पत्थर चुगान, रेत खनन तथा नदियों पर बांधों के निर्माण को लेकर नीति बने। प्रदूषण मुक्ति, नदी भू उपयोग, जलग्रहण क्षेत्र विकास तथा सरकारी परियोजनाओं की लोकनिगरानी सुनिश्चित करने हेतु कामयाब नीति का निर्माण किया जाये। प्राधिकरण ने इस दिशा में कदम उठाना तो दूर, बातचीत के एजेंडे में शामिल करने की जहमत भी नहीं उठाई। प्रो. जीडी अग्रवाल का अनशन और अनशन के समर्थन में आए जनमानस ने भूमिका निभाई। प्राधिकरण के विषेशज्ञों की कसरत भी बाहर-बाहर ही कारगर हुई। याद करने की बात है कि मातृसदन, हरिद्वार के संत निगमानंद अनशन करते रहे, प्राधिकरण सोता रहा। उनकी मौत पर आंसू बहाने का वक्त भी प्राधिकरण को नहीं मिला।
तीन साल पहले 10 फरवरी को उम्मीद बंधी थी कि अब गंगा अपनी संतानों की उपेक्षा की शिकार होने से बच जायेगी। वर्ष- 2009 में इसी तारीख को राष्ट्रीय नदी गंगा बेसिन प्राधिकरण के गठन की औपचारिक अधिसूचना जारी की गई थी। प्रकृति व समाज के प्रतिनिधि के तौर पर पर्याप्त संख्या में कई विशेषज्ञ वैज्ञानिकों के साथ एक सामाजिक कार्यकर्ता के शामिल किए जाने से मेरे जैसे पानी पत्रकारों को भी उम्मीद जागी थी कि शायद अब समाज की सहभागिता सुनिश्चित करने के लिए कुछ ठोस पहल हो।... गंगा निर्मलता के नाम पर मशीने सजाने व पैसा कमाने की मलीनता पर कुछ रोक लगे। संभावना उभरी थी कि शायद अब गंगा की कुछ सुनी जाये। लेकिन वह सब खामख्याली सिद्ध होती नजर आ रही है। परिदृश्य यह है कि तीन साल पहले की तरह आज भी गंगा को राष्ट्रगान और राष्ट्रीय ध्वज जैसा सम्मान व गौरव देने की मांग करनी पड़ रही है। 7 फरवरी को दिल्ली पहुंचे गंगा सेवा अभियान के सार्वभौम प्रमुख स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने गंगा की अविरलता-निर्मलता के लिए अपनी तपस्या की शुरुआत करते हुए यह मांग की।मकर संक्रान्ति - 14 जनवरी को लिए गए इस संकल्प में प्रो. जीडी अग्रवाल के बाद अब बांध विशेषज्ञ सी.एल. राजम भी शामिल हो गए हैं। गंगा तपस्वियों का यह दल 8 फरवरी को लोकसभाध्यक्ष और राष्ट्रपति से मुलाकात कर मातृसदन, हरिद्वार के लिए रवाना हो जायेगा।उल्लेखनीय है कि प्राधिकरण के गठन के तीन वर्ष पूरे हो चुके हैं। तीन वर्ष में मात्र दो बैठकें प्राधिकरण के खाते में हैं। तीसरी बैठक गठन के चौथे वर्ष के पहले पखवाड़े में प्रस्तावित है। माननीय प्रधानमंत्री जी इस प्राधिकरण के मुखिया हैं। उन्हें फुर्सत ही नहीं हुई कि जिसे राष्ट्रीय नदी का दर्जा दिया है, उसे राष्ट्रीय स्तर की स्वच्छता, शुचिता व उसके प्रति अनुशासन सुनिश्चित कराने के कदमों पर कभी बैठकर ठीक से चर्चा कर लें। अरे, किसी दूसरे को ही कह देते कि प्राजी! भैणजी!! तुसी संभाल लेवो, पर साडी गंगा मैया नूं अविरल-निर्मल बनान दे कम वीच कोई लोचा नी आन चाइदा। यही सुनिश्चित करने के लिए ही तो गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा दिया गया था, ताकि गंगा की राष्ट्रीयता.... इसका सार्वभौमिक शुचिता को समृद्ध करने का काम राज्य और केंद्र के बीच में फंसकर चूं चूं का मुरब्बा बनकर न रह जाये। अब एक राष्ट्रीय नदी के प्रति अपनी जिम्मेदारी दूसरे को सौंपने का वक्त भी किसी देश के प्रधानमंत्री जी को न मिले, तो इसे क्या समझें? यह मैं नहीं कह रहा। राष्ट्रीय नदी के रूप में गंगा घोषणा की तीसरी सालगिरह पर नवंबर, 2011 में प्रधानमंत्री को लिखे अपने पत्र में गंगा विशेषज्ञ सदस्यों ने यह चिंता जाहिर की थी। इस पत्र का मजमून सचमुच चिंताजनक है।
