोनों को बलि चढ़ा दिया है। चुपचाप रहने वाले अधिकतर लोग स्पष्ट रूप से हाँ में जवाब देंगे। वन अधिकार कानून को लेकर इस समय जो अड़चनें नजर आती हैं वे इसे लागू किए जाने के समय गलत सूचना देने, बढ़ा-चढ़ाकर अधिक जमीन का आवण्टन कराने, मालिकाना हक, मान्यता की प्रक्रिया, अन्तिम तिथि और कानूनी दायित्वों के निर्वहन को लेकर हो सकती है।

वन-भूमि पर व्यक्तिगत और पारिवारिक कब्जे, चरवाहों और घुमन्तू जातियों समेत सामुदायिक पात्रता के अधिकारों समेत कई वन अधिकारों को मान्यता दी गई है जिनमें छोटे-मोटे वन उत्पाद का मालिकाना हक भी शामिल है।प्रस्तावना किसी कानून का आधार होता है। इसकी प्रस्तावना में उन लोगों को वन अधिकार देने की बात स्पष्ट तौर पर कही गई है जो पीढ़ियों से वन में रह रहे हैं लेकिन जिनके रिकॉर्ड नहीं बने हैं और इस तरह के मान्यता प्राप्त अधिकारों में वन उत्पादों का बराबर इस्तेमाल करने, जैव विविधता का संरक्षण और पारस्थितिकी सन्तुलन को बरकरार रखने तथा संरक्षण करने वालों को मजबूत बनाना शामिल है। दुनिया भर में यही सिद्धान्त लागू है जिसमें अवधि की सुरक्षा मूलभूत सिद्धान्त है ताकि कारगर संरक्षण रणनीति सुनिश्चित की जा सके। फिलीपींस के लोगों के अधिकार कानून, ऑस्ट्रेलिया में आदिवासी खिताब, सत्तर के दशक के मध्य से वन नीति समेत भागीदारी वन प्रबन्धन स्पष्ट रूप से वन प्रबन्धन में समुदायों की केन्द्रीय भूमिका को मान्यता देता है। पर्यावरण मन्त्रालय को काश्तकारी के जोखिम, भूमि और वन-भूमि के स्वामित्व में विवाद की जानकारी है और उसने अतीत में इन अनियमितताओं को दूर करने के लिए दिशा-निर्देश भी जारी किए हैं।

आखिरकार इस प्रकार की जानी-मानी अवधारणाएँ और अतिश्योक्तियाँ क्या हैं? क्या इस कानून में हर आदिवासी परिवार को चार हेक्टेयर वन-भूमि दी जाएगी? नहीं, वहाँ रहने वालों को अधिकतम चार हेक्टेयर भूमि दी जाएगी जिसे तीन स्तरीय जाँच प्रक्रिया के बाद वैध माना जाएगा। इसमें वन, आदिवासी, राजस्व समेत सभी सम्बन्धित विभाग और पंचायत पक्के सबूतों के आधार पर दावों का सत्यापन करने के काम में शामिल होंगे। यह अलग बात है कि हाल ही में अधिसूचित नियमों ने पंचायत कानून के तहत ग्राम पंचायत की ग्राम सभा को प्रक्रिया शुरू करने का काम सौंप दिया है जो कानून के आदेश-पत्र के एक हिस्से को स्पष्ट तौर पर नकारते हैं।

चार हेक्टेयर भूमि के तर्क पर निश्चित तौर पर सवाल किए जा सकते हैं। यह जादुई आँकड़ा ढाई हेक्टेयर के बीच एक सौदा है जिसकी संयुक्त संसदीय समिति ने, जो जहाँ है, के अनुसार पर वकालत की थी। इसे मौजूदा वन ग्राम नियमों के आधार पर पहले बनाया गया था। सही मायने में चार हेक्टेयर के पीछे कोई वैज्ञानिक और कानूनी आधार नहीं है।

इसमें एक और विवादित मुद्दा अन्तिम तिथि है। मेरी राय में इस कानून में अन्तिम तिथि के कोई मायने नहीं हैं। ऐतिहासिक अन्याय को ऐतिहासिक रिकॉर्डों से साबित किया जाना चाहिए। स्पष्ट रूप से 13 दिसम्बर, 2005 कोई ऐतिहासिक तारीख नहीं है। इसके अलावा अन्तिम तिथि अतिक्रमण के नियमन का संकेत देती है और निश्चित तौर पर बाघ की वकालत करने वालों की बेरुखी की यह एक वजह हो सकती है। लेकिन यह कानून अतिक्रमण के नियमन के बारे में नहीं है, यह अब तक दर्ज नहीं किए जा सके रिकॉर्डों को दर्ज करने और उचित प्रक्रिया का पालन करने के लिए है। देश में प्रत्येक वन्य-जीव संरक्षण और वन कानून में वास्तविक दावेदारों के लिए निर्धारित प्रक्रिया तय की गई है, जिसे दोषपूर्ण माना गया है और जिसे उच्चतम न्यायालय में अमान्य साबित करने की कोशिश की जा रही है। वन अधिकार कानून वर्तमान प्रक्रिया को बेहतर बनाने की कोशिश है।