इस पत्र में विशेषज्ञ सदस्यों ने प्रधानमंत्री से जानना चाहा था कि जब उनकी कोई उपयोगिता ही नहीं, तो वे प्राधिकरण में क्यों बने रहें? गंगा प्राधिकरण की कार्यप्रणाली तथा इसके अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति पर इससे बड़ा सवालिया निशान और क्या हो सकता है! पिछले तीन वर्ष के दौरान गंगा के नाम विश्व बैंक से कर्जा लिया गया। प्राधिकरण की पहल पर कई करोड़ों की परियोजनाओं को मंजूरी दी गई। फंड बांटे गये। कई परियोजनाओं को विशेष व निजी रुचि दिखाई गई। गंगा मास्टर प्लान-2020 बनाने की जद्दोजहद भी इसी दौर में शुरू हुई। एक विदेशी कंपनी को इसका ठेका देने की बात भी इसी प्राधिकरण ने चलाई। जनभागीदारी की रागिनी भी गाई गई। माननीय मंत्री ने कानपुर में कई प्रदूषक फैक्ट्रियों की भी खबर ली। कानपुर से लेकर बनारस तक प्रदूषण भी प्राधिकरण के निशाने पर आया। बहुत कुछ हुआ, लेकिन इस पूरे दौर में प्राधिकरण के गंगा विशेषज्ञ सदस्यों को कोई तवज्जो नहीं दी गई।
आज स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद के नये नामकरण वाले प्रो जी डी अग्रवाल फिर अनशन पर हैं। चुनाव के शोर में न मीडिया को फुर्सत है और न सरकार में बैठे नुमांइदे को। सरकार फिर नहीं सुन रही। जिस उमा भारती जी ने गंगा की परिक्रमा कर उ.प्र. में अपनी चुनावी तैयारी की, उनके मुखारबिंदु पर भी इस चुनाव में गंगा नहीं हैं। ऐसे में उम्मीद कहां बचती है? उल्लेखनीय है कि प्रो. अग्रवाल के साथ जिन चार अन्य ने गंगा रक्षा के लिए एक की जान जाने के बाद क्रमिक अनशन पर बैठने का संकल्प लिया है, उनमें गंगा हेतु बनाये इस प्राधिकरण के एक विशेषज्ञ सदस्य राजेंद्र सिंह भी शामिल हैं।
वाराणसी में नदी प्रदूषण तथा धार्मिक पक्ष की दोहाई देने के कारण ख्याति में आये महंत प्रो. वीरभद्र मिश्र, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पर्यावरण पढ़ा-पढ़ा कर बाल सफेद कर चुके प्रो. राशिद हमीद सिद्दीकी, डॉल्फिनमैन के नाम से प्रचारित डा. बी.डी. त्रिपाठी,राजेंद्र सिंह, विज्ञान को लोकहित का माध्यम मानने वाले इंजीनियर रवि चोपड़ा, बिहार में बाढ़-सुखाड़ के प्रतिनिधि के तौर पर डा. एस.के. सिन्हा और पुणे की बहन रमा राउत। जिस विशेषज्ञता के लिए इन्हें प्राधिकरण का गैरसरकारी सदस्य बनाया गया, उसके इस्तेमाल का मौका ही नहीं मिला। वह कहते रहे कि भई, भारत में प्लानरों की कमी नहीं, विदेशी कंपनी काहे को। अपनी आई.आई.टी. वाले प्लान करने बाहर जा रहे हैं, उन्हें ही सौंपिए। अंततः सौंपा भी। स्वीकृत की जा चुकी परियोजनाओं के तकनीकी, आर्थिक अथवा सामाजिक पहलुओं पर विषेशज्ञों से राय लेना तो दूर, इन्हें जानकारी तक नहीं दी गई कि परियोजना का प्रस्ताव क्या है। विशेषज्ञता के जिन बिंदुओं पर इन सदस्यों ने बैठक का एजेंडा बनाना चाहा, उसे तो एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दिया गया। इस प्राधिकरण मे कई मंत्री सदस्य हैं और कई अधिकारी भी। विशेषज्ञता का उपयोग क्या अधिकारियों द्वारा पहले से तय एजेंडे पर बस! सिर्फ गर्दन हिलाने से पूरा हो सकता है?