बाघ की वकालत करने वाले दावा करते हैं कि कई हजार एकड़ भूमि आदिवासियों को हस्तान्तरित की जाएगी और वन अधिकार कानून के तहत उन्हें मालिकाना हक दिया जाएगा। कानून में किसी भी मालिकाना हक (केवल छोटी वन गतिविधियों को छोड़कर) या वन-भूमि हस्तान्तरण का जिक्र नहीं किया गया है। इसमें केवल काश्तकारी तय करने और वन-भूमि उन लोगों को सौंपने की व्यवस्था है, जो पीढ़ियों से वहाँ रह रहे हैं। कुछ का यह तर्क है कि शासन की सबसे निचली इकाई ग्राम सभा को अधिकार की प्रक्रिया शुरू करने की जिम्मेदारी नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि यह उनके बूते से बाहर है। तो आखिरकार ग्रामीण स्तर पर और कौन-सी संस्थाएँ उपलब्ध हैं? आखिरकार हम साधारण गाँव वालों की बुद्धिमता पर भरोसा क्यों नहीं करते? गाँधीजी उन पर भरोसा करते थे। और वास्तव में वनों का संरक्षण कौन कर सकता है? क्या दिहाड़ी पर काम करने वाले चौकीदार, गाईड, मुखबिर, वनों के बारे में जानकारी रखने वाले, गाँव का वह लड़का जो बाघ देखने के इच्छुक शहरियों को बाघ दिखाता है, उसी वनवासी समुदायों के सदस्य इसमें शामिल नहीं हैं? यह कानून उस जमीन की सुरक्षा के लिए है जिस पर वह रहते हैं।

हम वन्य-जीव संरक्षण कानून बनने के 35 साल बाद भी वन्य-जीवों को मारने वाले गिरोहों का पर्दाफाश नहीं कर पाए हैं जबकि यह नशीले पदार्थों की तस्करी के बाद होने वाला दूसरा सबसे बड़ा अपराध है। आखिर भारत के वन्य-जीवों और बाघों को सही मायने में किससे खतरा है? हम वन्य-जीव संरक्षण कानून बनने के 35 साल बाद भी वन्य-जीवों को मारने वाले गिरोहों का पर्दाफाश नहीं कर पाए हैं जबकि यह नशीले पदार्थों की तस्करी के बाद होने वाला दूसरा सबसे बड़ा अपराध है। हम सलमान खान और पटौदी के पीछे ही क्यों पड़ते हैं? क्या केवल वे ही अपराधी हैं या यह लोगों को गुमराह करने का एक बढ़िया तरीका है? हम वन्य-जीवों से जुड़े अपराधों से कारगर ढंग से निपटने के उपाय करने में नाकाम रहे हैं और यही कारण है कि हमारे देश में वन्य-जीव विलुप्त होते जा रहे हैं। वन अधिकार कानून का एक और विवादास्पद पहलू यह है कि इसमें विलुप्त होने के कगार पर पहुँच गए वन्य-जीवों के संरक्षण का जिक्र तक नहीं है। 2006 में वन्य-जीव संरक्षण कानून के संशोधन के तहत बाघों के लुप्त होने के कगार पर पहुँच जाने का उल्लेख किया गया था। लेकिन हम गौर से देखें तो अधिकार क्षेत्र के बारे में कुछ मामूली बदलाव के अलावा इस कानून में कुछ नहीं किया गया है। वन्य-जीवों और वनवासियों के रहने की जगहों की प्रक्रिया में कोई बदलाव नहीं किया गया है।

इसके आगे वन अधिकारों को लेकर जो दलीलें दी जा रही हैं उससे तो यही लगता है कि ये अधिकार अन्तिम हैं और संरक्षण से जुड़े मौजूदा कानूनों के प्रावधानों से ऊपर हैं। इस कानून में न केवल जरूरी शब्द गायब हैं बल्कि इसकी स्पष्ट रूप से व्याख्या भी नहीं की गई है। यह कानून अन्य कानूनों के प्रचलन पर रोक नहीं लगाता और वन अधिकारों को मान्यता देने की प्रक्रिया की हद तक हावी दिखता है।

ये ऐसे नियम हैं जो अपेक्षाओं से कम हैं। इससे चीजों के कार्यान्वयन में आसानी तो नहीं होगी। पारम्परिक ग्राम पंचायत की ग्राम सभा पर निर्भरता, मान्यता की प्रक्रिया शुरू करने में पंचायत सचिव के पद की शुरुआत, वन संसाधनों के संरक्षण और विस्तारण की विधियों और उपायों के बारे में स्पष्टता का अभाव, सरकार द्वारा, खासतौर से वन समुदायों द्वारा खुद शुरू किए गए वन प्रबन्धन के उपायों के बीच तालमेल का अभाव, सामुदायिक वन संसाधन को परिभाषित करने की अपर्याप्त प्रक्रिया, लुप्त होने के कगार पर पहुँचे वन्य-जीवों के बारे में चुप्पी, मान्यता की प्रक्रिया में सभ्य समाज के प्रतिनिधित्व का अभाव जैसी बातें इसे मुश्किल और जटिल बनाती हैं।

जो सबसे खतरनाक प्रवृत्ति उभर रही है वह यह है कि शहरी संरक्षणवादियों और आदिवासियों के हिमायतियों के बीच मतभेद अदालतों तक पहुँच गए हैं। देश भर के सेवानिवृत्त वन अधिकारियों, प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों, शिकार करना छोड़कर संरक्षण के लिए काम कर रहे लोगों ने तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और दिल्ली से कम से कम छह याचिकाएँ उच्चतम न्यायालय में दायर कर रखी हैं। आश्चर्य की बात है कि ऐसे लोग जो अदालत के आदेश पर उसकी मदद करते हैं संसद में इस कानून को पारित किए जाने से पहले ही कानून का विरोध कर रहे हैं और उन्होंने याचिका दायर कर रखी है। इस कानून की संवैधानिक वैधता पर उच्चतम न्यायालय को अपने आदेश पर नोटिस जारी करने में कुछ सेकण्ड लगे। मूल याचिका दायरकर्ता या उनके वकीलों ने इस पर नोटिस जारी करने के लिए बहस तक नहीं की। अब समय आ गया है कि केन्द्र सरकार एक मजबूत कानूनी लड़ाई के लिए पर्याप्त तैयारी करे अन्यथा कुछ मुखर विरोधियों द्वारा इस ऐतिहासिक कानून को नुकसान पहुँचाया जा सकता है। यह विडम्बना ही है कि वन्य-जीव की वकालत करने वाले आदिवासी भूमि के पुनरुद्धार को आधार बनाकर वन अधिकारों के खिलाफ याचिकाएँ डाल रहे हैं। निश्चित तौर पर वे एक अलग मुद्दे के लिए अलग आधार बना रहे हैं।

शायद सबसे बड़ी चुनौती मौजूदा तन्त्र को दुरुस्त करने की है जिसे इस मुश्किल कानून को लागू करने के लिए रखा जाना है। सरकारी और गैर-सरकारी लोगों को इस नये कानून को अच्छे ढंग से लागू करना है और उनकी कोशिशें भटकनी नहीं चाहिए। इस कानून के बारे में बुलाई जाने वाली विशेष ग्राम सभाओं को मजबूत करने की नितान्त आवश्यकता है। सरल भाषा में सही कानूनी सूचनाएँ उपलब्ध कराने की जरूरत है। उपमण्डल स्तरीय समितियों और मण्डल स्तरीय समितियों को इस विशाल प्रक्रिया को पूरा करने के लिए कानून के बारे में पूरी जानकारी देकर मजबूत करने की आवश्यकता है। पूरी तैयारी से ही ऐतिहासिक भूल को सुधारा जा सकता है। मौजूदा अड़चनों के सामने झुकने के बजाय उन समुदायों के मजबूत दावों को पूरा करना वास्तविक मुद्दा है जिन्होंने हमारे प्राकृतिक संसाधनों की सदैव बढ़-चढ़कर रक्षा की है।

मेरा आखिरी सवाल है − क्या पर्यावरण संरक्षक आदिवासियों से नफरत करते हैं या आदिवासियों के लिए काम करने वालों को हमारे पर्यावरण की चिन्ता नहीं है? दोनों ही बातें सही नहीं हैं। तो साफ है कि आपस के मतभेदों को दूर कर लिया जाए और बाघ एवं आदिवासियों को बचाने के लिए मिलकर काम किया जाए जो हमारी राष्ट्रीय धरोहर और गौरव हैं।

(लेखक उच्चतम न्यायालय में वकील हैं और वन अधिकार कानून और नियम तैयार करने के लिए गठित तकनीकी सलाहकार समूह के सदस्य थे। वह वन्य-जन्तु संरक्षण कानून का अध्ययन करने और उसमें संशोधन का सुझाव देने वाली समिति के भी सदस्य हैं और भारत की पहली पर्यावरण सम्बन्धी कानूनी संस्था द एनवायरो लीगल डिफेंस फर्म चलाते हैं)
ई-मेल : sanjay@eldfindia.com

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