विशेषज्ञ सदस्य यह भी कहते रहे कि फरक्का बैराज, नरोरा, हरिद्वार या टिहरी नहीं, तो कम से कम मूल में तो गंगा को प्रवाह मुक्त कीजिए। अलकनंदा, मंदाकिनी, भागीरथी, विष्णुगंगा, समेत कई प्रमुख धारायें देवप्रयाग के बाद गंगा के नाम से नजर आती हैं। गंगा को गंगा बनाने वाली किसी भी धारा को बाधित करने वाली परियोजनाओं के प्रस्ताव ही न मंजूर किए जायें। जो मंजूर कर दिए गये हैं, उन्हे रद्द किया जाये। पत्थर चुगान, रेत खनन तथा नदियों पर बांधों के निर्माण को लेकर नीति बने। प्रदूषण मुक्ति, नदी भू उपयोग, जलग्रहण क्षेत्र विकास तथा सरकारी परियोजनाओं की लोकनिगरानी सुनिश्चित करने हेतु कामयाब नीति का निर्माण किया जाये। उसके क्रियान्वयन हेतु कारगर एक लोकोन्मुखी ढांचे का निर्माण किया जाये। प्राधिकरण ने इस दिशा में कदम उठाना तो दूर, बातचीत के एजेंडे में शामिल करने की जहमत भी नहीं उठाई। हालांकि उत्तरकाशी से ऊपर परियोजनाओं को रद्द कराने का काम भी इस दौरान ही हुआ। लेकिन उसके लिए प्राधिकरण के भीतर नहीं, बाहरी दबाव काम आया। प्रो. जीडी अग्रवाल का अनशन और अनशन के समर्थन में आए जनमानस ने भूमिका निभाई। प्राधिकरण के विषेशज्ञों की कसरत भी बाहर-बाहर ही कारगर हुई। याद करने की बात है कि मातृसदन, हरिद्वार के संत निगमानंद अनशन करते रहे, प्राधिकरण सोता रहा। उनकी मौत पर आंसू बहाने का वक्त भी प्राधिकरण को नहीं मिला।
विशेषज्ञ सदस्यों द्वारा की गई आपात बैठक की मांग भी नक्कारखाने में तूती की आवाज ही साबित हुई। आज स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद के नये नामकरण वाले प्रो जी डी अग्रवाल फिर अनशन पर हैं। चुनाव के शोर में न मीडिया को फुर्सत है और न सरकार में बैठे नुमांइदे को। सरकार फिर नहीं सुन रही। जिस उमा भारती जी ने गंगा की परिक्रमा कर उ.प्र. में अपनी चुनावी तैयारी की, उनके मुखारबिंदु पर भी इस चुनाव में गंगा नहीं हैं। ऐसे में उम्मीद कहां बचती है? उल्लेखनीय है कि प्रो. अग्रवाल के साथ जिन चार अन्य ने गंगा रक्षा के लिए एक की जान जाने के बाद क्रमिक अनशन पर बैठने का संकल्प लिया है, उनमें गंगा हेतु बनाये इस प्राधिकरण के एक विशेषज्ञ सदस्य राजेंद्र सिंह भी शामिल हैं। यदि प्राधिकरण के भीतर विषेशज्ञों की सुनी जा रही होती, तो क्या राजेंद्र सिंह को अनशन का रास्ता अख्तियार करना पड़ता? मुझे मालूम नहीं है कि इस निर्णायक घड़ी में भी प्राधिकरण के अन्य विशेषज्ञ कोई निर्णय क्यों नहीं ले रहे। लेकिन यह जरूर मालूम है कि जिस समाज और प्रकृति ने इन्हें अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा है, कल जब इनसे सवाल पूछेंगे, तो जवाब देने के नाम पर बेबसी के सिवाय कुछ नहीं होगा। अतः वक्त आ गया है कि निर्णय करें राष्ट्रीय नदी गंगा बेसिन प्राधिकरण के विशेषज्ञ सदस्य। प्राधिकरण छोड़े या फिर प्राधिकरण को गंगा रक्षा लायक बनायें? दुआ कीजिए कि प्राधिकरण की 16 फरवरी की बैठक नतीजा लाये।
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